वैकल्पिक खेती का रूप कोई नहीं सुझाता

सत्तर साल में खेती किसानी के विकास के लिए हमने क्या क्या नहीं बदल डाला, उन्नत बीज का इस्तेमाल करके हरित क्रांति कर डाली। देश खाद्य उत्पादन में आत्म निर्भर बना। खेती के लिए ट्रेक्टर और दूसरे औजारों को इस्तेमाल करके समय धन और उर्जा की बचत में रिकार्ड बना डाले
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केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने शनिवार को देश के गांवों के बारे में एक खयाल पेश किया है। इस साल लोकसभा चुनाव के ऐन पहले उन्होंने गांवों को आदर्श बनाने के लिए अपना विचार सामने रखा। विचार यह है कि देश में पारंपरिक खेती को बदलना पड़ेगा। पारंपरिक खेती से उनका मतलब यह है कि अभी देश में दशकों से कुछ चुनिंदा फसलों का उत्पादन ही होता आ रहा है। उन्होंने चीनी यानी गन्ना, गेहूं और दाल के उदाहरण दिए। इन फसलों का उत्पादन इतना हो रहा है कि वह देश की मांग से ज्यादा है यानी अधिशेष है।

इस आधार पर गडकरी ने कहा कि जरूरत वैकल्पिक खेती की है। यानी दूसरी फसलों पर ध्यान लगाने की है। गडकरी की कही यह बात वही है जो कृषि विशेषज्ञ और देश की बेहतरी के लिए अपने अपने खयाल पेश करने वाले अर्थशास्त्री कई साल से कहते आ रहे हैं। लेकिन विशेषज्ञों के इन सुझावों को अब तक सिरे क्यों नहीं चढ़ाया जा सका? इसकी चर्चा नहीं होती।

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क्या है पारंपरिक खेती

सत्तर साल में खेती किसानी के विकास के लिए हमने क्या क्या नहीं बदल डाला, उन्नत बीज का इस्तेमाल करके हरित क्रांति कर डाली। देश खाद्य उत्पादन में आत्म निर्भर बना। खेती के लिए ट्रेक्टर और दूसरे औजारों को इस्तेमाल करके समय धन और उर्जा की बचत में रिकार्ड बना डाले। इसीका नतीजा है कि आज देश में मुख्य फसलों का जरूरत से ज़्यादा उत्पादन हो रहा है। यह सब पारंपरिक खेती और आधुनिक खेती के एकीकरण से संभव हुआ है। तो फिर अब यह समझना होगा कि गडकरी की बात किस प्रकार के नए बदलाव को लेकर है।

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कौन सा नया बदलाव

गडकरी के सुझाव में खेती के तौर तरीके नहीं बल्कि फसलों के चयन की बात है। यानी वे यह कह रहे हैं कि गेंहू, गन्ना जैसी फसलों की बजाए दूसरी फसलों पर ज़ोर लगाया जाए। लेकिन ये बात तो विशषज्ञ लोग लगभग हर साल बार बार दोहराते रहते हैं। फिर भी अगर केंद्रीय मंत्री ने इसे अपने सुझाव के तौर पर कहा है तो कम से कम इतना तो हुआ कि सरकार ने विशेषज्ञों के सुझाव पर गौर फरमाया है। यानी यह तय हुआ कि मौजूदा सरकार यह सोचने लगी है कि देश में गेंहू चावल से आगे सोचते हुए कुछ ऐसी फसलों को ढूंढा जाए जिनका उत्पादन अपने देश में कम है। यानी ऐसे कृषि उत्पाद उगाए जाएं जिन्हें हम विदेशों से खरीदते हैं। और जिनकी मांग निर्यात के लिहाज़ से विदेशी बाज़ार में भी ज्यादा हो।


मसला एक दो फसलों का ही नहीं

गडकरी ने भले ही सिर्फ गेंहू गन्ने और दालों का उदाहरण दिया हो लेकिन इनके अलावा भी कई फसलें और दूसरे कृषि आधारित उत्पाद हैं जो हम खींच के पैदा कर रहे हैं। मसलन चावल, दूध आदि। कीमत के लिहाज से दूध का उत्पादन तो गेंहू और चावल की कुल कीमत को मिलाकर भी कहीं ज्यादा बैठता है। ज्यादा उत्पादन के कारण इन उत्पादों के वाजिब दाम नहीं मिल पाते।

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बात सिर्फ इतनी सी भी नहीं है। मुश्किल यह भी है कि इन चीजों का उत्पादन दूसरे देशों में भी बहुतायत में है। सो वैश्वीकरण के दौर में उन देशों की दबिश भी हम पर पड़ती रहती है कि हमसे सस्ते दाम पर ये चीजें खरीद लो। विश्व में इन चीजों की ज्यादा आपूर्ति होने के कारण किसानों को वाजिब दाम मिल पाने में अड़चन आती है।


पारंपरिक फसलों के निर्यात की घटती संभावना

गेंहू, चावल, चीनी, दूध, जैसे कृषि उतादों का पूरी दुनिया में भारी मात्रा में उत्पादन हो रहा है। इसीलिए वैश्विक बाज़ार में इन्हें बेचने की प्रतिस्पर्धा चरम पर है। लिहाजा इन चीजों के निर्यात की संभावना अपने आप खत्म या कम हो जाती है। इस तरह से विशेषज्ञों का यह सुझाव सौ फीसद वाजिब है कि इन फसलों का उत्पादन कम करके ज्यादा मांग वाली फसलों पर घ्यान लगाया जाए।

लेकिन अपने देश के किसानों के साथ दिक्कत यह है कि पारंपरिक खेती को छोड़कर नई फसलों को जोखिम वे कैसे उठाएं। पारंपरिक ज्ञान के अलावा वे नया ज्ञान कहां से पाएं। दूसरी क्या चीज़ उगाएं? और उगा भी लें तो उसका बाज़ार कहां ढूंढें? यहीं पर सरकार की जिम्मेदारी शुरू होती है।

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विश्व बाज़ार का सर्वेक्षण सरकार ही कर सकती है

विश्व बाजार में मांग के सर्वेक्षण का काम निजी स्तर पर नहीं हो सकता। भारतीय ग्रामीण परिवेश में तो यह सोचा भी नहीं जा सकता। विश्वस्तर के स्वयंसेवी संगठनों की रूचि गांव किसान या खेती किसानी में बेहद कम है। वैसे भी शोध और विकास के बारे में सोच विचार का काम इतना खर्चीला है कि स्वयंसेवी संगठन सामाजिक सर्वेक्षणों के काम तक से बचते हैं। यानी सिर्फ सरकारें ही यह काम कर सकती हैं कि किन किन देशों में उन कृषि उत्पादों की कमी है जिन्हें भारत में उगाकर उन देशों को बेचा जा सकता है। विकसित देश यही काम करते हैं और अपने किसानों को सारी सुविधाएं मुहैया कराते हैं।

वे सरकारें ही किसानों को बताती हैं कि यह चीज़ उगाइए। वे देश अपने किसानों को उन फसलों के लिए भारी सबसिडी भी देते हैं और उनकी सरकारें अपने किसानों के उत्पाद दूसरे देशों में बिकवाने के लिए सारे जुगाड़ करती हैं। अमेरिका इसका जीता जागता उदाहरण है। ऐसा उदाहरण कि अपनी दबिश बनाकर वह रिकार्डतोड़ कृषि उत्पादन करने वाले भारत की सरकार से अपने कृषि उत्पाद को खरीदने की पेशकश भी हासिल कर लेता है।

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हाल की ही तो बात है कि हमने अमेरिका को उसके कृषि उत्पाद और दूध के उत्पाद को भारत में बेचने के लिए छूट देने का इरादा जता दिया। जबकि इन उत्पादों का अपने देश मे इतना ज्यादा उत्पादन है कि देसी उत्पादक अपनी उपज का वाजिब दाम नहीं पा रहे हैं। खैर यह तो एक दो उत्पादों की बात है। पता करने निकलेंगे तो पता चल सकता है कि बहुत से उत्पादों के मामले में लगभग यही हालत है।

कुलमिलाकर सरकार अगर पारंपरिक फसलों की बजाए वैकल्पिक फसलों का सुझाव दे रही है तो लगे हाथ उसे यह भी पता करने पर लग जाना चाहिए कि भारत के किसान कौन सी फसलें उगाएं? नई फसलों के वाजिब दाम दिलवाने के लिए सरकार को पहले से सुविचारित योजना भी बनाकर रखना पड़े़गी। इस नए प्रकार के लक्ष्य को हासिल करने के लिए चेंज मैनिजमेंट यानी बदलाव प्रबंधन के सारे नुक्तों पर सोचना पड़ेगा। खासतौर पर अपने किसानों की मौजूदा हालत से लेकर खुद सरकार की माली हालत तक। 

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