दिल्ली की देहरी : परकोटे वाली दिल्ली की चारदीवारी

Nalin ChauhanNalin Chauhan   26 Oct 2017 3:37 PM GMT

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दिल्ली की देहरी : परकोटे वाली दिल्ली की चारदीवारीदिल्ली की देहरी।

नलिन चौहान

उत्तर और मध्य भारत में अंग्रेजों के राज से पहले के परकोटे वाले शहर, वहां के शहरी परिदृश्य का अभिन्न भाग रहे हैं। ऐसे में, इस चीज को समझने के लिए दिल्ली, जयपुर, आगरा, लखनऊ और अमृतसर जैसे पुराने शहरों के परकोटे वाले स्थान महत्वपूर्ण हैं। मुगल बादशाह शाहजहां ने 1639 में दिल्ली में एक नया शहर बसाने का फैसला किया। नतीजन लाल किला और शाहजहानाबाद दस साल में बनकर पूरा हुआ। सात मील के दायरे में फैले हुए इस नए शहर की तीन तरफ एक मोटी और मजबूत दीवार बनी थी।

शमा मित्र चेनॉय अपनी पुस्तक "शाहजहांबादः एक सिटी ऑफ़ दिल्ली (1638-1857)" में लिखती है कि जब शहर में आबादी बसी तब उसकी परिधि के साथ मिट्टी की एक दीवार बनायी गई थी। कश्मीरी दरवाजे से शुरु होकर यह दीवार बायीं तरफ तीन चौथाई मील तक एक सीधी रेखा की तरह मोरी दरवाजा तक जाती थी। जबकि महेश्वर दयाल की पुस्तक "दिल्ली जो एक शहर है" के अनुसार, शाहजहानाबाद की दीवार वर्ष 1650 में पत्थर और मिट्टी की बनाई गई थी, जिस पर तब पचास हजार रूपए का खर्चा आया। यह 1664 गज चौड़ी और नौ गज ऊंची थी और इसमें तीस फुट ऊंचे सत्ताईस बुर्ज थे।

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1857 में देश की आजादी की पहली लड़ाई के बाद मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफर को देश निकाला दे दिया गया और दिल्ली अंग्रेजों के गुस्से और तबाही का शिकार बनी। गोपाल भार्गव अपनी पुस्तक “अर्बन प्रोबलम्स एंड अर्बन पर्सपेक्टिवज” में लिखते हैं कि 1857 में अंग्रेज कश्मीरी गेट से शहर में बदले, नफरत और शोध लेने की भावना के साथ दाखिल हुए। सिटी मजिस्ट्रेट फिलिप एगर्टन ने प्रस्ताव रखा कि जामा मस्जिद को एक ईसाई चर्च बनाकर उसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए और उसे संगमरमर के फर्श पर बने हजार खानों में ईसाई शहीदों के नाम खोदे जाने चाहिए। यह तो पंजाब के तत्कालीन मुख्य आयुक्त, सर जॉन लॉरेंस की समझदारी थी कि शाहजहानाबाद ऐसे पागलपन से बच गया।

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फरवरी 1858 में अंग्रेज सैनिक अधिकारियों ने शहर की दीवार को ध्वस्त करने का आदेश दिया। तत्कालीन कमिश्नर जॉन लॉरेंस इस को पूरी तरह एक गलत फैसला मानता था। उसने दिल्ली में सात मील लंबी दीवार को उड़ाने के लिए अपर्याप्त बारूद होने की बात कही। फिर आदेश को पूरा करने के लिए मजदूरों ने एक-एक करके हाथ से दीवार के पत्थरों को हटाया। यह एक तरह से जानबूझकर देरी के लिए अपनाई रणनीति हो सकती है, क्योंकि वर्ष के अंत में सुप्रीम गर्वनमेंट ने उसकी बातों को स्वीकार कर लिया और दीवार को कायम रखने का फैसला किया।

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उल्लेखनीय है कि मार्च 1859 में “दिल्ली गजट” नामक अखबार ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि महल यानी लालकिला के भीतर इमारतों को गोला-बारूद से नेस्तानाबूद करने का काम हो रहा है। इसके एक साल बाद, जब लार्ड कैनिंग ने वास्तुकला या ऐतिहासिक महत्व की पुरानी इमारतों को संरक्षित किए जाने का आदेश दिया तो तब तक काफी नुकसान हो चुका था। इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने 1861 में, रेलवे लाइन के निर्माण के हिसाब से लाल किले के कलकत्ता गेट सहित कश्मीरी गेट और मोरी गेट के बीच के क्षेत्र को ध्वस्त कर दिया। इसके पीछे उनका मकसद साफ था कि अगर भविष्य में भारतीयों की ओर से दोबारा ऐसा प्रयास होता है तो ब्रितानी सेना उसे जल्दी और आसानी से दबा सकें।

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1857 के बाद, अंग्रेज शासकों ने शाहजहानाबाद से दूरी बना ली। उन्होंने जानबूझकर इसकी अनदेखी की। कश्मीरी गेट क्षेत्र में परकोटे वाले शहर में कुछ समय रहने के बाद वे सिविल लाइन्स के इलाके में स्थानांतरित हो गए। इस तरह, उन्होंने पुराने शहर और नए बस्तियों के बीच यानी कुदसिया और निकोलसन बागों की काफी जगह छोड़ दी। न केवल भौगोलिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से शाहजहानाबाद पृथक ही बना रहा और दीवार पुराने तथा परिवर्तन की नई हवाओं के बीच एक अवरोध के रूप में कायम रही।

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वर्ष 1872 में दिल्ली को एक सुंदर शहर बनाने की चाहत रखने वाला अंग्रेज कमीश्नर कर्नल क्रेक्रॉफ्ट पुराने शहर की दीवार को अराजकतावाद की निशानी मानता था। वर्ष 1881 में नगर पालिका ने लाहौरी दरवाजे की दोनों ओर रास्ते बनाते हुए दिल्ली गेट को नष्ट करने का इरादा बनाया। तत्कालीन अंग्रेज कमांडर-इन-चीफ ने इस पर आपत्ति व्यक्त की क्योंकि वह कश्मीरी गेट और उससे सटी दीवारों को ऐतिहासिक महत्व की वजह से बचाना चाहता था। वहीं वर्ष 1905 में, एक मेजर पार्सन ने शाहजहानाबाद के भीड़भाड़ का हवाला देते हुए कुछ हद तक इस बात की वकालत करी कि शहर के फैलाव की जगह होनी चाहिए, अन्यथा यह खत्म हो जाएगा। उसने साफगोई से यह बात कही कि दीवार को तोड़कर शहर का पश्चिम की दिशा की तरफ विस्तार करना चाहिए।

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ब्रितानी राज में 1857-1911 की अवधि में दिल्ली में पूरा शहर विध्वंस का गवाह बना। इस अवधि में ब्रितानी सरकार ने अपनी सेना और प्रशासन में काम करने वाले गोरों के लिए घर, कार्यालय, चर्च, बाजार बनाए और इस तरह गोरों की आबादी शहर यानि शाहजहांनाबाद के परकोटे की दीवार से बाहर बस गई।

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यामिनी नारायणन की पुस्तक "रिलीजन, हैरिटेज एंड द सस्टेनेबल सिटी हिंदुइज्म एंड अर्बनाइजेशन इन जयपुर" के अनुसार, भारत में अंग्रेजी उपनिवेशवाद के बाद बने शहरों के साथ ही पुराने परकोटे वाले शहरों का महत्व घटना शुरू हुआ। वर्ष 1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेज़ शासकों ने ब्रितानिया साम्राज्य में नए बड़े शहरों को बनाने की शुरूआत की और वे पुराने परकोटे वाले शहरों से बाहर निकलने लगे। उल्लेखनीय है कि शाहजहाँनाबाद की पश्चिम और उत्तर दिशा की दीवारों के विपरीत दक्षिण-पश्चिमी तरफ की दीवार को असलियत में एक रूकावट माना गया था तथा वर्ष 1820 के दशक में इसके कुछ हिस्सों को ध्वस्त कर दिया गया।

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“द ट्रेडिशन ऑफ़ इंडियन आर्किटेक्चर” पुस्तक में जीएचआर तिलोटसन लिखते हैं कि वर्ष 1911 में, अंग्रेज राजा जॉर्ज पंचम ने भारत की राजनीति से संबंधित व्यक्तियों को दिल्ली को एक बार फिर भारत की राजधानी बनाने की घोषणा करके अचंभे में डाल दिया। उल्लेखनीय है कि अंग्रेज राजा ने अपने भाषण में दिल्ली को प्राचीन राजधानी बताया। उस समय तक कलकत्ता ब्रिटिश भारत की राजधानी थी।

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वर्ष 1911 में अंग्रेजों के अपनी राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली लाने के साथ ही एडवर्ड लुटियन को शाहजहांनाबाद के बाहर नई दिल्ली बनाने का दायित्व सौंपा गया। वह (लुटियन) तो वायसराय भवन से लेकर जामिया मस्जिद तक एक सीधी सड़क निकालना चाहता था, जो पुरानी दिल्ली की दीवार और बाजारों से होते हुई गुजरती। लेकिन उसकी इस योजना को अंग्रेज राजा की स्वीकृति नहीं मिलने के कारण ऐसा नहीं हो सका।

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“सिटी वॉलः द अर्बन एनसीइन्ट इन ग्लोबल पर्सपेक्टिव” शीर्षक वाली पुस्तक के अनुसार, हर्बर्ट बेकर और एडविन लुटियंस दोनों को एक और दिल्ली की योजना बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी। लुटियन का शहर आधुनिकता और प्रगति की एक निशानी के रूप में तैयार होना था, जहां पर चारदीवारी या परकोटे का कोई स्थान नहीं था।

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