त्रिपुरा में पिछली दो शताब्दियों से यहां शासन उन लोगों के हाथ में था जिन्होंने वर्ष 1962 में भारत चीन युद्ध के समय मैक्मोहन रेखा के अस्तित्व को नकारा था और चीन के बजाय भारत को दोषी माना था।
असम के बाद अब नागालैंड, त्रिपुरा और मेघालय के चुनाव परिणाम में असली योगदान वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती और संस्कार भारती का है। इनके बिना जहां शान्ति और अहिंसा वाली भारतीय संस्कृति का प्रभाव नहीं था वहां भाजपा की विजय सम्भव नहीं थी।
पूर्वोत्तर में जनजातीय अहंकार, अलग पहचान, साम्सयवादी प्रभाव, मिशनरी गतिविधियों, निजी स्वार्थों आदि के कारण बनी अनेक पार्टियों के सामने कांग्रेस विफल रही थी। उसने समन्वय बनाने का एक ही रास्ता निकाला कि असम का विभाजन करते-करते सात प्रान्त बना दिये, फिर भी शान्ति नहीं कायम हुई।
विजय के बाद उन्माद न आ जाए इसका भी ध्यान रखना होगा, कुछ संयम जरूरी होगा। साम्यवादियों के प्रेरणा स्रोत माओत्से तुंग का भले ही मानना रहा हो कि बंदूक की नली से ताकत निकलती है और संघ परिवार ने केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में 70 साल तक मार खाई हो लेकिन देशहित में उसके लिए लेनिन की मूर्ति तोड़ने की आवश्यकता नहीं है।
यह सच है कि पूर्वोत्तर ने महात्मा गांधी का अहिंसा का मार्ग नहीं अपनाया बल्कि नेता जी बोस की सेना ने नागालैंड में आजादी का दरवाजा खटखटाया था, बाकी स्थानों पर भी सशस्त्र क्रान्ति को प्राथमिकता मिलती रही है। अब मौका मिला है पूर्वोत्तर में भारतीय संस्कृति का परचम लहराने का, मौका गंवाना नहीं चाहिए।
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नागालैंड का सशस्त्र अलगाववाद का इतिहास भी काफी पुराना है, आजादी के पहले का। वहां का नेता ए.जेड. फीजो नागा नेशलिस्ट मूवमेन्ट को चलाते हुए सशस्त्र क्रान्ति के द्वारा अलग देश बनाना चाहता था। वह 1956 में पूर्वी पाकिस्तान, अब बांग्लादेश, चला गया और वहां से लन्दन। वह 1990 तक जीवन पर्यन्त नागा अलगाववाद को पोषित करता रहा।
ईसाई मिशनरी भी कम सक्रिय नहीं थे इस दिशा में और पादरी फरेरा सहित अनेक लोगों को देश से निष्कासित किया गया था। सशस्त्र अलगाववादियों के खौफ़ का मुझे प्रत्यक्ष अन्दाज है जब मैं 1963 में सिबसागर में ओएनजीसी में कार्यरत था और गुवाहाटी से तिनसुखिया जाने वाली गाड़ी जब नागालैंड में कुछ समय के लिए प्रवेश करती थी सभी सशंकित रहते थे। अब नागालैंड की जनता ने एक अखिल भारतीय पार्टी का दामन थामा है, आशा है अलगाववाद के बीज सूख जाएंगे।
त्रिपुरा की हालत भी अधिक भिन्न नहीं रही है। पिछली दो शताब्दियों से यहां शासन उन लोगों के हाथ में था जिन्होंने वर्ष 1962 में भारत चीन युद्ध के समय मैक्मोहन रेखा के अस्तित्व को नकारा था और चीन के बजाय भारत को दोषी माना था। इस बात पर कम्युनिस्टों में मतभेद हो गया था और दो फाड़ हो गए थे मार्क्सवादी और भारतीय कम्युनिस्ट। विगत वर्षों में त्रिपुरा में अशान्ति का कारण रहा है बांग्लादेशी घुसपैठिए और पश्चिमी बंगाल के बंगाल से आए बंगाली, अलगाववाद। पूरे आसाम में साठ के दशक से ही यह सब चल रहा है। आसाम में वह समय मैंने देखा था जब बेहतर शिक्षा लेकर बंगाली लोग नौकरियां पा जाते थे और स्थानीय आसामी रह जाते थे।
त्रिपुरा की हालत भी अधिक भिन्न नहीं रही है। पिछली दो शताब्दियों से यहां शासन उन लोगों के हाथ में था जिन्होंने वर्ष 1962 में भारत चीन युद्ध के समय मैक्मोहन रेखा के अस्तित्व को नकारा था और चीन के बजाय भारत को दोषी माना था।
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पूर्वोत्तर में भाजपा का परचम लहराना किसी आश्चर्य से कम नहीं है। वहां की जीवन शैली और सोच संघ परिवार से बिल्कुल मेल नहीं खाते। मुझे याद है वर्ष 1999 में अटल जी ने लोकसभा में विश्वास मत का प्रस्ताव रखा था जिस पर बहस चल रही थी। पी.ए. संगमा ने अपने भाषण में कहा था अटल बिहारी वाजपेयी गाय को माता मानते हैं और हम उसे खाते हैं, हम उनका समर्थन कैसे कर सकते हैं। शायद एक वोट से विश्वास मत गिर गया था। विचित्र संयोग है कि संगमा के पुत्र कानरैड सांगमा अब बीजेपी के समर्थन से मेघालय के मुख्यमंत्री बने हैं।
कांग्रेस ने असम के सात खंड किए थे, असम, मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल, त्रिपुरा, मणिपुर और नागालैंड। यहां आदिवासियों के परस्पर विरोधी वर्गों के अलावा, मारवाड़ी, बंगाली, बांग्लादेशी, बडी संख्या में मुस्लिम आबादी रहती थी जिसमें कोई सामंजस्य नहीं था।
कांग्रेस ने असम के सात खंड किए थे, असम, मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल, त्रिपुरा, मणिपुर और नागालैंड। यहां आदिवासियों के परस्पर विरोधी वर्गों के अलावा, मारवाड़ी, बंगाली, बांग्लादेशी, बडी संख्या में मुस्लिम आबादी रहती थी जिसमें कोई सामंजस्य नहीं था। वास्तव में मुहम्मद अली जिन्ना ने आसाम को पाकिस्तान में शामिल करना चाहा था जिसके अनुसार पी से पंजाब और ए से आसाम का संकेत था। यहां के मिशनरी पादरियों ने शिक्षा का प्रचार प्रसार तो किया लेकिन उनमें यह विचार भर दिया कि तुम भारतीय नहीं हो, शीशे के सामने देखो तुम अलग हो। यह सच है वहां के लोगों का शारीरिक गठन चीन और तिब्बत के लोगों से मिलता जुलता है। उनमें भारतीयता का बोध कराने का प्रयास ही नहीं हुआ।
पूर्वात्तर के नेताओं में कोई भी राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावी नहीं रहा। देवकान्त बरुआ जो कांग्रेस के अध्यक्ष रहे थे उन्होंने कहा था ‘इन्दिरा इज़ इंडिया और इंडिया इज़ इन्दिरा’। पी. ए. संगमा का नाम ध्यान में आता है जो लोकसभा के स्पीकर रहे और बाद में कांग्रेस से अलग हो गए थे। ऐसे नेता शेष भारत के सम्पर्क में रहे लेकिन पूर्वोत्तर की जनता में भारतीय राष्ट्रीयता का बोध नहीं करा सके। समय बताएगा कि यह नया प्रयोग कितना अन्तर लाता है।