बैंकों में एनपीए बढ़ा: बड़ी कंपनियों को दिया गया जरुरत  से ज्यादा बना मुसीबत

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बैंकों में एनपीए बढ़ा: बड़ी कंपनियों को दिया गया जरुरत  से ज्यादा बना मुसीबतबैलेंस शीट की दोहरी समस्या के समाधान के लिए जो उपाय आर्थिक समीक्षा में सुझाए गए हैं, वे बैंड-एेड मात्र हैं।

बर्नार्ड डिमेलो

बैलेंस शीट की दोहरी समस्या के समाधान के लिए जो उपाय आर्थिक समीक्षा में सुझाए गए हैं, वे बैंड-एेड मात्र हैं। बैलेंस शीट की दोहरी समस्या का मतलब यह है कि कंपनियों को जरूरत से ज्यादा कर्ज़ दिया गया है और बैंकों का बहुत सारा कर्ज़ बुरे कर्ज़ में तब्दील हो गया है। बैंक अपने इन कर्ज़ों का सही प्रबंधन नहीं कर पा रहे हैं।

इस वजह से उनकी गैर निष्पादित संपत्ति यानी एनपीए बढ़ती जा रही है। आर्थिक समीक्षा 2015-16 के लेखकों ने इसके समाधान के लिए एक केंद्रीकृत सार्वजनिक क्षेत्र संपत्ति पुनर्वास एजेंसी यानी पीएआरए के गठन का सुझाव दिया है। इनके मुताबिक यह एजेंसी बड़े और मुश्किल मामलों को अपने हाथों में ले और कर्ज़ कम करने के लिए राजनीतिक तौर पर मुश्किल माने जाने वाले निर्णय ले।

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सरकारी बैंकों के कुल कर्ज़ों का छठा भाग मुश्किल में है। इसमें एनपीए भी शामिल है। आर्थिक समीक्षा में उन कंपनियों पर ध्यान केंद्रित किया गया है जिन्होंने बड़े कर्ज़ लेकर बुनियादी ढांचा क्षेत्र में बड़ी परियोजनाएं विकसित की हैं। इन कंपनियों का ब्याज और मुनाफे का अनुपात एक से कम है। इसका मतलब यह हुआ कि ये कंपनियां इतना भी नहीं कमा रही हैं कि अपना ब्याज तक चुका सकें। इन कंपनियों ने जो विदेशी कर्ज़ यानी ईसीबी जुटाए हैं, उन पर दिया जाने वाला ब्याज रुपए के कमजोर होने से बढ़ गया है। भारतीय रिजर्व बैंक भी अपनी मौद्रिक नीतियां महंगाई को ध्यान में रखकर बना रहा है। इससे भी ब्याज का बोझ बढ़ा है।

रिजर्व बैंक ने काॅरपोरेट कर्ज़ों को पुनगर्ठित करने की जो योजना बनाई है, उसमें कर्ज़ देने वाले को अधिक अहमियत दी गई है। उन्हें कर्ज़ चुकाने की अवधि बढ़ाने, ब्याज दर कम करने, कर्ज़ को शेयर में बदलने और अतिरिक्त कर्ज़ देने जैसी सुविधाएं दी गई हैं। इसके बावजूद स्थिति नहीं सुधर रही है। आर्थिक समीक्षा में नैतिकता की दुहाई देते हुए कहा गया है कि कर्ज़ पुनर्गठन से सरकारी बैंकों की कीमत पर निजी निवेशकों को फायदा मिल रहा है।

उदारीकरण का एक बड़ा लक्ष्य यह भी था कि निजी कंपनियां बुनियादी ढांचा क्षेत्र में निवेश करें। जब यह योजना कामयाब नहीं हो पाई तो सरकार ने सार्वजनिक निजी भागीदारी की अवधारणा पर काम करना शुरू किया। इसके तहत सरकारी कंपनियों पर विभिन्न परियोजनाओं के लिए बड़े कर्ज़ देने के लिए दबाव बनाया गया। ये परियोजनाएं ऐसी हैं जिनमें काफी वक्त लगता है और लंबे समय बाद मुनाफा आता है। निजी बैंक ऐसी परियोजनाओं को कर्ज़ देने को तैयार नहीं थे।

विभिन्न सरकारों ने इस समस्या को लगातार बढ़ने दिया। लेकिन मौजूदा सरकार को इसके समाधान के लिए कुछ न कुछ करना पड़ेगा। क्या पीएआरए इसका समाधान है? योजना यह है कि यह प्रस्तावित एजेंसी बड़े कर्जों को बैंकों से अपने हाथ में लेकर फिर या तो कर्ज़ को हिस्सेदारी में बदले या फिर हिस्सेदारी बेचे या अन्य कोई उपाय करे। अगर ऐसे कर्ज़ बैंकों के बही-खाते से हट जाते हैं तो उनकी आर्थिक सेहत सुधरी हुई लग सकती है। प्रस्तावित एजेंसी को तीन स्रोतों से फाइनांस किया जाएगा ये हैंः सरकारी प्रतिभूति जारी करना, निजी कंपनियों को शेयर खरीदने के लिए प्रोत्साहित करना और रिजर्व बैंक।

इस एजेंसी की अवधारणा 1990 के दशक में पूर्वी एशिया में आए संकट से निपटने के तरीकों से आई है। प्रस्तावित एजेंसी जिन कंपनियों की हिस्सेदारी उनके कर्ज़ों को बैंकों से लेकर बेचेगी, उसे भी निजी कंपनियां ही खरीदेंगी। उन्हें भी इस बात का यकीन रहेगा कि जनता से जुड़ी परियोजनाएं विकसित करने में लगी कंपनी अगर फिर नाकाम होती है तो फिर से यह एजेंसी उनकी मदद करेगी। ऐसे में वे फिर से ठीक से काम करने पर ध्यान नहीं दे सकते हैं और यह कुचक्र चलता रह सकता है।

बुनियादी समस्या यह है कि इस पूरी प्रक्रिया में निजी मुनाफा ही लक्ष्य होगा। भारी विदेशी मुद्रा भंडार होने और बैंकों द्वारा रिजर्व बैंक से तरलता लेने की वजह से पैसे की आपूर्ति में कोई समस्या नहीं होगी। यहां तक की गैर वित्तीय कंपनियां भी अब पैसा लगाने को तैयार दिख रही हैं। उनका एकमात्र लक्ष्य अधिक से अधिक मुनाफा कमाना है। बैलेंस शीट की दोहरी समस्या के मूल में यही अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति है। ऐसे में इस समस्या का पूरी तरह से समाधान करने के बजाय प्रस्तावित एजेंसी बैंड-ऐड का ही काम करेगी।

(लेखक इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली के डिप्टी एडीटर हैं।)

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