क्या सच में मनाएं किसान दिवस ?

एक तरफ अर्थव्यवस्था की मार और दूसरे तरफ मौसम की ठोक-बजायी, साधारण किसान खेती को लेकर दिन-ब-दिन खुद को कमजोर महसूस करने लगा है। मौसम की मार हो या बाजार की तेजी नरमी, किसान की ही आंखें हैं जो सबसे पहले नम होती हैं।

Deepak AcharyaDeepak Acharya   23 Dec 2018 8:45 AM GMT

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farmers day, kisan diwas, farmers in indiaचौतरफा से किसानों के लिए मुश्किल खड़ी कर रहा खेती-किसान ।(फोटो- मिथिलेश, गांव कनेक्शन)

23 दिसंबर को हिन्दुस्तान किसान दिवस मना रहा है, चलिए हम सभी के द्वारा किसानों को समर्पित एक दिन तो तय किया गया है वरना हमारी अर्थव्यवस्था में मात्र किसान ही ऐसा व्यक्ति है जो अपने बीज, खेती-बाड़ी के माल-सामान, खाद आदि फुटकर बाजार से खरीदता है और अपने उत्पादन को थोक बाजार में बेचता है और दोनो तरह के प्रक्रिया में माल सामान लाने और ले जाने के लिए भाड़े का भुगतान भी खुद करता है और जब कभी यह किसान फुटकर बाजार में चादर बिछाकर अपने उत्पादों को बेचने बैठता तो हम शहरी लोग 2-2 रुपयों के लिए खींचतान करने में चूकते भी नहीं। बाजारीकरण की प्रक्रिया इतनी पेचिदा हो चली है कि किसान खुद को असहाय सा पाता है।

एक तरफ अर्थव्यवस्था की मार और दूसरे तरफ मौसम की ठोक-बजायी, साधारण किसान खेती को लेकर दिन-ब-दिन खुद को कमजोर महसूस करने लगा है। मौसम की मार हो या बाजार की तेजी नरमी, किसान की ही आंखें हैं जो सबसे पहले नम होती हैं। किसान को पारंपरिक खेती में नुकसान होता दिखाई देता है या कम नफा दिखायी देता है तो वो गैर पारंपरिक तरीकों और गैर पारंपरिक फसलों की तरफ अपना ध्यानाकर्षित करता है। औषधीय पौधों की खेती के लिए सरकारी तंत्र और कई तरह एजेन्सियों की तरफ बेजा प्रचार- प्रसार होता है, कुछ किसान इस खेती को अपनाते भी हैं लेकिन परिणाम देखे जाएं तो अंत अधिकतर बेहद दुखदायी होता है।

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पिछ्ले दो दशकों में औषधीय पौधों की खेती के लिए केंद्र और तमाम राज्य सरकारों की तरफ से किसानों को काफी प्रोत्साहित किया गया ताकि वे इसे मुख्यधारा व्यवसाय की तरह अपनाएं। रोजगार केंद्रों और सरकारी प्रतिष्ठानों की तरफ से किसानों के आय स्रोतों की बेहतरी के उद्देश्य से अनेक योजनाओं को लागू भी किया गया। फिर ऐसा क्या हुआ जो देश के बहुतेरे किसानों को यह भाया नहीं? बड़े किसानों का बाजारीकरण का केंद्र बिंदु होना और योजनाबद्ध तरीके और बाजार की लय के हिसाब से खेती करना, उन्हें सफल बना गया लेकिन बाजार की स्पष्ठ जानकारी के अभाव में छोटा किसान हमेशा पिटता गया और अंत में उसके हाथों शून्य ही रहा।

सेंट्रल मेडिसिनल प्लांट बोर्ड ने बतौर प्रोत्साहन औषधीय पौधों की खेती के लिए सब्सिडी का प्रावधान रखा और इस तरह की योजनाओं का खूब प्रचार-प्रसार भी हुआ। स्टेट मेडिसिनल प्लांट बोर्ड ने अपने-अपने प्रांतों में भी किसानों तक इस तरह की योजनाओं की जानकारी प्रेषित करी लेकिन जिस तरह का प्रतिसाद मिलना चाहिए था, मिला नहीं।

आज दुनिया में औषधीय पौधों का बाजार करीब 63 बिलियन अमेरिकन डॉलर का है, यानि करीब 378000 करोड़ रुपए जो सन 2050 के आते-आते यह करीब पांच ट्रिलियन अमेरिकन डॉलर (300 लाख करोड़ रुपए) का हो जाएगा, साधारण शब्दों में कहा जाए तो इस बाजार की रफ्तार काफी तेज है लेकिन भारत वर्ष दुनिया के इस फलते फूलते बाजार में सिर्फ दो फीसदी की हिस्सेदारी रखता है, यानि इतनी भरपूर संपदा और स्रोतों के होने बावजूद हम कहीं ना कहीं चूक रहे हैं।

आज फार्मा कंपनियां करीब 400 औषधीय पौधों को अपने उत्पादों में इस्तमाल कर रही है लेकिन सरकार से प्राप्त सब्सिडी वाले पौधों की संख्या 60 से भी कम है, बाकी 340 पौधों की उपलब्धता कहाँ से हो रही? साधारण सी बात है, इसे जंगलों से प्राप्त किया जा रहा है यानि वन संपदा का बेजा दोहन हो रहा है। सब्सिडी दिए जाने वाले करीब 60 पौधों में से महज 20 पौधों को वृहत स्तर पर कुछ बड़े किसान बंधुओं ने अपनाया हुआ है। साफ अर्थ निकाला जा सकता है कि औषधीय खेती के नाम पर संभावनाओं की कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ दिशा और सटीक मार्गदर्शन की।

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अकेले हिन्दुस्तान में करीब 14 ऐसी हर्बल प्रोड्क्ट्स कंपनियां हैं जिनका व्यापार सालाना 50 करोड़ से ज्यादा है और करीब 36 ऐसी कंपनियां हैं जिनका व्यापार 5 से 50 करोड़ के बीच है और करीब 1500 ऐसी कंपनियां हैं जिनका सालाना व्यापार एक से पांच करोड़ के बीच होता है। करीब 8,000 छोटी मोटी कई कंपनियां है जिनका सालाना व्यापार एक करोड़ के अंदर है, तो फिर इन सारी कंपनियों को कच्चे माल की भरपायी कहां से होती है?

अधिकारिक तौर पर महज 20-30 औषधीय पौधों को ही विस्तार से उगाया जा रहा है। इस विषय पर गौर फरमाया जाए तो तय होता है कि औषधीय खेती के लिए बहुत बड़ा बाज़ार खुला पड़ा है लेकिन एक सुनियोजित और पारदर्शी व्यवस्था की कमी और फार्मा कंपनियों के साथ ताल-मेल में असमर्थता की वजह से हर्बल खेती को जिस कदर का प्रोत्साहन मिलना चाहिए, नहीं मिल पा रहा है और इस पूरी प्रक्रिया में छोटे किसान वंचित भी हैं।

यदि अपनी जानकारियों को एकत्र कर, स्वेच्छा से यदि कोई छोटा किसान औषधीय पौधों की खेती कर भी ले तो फसलोत्पादन को बेचना उसके लिए किसी सरदर्द से कम नहीं होता और जब सही दाम नहीं मिलता है तो किसान ठगा सा महसूस करता है। आज आवश्यकता है कि सरकार, फार्मा कंपनियां, एजेंसियां और गैर सरकारी संगठन आपस में मिलकर इस बाजार को समझें और छोटे और कम विकसित किसानों को एक ऐसा मंच प्रदान करें जहाँ वे अपने उत्पादन की तय बिक्री होने को लेकर पूर्व से ही संतुष्ट रहें।

यदि हमारे देश की फार्मा कंपनियां औषधीय पौधों के लेकर अपनी-अपनी सालाना जरूरतों को पहले से बताएं और सरकार व तमाम एजेन्सियां किसानों के साथ मिलकर खरीदी और मूल्य को लेकर एक अनुबंध करे तो किसान इस बात से हमेशा आश्वस्त रहेंगे कि जिस औषधीय पौधे की खेती वो करने जा रहा है, फसल पूरी होने बाद उसे बेचने में परेशानियां नहीं आएंगी। यदि ऐसा संभव हो पाता है तो मेरा दावा है कि हिन्दुस्तान का हर एक छोटा और बड़ा किसान इस व्यवसाय को हंसते खेलते अपनाएगा और इसका सीधा असर हमारी अर्थव्यवस्था पर देखने मिलेगा क्योंकि दुनिया के वर्तमान बाजार में हमारे देश की महज दो फीसदी हिस्सेदारी है जो ऐसा होने से बढ़कर कई गुना ज्यादा हो जाएगी और हमारे किसान भाइयों के लिए इस तरह की गैर पारंपरिक खेती से आय के नए जरिये मिलेंगे।

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वनों से वन संपदा का अत्यधिक दोहन कम होगा जो हमारे देश की जैव-विविधता के संरक्षण के लिए वरदान साबित होगा। हमारे किसान भाइयों और बहनों को समग्र रूप से विकसित कर, कृषि उत्पादों के सही दाम दिलाकर ही हम सही मायने में "किसान वर्ष" या "किसान दिवस" मना पाएंगे वर्ना आर्थिक बोझ और फसलों के नुकसान से खौफ खाए परिवार और विदर्भ, आंध्र और गुजरात जैसे प्रांतों में किसानो का जो हाल हुआ है वो सोचकर ही ऐसे किसी "किसान दिन" को मनाने का साहस नहीं जुट पाता है। उम्मीद है एक रौशनी आएगी...

(डॉ दीपक आचार्य एक वैज्ञानिक हैं और गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर भी)


  

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