पानी की रेल से नहीं निकलेगा सूखाग्रस्त इलाकों का हल

रवीश कुमाररवीश कुमार   9 May 2016 5:30 AM GMT

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दुनिया में पानी की रेल उन्नीसवीं सदी से चल रही है, भारत में बीसवीं सदी से चलती आ रही है, इक्कीसवीं सदी में भी चल रही है। भयंकर सूखा है और ऐसे में कोई एक बूंद पानी पहुंचा दे तो उसका शुक्रिया। जो भी ज़रूरी है किया जाना चाहिए लेकिन किसी काम को जब सारे काम का प्रतिनिधि बताया जाने लगे तो उस काम का हिसाब भी कर लेना चाहिए इसलिए कि पानी की रेल एक ऐसी तस्वीर रचती है जो लोगों की कल्पनाओं में नई है। आप माने या न माने पानी की रेल सूखाग्रस्त इलाक़ों का समाधान बिल्कुल नहीं करती लेकिन वहां किए जा रहे कार्यों का ब्रांड बन गई है।

महाराष्ट्र के कई ज़िलों में भयंकर सूखा है। किसी वजह से लातूर की चर्चा ज़्यादा हुई तो लातूर के लिए पानी की रेल चली। रेल पहुंची तो स्थानीय नेता अपना पोस्टर लेकर पहुंच गए। इसमें कुछ ग़लत नहीं है। चैनल वाले कैमरे लेकर पहुंच गए। इसमें कुछ ग़लत नहीं है लेकिन पानी की रेल को देख संवाददाताओं ने अपनी हैरतभरी आंखों को ऐसे बड़ा किया जैसे चांद से पानी आया हो। जबकि उसी लातूर शहर में ट्रैक्टर से खींचे जाने वाले टैंकर आज भी पच्चीस लाख लीटर से ज़्यादा पानी बांट रहे हैं। रेल भी इतना ही पानी लेकर आई। इसके बाद भी समस्या में मामूली सुधार आया है जबकि प्रचार ऐसे हो गया कि लोगों को रोज़ पानी मिलने लगा है। हम ट्रैक्टर वाले टैंकर को खलनायक और रेल वाले टैंकर को नायक की तरह देखने लगे हैं।

सूखे की स्थिति में कोई भी सरकार सीमित मात्रा में ही पानी उपलब्ध करवा सकती है लेकिन यह छवि भी ठीक है कि सबको पानी मिलने लगा है। पानी की रेल लातूर शहर की पांच लाख आबादी के लिए चली है। लातूर ज़िले के नौ सौ से अधिक गाँवों के लिए नहीं चली है जहां सत्रह से अठारह लाख की आबादी रहती है। लातूर शहर में ही पानी की रेल आने से सीमित राहत ही पहुंची है। स्थानीय लोग कहते हैं कि पहले भी कॉरपोरेशन के टैंकर आठ से दस दिन में आते थे। आज भी आठ से दस दिन के अंतर पर आ रहे हैं। ज़िला प्रशासन का दावा है कि पानी चार से पांच दिन के अंतर पर मिल रहा है। साफ है राहत तो पहुंची है लेकिन समस्या वैसी की वैसी है।

लातूर शहर को कितना पानी चाहिए? कोई कहता है रोज़ाना ढाई करोड़ लीटर तो कोई कहता है कि पांच करोड़ लीटर। ज़िला प्रशासन का मानना है कि हर दिन के हिसाब से एक करोड़ बीस लाख लीटर पानी ही है। हर रोज़ एक आदमी को बीस लीटर पानी दिया जाता है। चार लोगों का परिवार है तो अस्सी लीटर ही हुआ। जबकि सारे कार्यों के लिए एक परिवार को कम से कम पांच से छह सौ लीटर पानी चाहिए। निगम के टैंकर दस दिन के बाद आकर दो सौ लीटर से ज्यादा पानी नहीं देते, दे भी नहीं सकते। यह पानी भी सिर्फ पीने और खाना बनाने के लिए होता है। लातूर शहर में रेल चलने के बाद भी टैंकरों के दाम बढ़ते जा रहे हैं। इसका मतलब है कि समाधान कम प्रचार ही ज़्यादा हुआ।

ज़ाहिर है पानी की रेल से तकलीफ कम नहीं हुई है। इससे हुआ यह कि तकलीफ़ों की बात बंद हो गई और रेल की बात चलने लगी है। रेल का दिखना ही पारदर्शी होना है। पानी की रेल पूरे महाराष्ट्र के लिए सूखा राहत का ब्रांड एंबैसडर बन गई है। लातूर से ज़्यादा भयंकर सूखा बाकी ज़िलों में भी पड़ा है। क्या वहां पानी की रेल की ज़रूरत नहीं? नहीं तो बताइए बीड़, परभणी और उस्मानाबाद ने ऐसा कौन सा तरीका निकाला कि उन्हें पानी की रेल की ज़रूरत नहीं पड़ी।

राजस्थान में भी कई साल से एक पानी की रेल चलती है। वहां की परिस्थिति नहीं जानता लेकिन पानी की रेल समाधान नहीं है यह तो दिख रहा है। तभी तो कई साल से चल रही है। सूखा सिर्फ प्यास लेकर नहीं आया है, भूख और बेकारी भी लाया है। सरकार बताए कि रोज़गार देने के क्या प्रयास हुए हैं? कितने लोगों को काम मिला है?  शायद उन कामों का कोई विज़ुअल नहीं बनता है। आज की राजनीति काम में यक़ीन नहीं करती है, सिर्फ उस काम में यक़ीन करती है जो दिख सके। महाराष्ट्र सरकार ने क़र्ज़ माफी की जगह एक साल का पूरा ब्याज और अगले साल का आधा ब्याज कम करने का एलान किया है। तीन साल से सूखा है, कायदे से पूरा कर्ज़ माफ होना चाहिए। जब खेती बंद है, काम बंद है तो क़र्ज़ कहां से चुकाएगा? क्या वह दो साल बाद दोगुना कमा लेगा?

अब यही रेल उत्तर प्रदेश के झांसी पहुंची है। राज्य सरकार के दावे के अनुसार बिना बताए पहुंच गई। सरकार कहती है कि हमने सिर्फ टैंकर मांगे थे, हमारे पास पर्याप्त पानी है। तो राज्य सरकार यही बता दे कि केंद्र से टैंकर मांगने से पहले पानी रखने और उसके वितरण के क्या इंतज़ाम किए गए हैं? उसके पास पानी है तो लोग प्यासे क्यों हैं? पानी पहुंचाना ही बड़ा भारी काम नहीं है? उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सरकारें बताएं कि बुंदेलखंड के समाधान के लिए क्या काम किए गए? कहां सफ़ल रहे, कहां असफ़ल रहे।

इसके बाद भी केंद्र को टैंकर पहुंचाने से पहले झांसी ज़िला प्रशासन को सूचित करना चाहिए था। अगर यह आरोप सही है तो टीम इंडिया की भावना के ख़िलाफ़ है। केंद्र की रेल है, किसी पार्टी की नहीं है। आजकल की भावुकता की नौटंकी जोड़ दी जाए तो यह देश की रेल है! केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने कहा कि बुंदेलखंड के बीजेपी सांसदों ने पानी की क़िल्लत की बात उठाई थी। उमा जी बताएं कि सिर्फ यूपी वाले बुंदेलखंड के भाजपा सांसदों ने मांग की थी या मध्य प्रदेश वाले सांसदों ने भी। क्या लातूर में पानी की रेल वहां के सांसद की मांग पर गई थी? फिर महाराष्ट्र के बाकी सूखाग्रस्त ज़िलों के भाजपा सांसदों ने भी कुछ मांग रखी होगी? सूखा तो गुजरात और मध्य प्रदेश में भी है, वहां क्यों नहीं चली? मध्यप्रदेश के रतलाम से चलकर ट्रेन यूपी के झांसी आ जाती है। मध्यप्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में भी सूखा है, वहां क्यों नहीं पानी की रेल गई है?

केंद्रीय मंत्री उमाजी या रेलमंत्री सुरेश प्रभुजी बताएं कि सांसदों ने कब मांग की थी और टैंकर कब तैयार हुए? क्योंकि हमने लातूर वाली पानी की रेल के संबंध में देखा था कि टैंकरों की सफाई में कितना वक्त लग गया था। क्या रेलवे अन्य जगहों के लिए भी ऐसे टैंकरों की धुलाई-सफाई कर रही है? झांसी स्टेशन पर भेजे गए टैंकर ख़ाली थे। इस हिसाब से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के अनुसार ख़ाली टैंकर ही भेजे गए ! बीजेपी के नेता पता तो कर लेते कि ख़ाली टैंकर है, बिना जाने वे पानी की रेल कहने लगे। अब झांसी स्टेशन अपने पानी से टैंकरों को भर रहा है। केंद्र कहेगा कि हम बांटेंगे, राज्य कहेगा कि नहीं बांटने देंगे। फिर पानी को लेकर टीवी पर फ़र्ज़ी मैच होगा, सूखे के सारे सवाल पीछे धकेल दिए जाएंगे। सरकार को बताने का मौका नहीं मिलेगा कि लोगों को रोज़गार देने के लिए क्या किया जा रहा है।

अगर झांसी स्टेशन से टैंकर भरे जा सकते हैं तो क्यों नहीं प्रभुजी सारे सूखाग्रस्त इलाक़ों के स्टेशनों को आदेश दे देते हैं कि वहां से लोग टैंकर में पानी भर के ले जाएं, मुफ़्त में लेकिन यहां तो पानी की रेल पानी के लिए कम राजनीति के लिए चल रही है। रेल और हेलीकॉप्टर संकट के समय वीर रस वाले दृश्य की रचना करते हैं। सूखे और बाढ़ में इनकी मौजूदगी ऐसे बताई जाती है जैसे ‘अजनबी’ फ़िल्म के मशहूर गाने का सीन हो– ‘हम दोनों दो प्रेमी दुनिया छोड़ चले।’ आपने बाढ़ के समय देखा होगा कि हेलीकॉप्टर से गिरने वाला सामान सबको नहीं मिलता लेकिन राहत का सबसे रोमांटिक और प्रमाणिक दृश्य गढ़ के चला जाता है।

पानी की रेल अच्छी पहल है लेकिन अंतिम नहीं। अगर इसे सूखे की समस्या को विस्थापित करने के लिए चलाया गया तो ग़लत होगा। नई-नई दंतकथाओं के गढ़ने से समाधान नहीं होता। सरकार-समाज और ईमानदारी से आगे आए और स्थायी समाधान के प्रयास करे। अगर ऐसा है तो महाराष्ट्र के गाँवों में पानी के लिए मारामारी क्यों हैं। बच्चे क्यों कुएं में गिर कर मर रहे हैं? सूखे की समस्या का तमाशा मत बनाइए। पानी की रेल चलाइए लेकिन सिर्फ रेल ही चलती रहे ऐसा भी मत कीजिए।

(लेखक एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एक्जीक्यूटिव एडिटर हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

 

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