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पाकिस्तान और कांग्रेस के नेता बावले हो गए हैं

आज दुनिया में जो हालत पाकिस्तान की है वैसी ही साख भारत में कांग्रेस की है। अन्तर शायद इतना है कि कांग्रेस के पास पार्टी फंड की कमी नहीं है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान को तो दुखद अन्त की राह पर ढकेल दिया है या वह स्वयं चला गया है।
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पाकिस्तान के निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना स्वयं दिग्भ्रमित थे क्योंकि वह जब तक कांग्रेस पार्टी में थे, सेकुलर बातें करते थे और मुस्लिम लीग में जाते ही 1930 के दशक में द्विराष्ट्रवाद और पाकिस्तान का राग अलापने लगे।

जब मई 1947 में माउन्टबेटेन, जिन्ना और नेहरू ने पाकिस्तान का मसविदा स्वीकार किया तो किसी ने यह नहीं सोचा होगा कि एक दिन पाकिस्तान का प्रधानमंत्री एटम बम दागने और भारत के 110 करोड़ हिन्दुओं के साथ ही उपमहाद्वीप के 40 करोड़ मुसलमानों की जान लेने का ऐलान करेगा। प्रधानमंत्री इमरान खां कहते हैं दोनों देश परमाणु शक्ति वाले हैं और दोनों मिट जाएंगे। यह जानते हुए भी एटम बम दागने की धमकी देते हैं। भारत की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी भी कम बावलापन नहीं दिखा रही है दबी जुबान में पाकिस्तान का पक्ष लेकर।

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आज से 134 साल पहले जब 1885 में ए. ओ. ह्यूम और ए.सी. बनर्जी ने कांग्रेस की स्थापना की थी तो उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा कि यह पार्टी देश का विभाजन करेगी और इसके नेता शत्रुदेश जाकर अपने प्रधानमंत्री मोदी से छुटकारा दिलाने में मदद मांगेगे। सोचकर देखिए नवजोत सिंह सिद्धू, गुलाम नबी आजाद, शशि थरूर, दिग्विजय सिंह, सांसद चौधरी और स्वयं राहुल गांधी अपने देश और सरकार की कैसी तस्वीर विदेशों को दे रहे हैं, वह भी एक अस्थायी प्रावधान को हटाने के कारण।

सच यह है कि इतने साल तक सोचने का काम नेहरू परिवार करता था, बाकी सब भी काम करते थे लेकिन शायद अब सोचने की क्षमता नहीं रही है, प्रजातांत्रिक परम्परा विकसित नहीं हुई अन्यथा धारा 370 पर परस्पर विरोधी स्वर न सुनाई देते और सामूहिक सोच भी पार्टी में विकसित नहीं हुई। यही हाल पाकिस्तान का है जहां सोचने का काम सेना का रहा है और नेता केवल भोंपू बजाने का काम करते रहे।

पाकिस्तान का जन्म ही लड़ते झगड़ते हुआ था और उसी का नतीजा है लड़ाकू आदत और आतंकी खेप। भारत ने अहिंसा पर आधारित अपना सेकुलरवादी प्रजातांत्रिक संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू कर दिया और संसदीय लोकतंत्र की मजबूती से राह पकड़ी। भारत में सेना ने सरकारी काम काज में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। भारत में प्रधानमंत्री भी सुरक्षित रहे और प्रजातंत्र भी।

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इसके विपरीत पाकिस्तान में पहले ही प्रधानमंत्री लियाकत अली खान का 1951 में कत्ल कर दिया गया। हिंसा ने पाकिस्तान को प्रजातंत्र के रास्ते पर जाने से रोक दिया। जिन दो लोगों ने 1970 में पाकिस्तान में प्रजातंत्र की नींव डालनी चाही उनमें पश्चिमी पाकिस्तान के जुल्फिकार अली भुट्टो और पूर्वी पाकिस्तान के शेख मुजीबुर रहमान थे। उन दोनों का दुखद अन्त हुआ। वहां प्रजातंत्र अंकुरित ही नहीं हुआ तो इमरान साहब क्या जानें प्रजातंत्र कैसा होता है।

विभाजन के पहले भारत और पाकिस्तान के लोग एक ही धरती पर पले बढ़े थे परन्तु उनकी मानसिकता में मौलिक अन्तर आ गया था इसलिए 1977 तक उनका मिलना-जुलना भी नहीं था जब तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पीपुल टु पीपुल सम्पर्क का सिलसिला आरम्भ कराया। उन्होंने लाहौर तक बस ले जाकर प्रधानमंत्री के रूप में आत्मीयता बढ़ानी चाही, लेकिन बदले में मिला कारगिल युद्ध। अब तो व्यापार सहित सारे सम्बन्ध इमरान खां ने तोड़ दिए हैं देखिए अन्त कहां होता है।

आज दुनिया में जो हालत पाकिस्तान की है वैसी ही साख भारत में कांग्रेस की है। अन्तर शायद इतना है कि कांग्रेस के पास पार्टी फंड की कमी नहीं है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान को तो दुखद अन्त की राह पर ढकेल दिया है या वह स्वयं चला गया है। आशा की जानी चाहिए कि उसे कोई तो सद्बुद्धि देगा लेकिन दुनिया में कोई तो उसका शुभचिन्तक बचा नहीं है। मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत की बात कही थी लेकिन कोई यह नहीं चाहेगा कि देश की सबसे पुरानी पार्टी जिसने देश को दिग्गज नेता दिए हो वह नेतृत्वविहीन होकर तिरोहित हो जाए।   

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