पंचायतें हमारे समाज की सशक्त इकाई हो सकती थीं  

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पंचायतें हमारे समाज की सशक्त इकाई हो सकती थीं  पंचायती राज दिवस।

केंद्रीय ग्रामीण विकास और पंचायतीराज मंत्री देश के सफल प्रधानों और पंचायतों को सम्मानित करेंगे, यह सराहनीय काम है। लेकिन सफलता का पैमाना क्या रहेगा और पंच प्रधानों के लिए यह सम्मान कितनी प्रेरणा दे सकेगा, यह भविष्य बताएगा। पंचायती राज व्यवस्था को सम्मान, प्रशंसा के साथ ही उसके गठन और संचालन में मार्गदर्शन की आवश्यकता है। पिछले 65 साल में ये व्यवस्था प्रासंगिकता खोती नजर आ रही है।

आजकल गाँवों में प्रधान बनना जैसे लोगों के जीवन का अरमान हो गया है। प्रधानी पाने का उद्देश्य यह नहीं कि अपने गाँव, अपनी जाति या अपने खानदान का भला करेंगे बल्कि अपने और अपने बच्चों के लिए कई पीढ़ी का इन्तजाम कर लेंगे। अब प्रधानी के चुनाव में कई लाख का खर्चा आता है और उसे पूरा करने के लिए आवास पाने वाले से 20 हजार और जमीन का पट्टा पाने वाले से एक एकड़ का एक लाख मिल जाता है। अनेक बार साल भर में कार और अपना पक्का मकान तो बन ही जाता है। राजनैतिक दलों से जुड़ाव का लाभ अलग।

महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए सरकारों ने सोचा था कुछ पद उनके लिए आरक्षित कर दिए जाएं। आरक्षित हुए भी लेकिन काम वे करते हैं जिन्हें प्रधानपति या प्रधानपुत्र कहा जाता है। क्षेत्र विकास समितियों में भी वे उपस्थित रहते हैं। कुछ समर्पित भाव से काम करने वाली महिला प्रधानों को छोड़ दें तो इस माध्यम से महिलाओं का सशक्तिकरण नहीं हो रहा है।

अनुसूचित जातियों के लिए पदों का आरक्षण एक सीमा तक प्रभावी रहा है लेकिन वे प्रधान अपने दरवाजे पर डॉक्टर अम्बेडकर की मूर्ति लगाने के अलावा अपने समाज का कुछ भला नहीं कर पाए। साथ ही प्रत्येक गांव में जातीय आधार पर समाज का बंटवारा हो चुका है और जातीय संघर्ष होते रहते हैं। पंचायती राज व्यवस्था के बाद गाँवों के मसले गाँव में ही हल हो सकते थे और अदालतों पर से बोझा घट सकता था।

पुराने समय में देश में अनुसूचित जातियों में ‘‘टाट बैठता‘‘ था जहां आपसी मसले हल हो जाते थे और सवर्णों में कुछ बुजुर्ग मिल बैठकर बिना टाट के ही मसला हल कर लेते थे। अब एक दूसरे की कोई सुनता नहीं और बात बात में अदालत दौड़ता है। ग्राम पंचायतों के साथ ही न्याय पंचायतों की कल्पना की गई थी लेकिन वह भी सफल नहीं हुई। छोटी-छोटी बातों के लिए पुलिस थाना चले जाते हैं और पुलिस किस तरह मसले को निपटाती है सभी जानते हैं। पंचायतें अपनी भूमिका निभा सकती हैं यदि उनकी चुनाव प्रणाली में वांछित सुधार हो सकें।

ग्राम प्रधानों को शायद पता ही नहीं कि उनकी अहमियत क्या है और उनसे समाज को अपेक्षा क्या है। उनकी पंचायत में स्कूल कब खुलता है कब बन्द होता है और पढ़ाने कोई आता भी है या नहीं इससे उनका कोई मतलब नहीं लेकिन स्कूल भवन बनना हो, मिड-डे मील की व्यवस्था हो, राहत का बंटवारा हो, आवासों का आवन्टन और बीपीएल की लिस्ट बनानी हो तो इसमें सहयोग के लिए तत्पर रहते हैं। जमीन के पट्टों का आवन्टन और बीपीएल की लिस्ट बनानी हो इसके लिए तत्पर रहते हैं।

गाँवों में पंच और प्रधानों की कोई सुनता नहीं क्योंकि उनमें निर्णय करने की क्षमता नहीं और वे निष्पक्ष भाव से निर्णय भी नहीं कर पाते। प्रधानों के लिए शैक्षिक योग्यता और सामाजिक मान्यता जरूरी है। पंचायत के गठन के लिए वर्तमान प्रधान के साथ ही पिछले तीन प्रधानों को नामित किया जाए भले ही इससे निर्णय में देरी होगी लेकिन सरकार के सामने सच्चाई आ जाएगी। अभी प्रधान नैतिक ताकत रखते नहीं और वैधानिक ताकत का प्रयोग नहीं करते क्योंकि उसी गाँव में रहना है।

आखिर उपाय क्या है? पंचायती राज व्यवस्था हमारे देश की बहुत पुरानी और जांची परखी व्यवस्था है जिसके अनुसार हजारों साल से समाज चलता आया है। उस व्यवस्था में पैसे का लालच नहीं था केवल सम्मान था। आज भी यदि योग्य प्रधान हो और उसे मौका दिया जाए तो वह प्राइमरी अध्यापकों, शिक्षामित्रों, कृषिमित्रों, लेखपालों, आशा बहुओं, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों आदि के काम पर नजर रख सकते हैं और ग्राम विकास में अहम भूमिका निभा सकते हैं। चुनाव की वर्तमान प्रणाली काम नहीं करेगी और परस्पर विद्वेष को बढ़ाती रहेगी। पंचायतें वहीं गठित हों जहां सर्वसम्मत चुनाव हो सके या केवल दो उम्मीदवार हों। दोष पंचायती राज व्यवस्था में नहीं प्रधानों और पंचों की क्षमता योग्यता में है।

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