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राजनैतिक पार्टियों को सैद्धान्तिक धरातल की जरूरत है

akhilesh yadav

डाॅ. एसबी मिश्रा

अखिलेश यादव और उनके पिता मुलायम सिंह यादव के बीच कोई वैचारिक मतभेद नहीं है बल्कि कुछ अहंकार और कुछ निजी स्वार्थ का कारण है। स्वार्थ कुछ अपने और कुछ संगी-साथियों के। अखिलेश यादव का स्वार्थ है कि उन्हें राजनीति में लम्बी पारी खेलनी है और अपना राजनैतिक करियर बनाना है। दूसरी तरफ मुलायम सिंह अपने पुराने साथियों अमर सिंह और शिवपाल यादव का एहसान चुकाना चाहते हैं। कुछ बाहुबलियों की बात छोड़ दें तो पिता पुत्र में कोेई सिद्धान्तों की लड़ाई नहीं है।

सिद्धान्तों की लड़ाई थी जवाहर लाल नेहरू और डाॅक्टर अम्बेडकर में जिन्होंने बिना संकोच के मंत्रिपद छोड़ दिया था। नेहरू और श्यामा प्रसाद मुखर्जी में भी मतभेद थे और शालीनता से पद छोड़ दिया मुखर्जी ने। पटेल, डाॅक्टर राजेन्द्र प्रसाद और पुरुषोत्तम दास टंडन के विचार दक्षिणपंथी कहे जाते थे और इन लोगों ने कभी नेहरू के वामपंथी सोच के साथ समझौता नहीं किया लेकिन देशहित में पार्टी भी नहीं तोड़ी। देश हित में अपने अहंकार को दबाया।

आजकल जो लोग कहते हैं पुत्र को पिता के विपरीत नहीं जाना चाहिए उन्हें नहीं पता आचार्य जेबी कृपलानी प्रजासोशलिस्ट पार्टी में थे और उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी कांग्रेस में और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं। विजय राजे सिंधिया भारतीय जनता पार्टी में थीं और उनके बेटे माधवराव सिंधिया कांग्रेस के वरिष्ठ नेता थे। निर्मल चन्द चटर्जी हिन्दू महासभा के वरिष्ठ नेता थे और उनके बेटे सोमनाथ चटर्जी कम्युनिस्ट पार्टी में रहे और बाद में भारतीय संसद के स्पीकर बने। इसलिए आश्चर्य की बात नहीं कि मुलायम सिंह और उनके बेटे अखिलेश यादव अलग-अलग दल बनाएं और राजनीति कर, उनकी मंजिल और मार्ग अलग होने चाहिए।

देश में पुराने समय में राजनीति दो खेमों में बंटी थी- वामपंथी और दक्षिण पंथी। मध्यम मार्ग अपनाने वालों में लालबहादुर शास्त्री का नाम लिया जा सकता है। वैसे वाम और दक्षिण पंथियों ने साथ-साथ काम किया है, मोरारजी देसाई दक्षिणपंथी कहे जाते थे और चन्द्रशेखर वामपंथी। एक ने सरकार संभाला तो दूसरे ने पार्टी। दुनिया की राजनीति पर ध्यान दें तो वहां भी कंजऱवेटिव पार्टी दक्षिण पंथी कही जा सकती है और लेबर पार्टी को वामपंथी कह सकते हैं। अमेरिका में डिमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टियां भी लगभग इसी आधार पर बटी हैं। वामपंथ का आधार समाजवाद तो दक्षिणपंथ का पूंजीवाद हुआ करता था।

आजकल हमारे देश की पार्टियों के विभाजन का आधार आर्थिक नहीं है बल्कि जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्र, परिवार और व्यक्ति है। लेकिन इनमें से कोई भी आधार टिकने वाला नहीं है। सबसे बड़ा आधार है निजी स्वार्थ जिसके आगे नाते, रिश्ते और जाति बिरादरी सब गौड़ हो जाते हैं। जब तक राजनीति को सैद्धान्तिक धरातल नहीं मिलेगा तब तक राजनैतिक बिखराव, पार्टियों का बनना और टूटना चलता रहेगा। हर अगले चुनाव में राजनैतिक दलों की संख्या बढ़ जाती है। देखना है इस बार चुनाव आयोग के निर्देशों के बाद क्या प्रभाव पड़ता है।

sbmisra@gaonconnection.com

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