माया को ‘माया’ समझने की भूल न करें विरोधी

Dr SB MisraDr SB Misra   20 Oct 2016 11:29 AM GMT

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माया को ‘माया’ समझने की भूल न करें विरोधीबसपा प्रमुख मायावती 

उत्तर प्रदेश के चुनावों के लिए सभी दलों में गहमागहमी मची है। बहुजन समाज पार्टी अपने तरीके से बिना हो हल्ला के तैयारी कर रही है और अपनी रैलियों में वास्तविक शक्ति का प्रदर्शन दिखा रही है। जब समाजवादी पार्टी को हराने के लिए 1997 में छह महीने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश का सिंहासन मायावती को सौंपा था तो वे सोच रहे थे कि अनुसूचित वोट अपनी ओर आकर्षित कर लेंगे और इसी लालच में 2002 में फिर से भाजपा ने बसपा की सरकार बनवाई। इस प्रक्रिया में 2007 में जब पूर्ण बहुमत लेकर मायावती ने सरकार बनाई तो चुनावों की भविष्यवाणी करने वालों की आंखें खुली की खुली रह गईं। भाजपा चली थी चौबे से छब्बे बनने लेकिन दुबे ही रह गई थी। तब मायावती ने भाजपा के ब्राह्मण वोट अपनी ओर घसीट लिए थे, देखना होगा तीसरी बार वही भूल तो नहीं करते हैं भाजपाई।

उस बार मायावती की जीत का कारण कुछ लोग मुलायम सिंह सरकार की विफलता मानते हैं, तो कुछ कांग्रेस का पुराना फॉर्मूला यानी ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम का गठजोड़ और कुछ भाजपा का समर्थन। सम्भव है इन तीनों ने काम किया हो। वास्तविक कारण रहा था मायावती की कथनी और करनी में भेद न होना। वह बहुजन की बात करें या सर्वजन की लोग भरोसा करते हैं। लोगों ने देखा राजा भैया को सहयोगी भाजपा की चिन्ता किए बगैर जेल में डाल दिया था। लोगों ने न तो फिजूलखर्ची की चिन्ता की और न ताज कॉरीडार पर चल रहे मुकदमों की। लोगों ने जान माल की हिफ़ाज़त को प्राथमिकता दी और खैरात की परवाह नहीं की, विकास को भी प्राथमिकता नहीं दिया। मायावती का एक वाक्य कि अपराधियों की जगह जेल में है, काफी कारगर सिद्ध हुआ था।

मायावती की जीत का कारण जातियों का गठजोड़ नहीं था क्योंकि उस हालत में कांग्रेस को सरकार से बेदखल नहीं होना पड़ता। कांग्रेस से सवर्णों का मोह भंग हुआ था शाह बानो प्रकरण के बाद और मुसलमानों का मोह भंग हुआ अयोध्या मन्दिर का ताला खुलवाने, मन्दिर का शिलान्यास और अयोध्या से चुनाव प्रचार आरम्भ करने के बाद। कथनी और करनी में भेद को भारत की जनता पकड़ लेती है। मायावती ने निश्चित रूप से जानमाल की सुरक्षा की दिशा में काम शुरू किया था।

भारतीय जनता पार्टी की कथनी और करनी में पिछली बार बड़ा गैप था और अपना एजेंडा छोड़ने का बहाना गठबंधन की मजबूरी को बताया था यानी एजेंडा छोड़ दिया गठबंधन नहीं छोड़ा। जो समर्पित कार्यकर्ता पचास साल से जूझ रहे थे उन्हें निराशा हुई और वे उस पार्टी में चले गए जो कहती थी ‘तिलक तराजू और तलवार।’ आप उनकी निराशा की कल्पना कर सकते हैं जैसे कोई आत्महत्या में निराश होता है। वे लोग अब वहां से भाग रहे हैं।

भाजपा ने कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया जिन्होंने थोड़े ही दिन पहले कहा था, ‘भारतीय जनता पार्टी को नेस्त नामूद कर दूंगा।’ भला निष्ठावान कार्यकर्ता उन पर कैसे विश्वास कर सकता था। पार्टी हार गई। जब आडवाणी जै श्रीराम कहते थे तो लोगों को सुनाई पड़ा ‘जिन्ना सेकुलर थे।’ क्या कुर्सी के लिए विचारधारा बेची जा सकती है।

जनता ने मुलायम सिंह की भी कथनी और करनी में गैप पाया। नेता जी जीवनभर कांग्रेस के वंशवाद और परिवारवाद की आलोचना करते रहे लेकिन समय आने पर स्वयं उसी का शिकार हो गए। जनता को नेता जी और कल्याण सिंह का साथ गंवारा नहीं हुआ था। कानून व्यवस्था ने सबसे अधिक नुकसान किया था और इस बार तो जनता के जान माल की सुरक्षा के साथ परिवार की कलह भी नुकसान पहुंचाएगी।

इस बार भाजपा में नरेन्द्र मोदी की बातों पर लोगों को भरोसा है लेकिन उत्तर प्रदेश में कोई विश्वसनीय नेता न होने के कारण कठिनाई आना निश्चित है। वैसे अभी काफी समय बाकी है, अनेक समीकरण बनेंगे और बिगड़ेंगे। हम प्रतीक्षा करें।

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