लगभग हर साल चुनाव होते रहते हैं और हर साल राजनेता आम गरीबों, किसानों और मजदूरों को बहकाते रहते हैं, क्योंकि ऐसे-ऐसे वादे करते हैं जिन्हें आर्थिक रूप से पूरा करना बहुत कठिन होता है। जब 1952 में पहला आम चुनाव हुआ, तो लोकसभा और विधानसभा का एक साथ चुनाव हुआ था, अनपढ़ जनता ने पहली बार वोट डालने का अनुभव प्राप्त किया, इसलिए कई बार गलतियां भी हुई थी, लेकिन वह चुनाव कम खर्चीला था देश के ऊपर बोझ अधिक नहीं पड़ा था। तब सीधे-साधे लोग और सीधे-साधे राजनेता बल्कि देश के लिए समर्पित नेता चुनाव मैदान में थे जिन्होंने आजादी के लिए संघर्ष करते हुए यह अवसर 1952 में प्राप्त किया था। कोई लंबे चौड़े वादे नहीं, केवल यही था ‘’ अबकी वाटय देव किसानों मानो पल्ले पारै है’’ ।
जो 1957 का दूसरा आम चुनाव हुआ उसमें कई मुद्दे काफी गंभीर थे और कई इस ढंग से उठाए गए थे कि आगे क्या होने वाला है? इसका आम आदमी को कोई अंदाजा नहीं हो पाया। नेहरू जी का रुझान रूस और चीन की तरफ जगजाहिर था और स्वाभाविक रूप से तब तक पाकिस्तान ने मौका पाकर अमेरिका की तरफ हाथ बढ़ाया और अमेरिका ने न चाहते हुए भी उसे स्वीकार किया। ऐसे में नेहरू और चीन वालों के बीच का घनिष्ठ रिश्ता भारत के लोगों ने देखा और सड़कों पर हिंदी चीनी भाई-भाई के नारे भी सुने, लेकिन चीन कौन सी खिचड़ी पका रहा था शायद नेहरू जी को नहीं पता था। यहीं पर नेहरू जी की डिप्लोमेसी फेल हुई और सेना पर न चाहते हुए भी उन्होंने खर्च बढ़ाया और जनरल करियप्पा ने कई बार कहा भी था कि भारत-चीन सीमा पर ज़रूरत पड़ने पर रसद पहुँचानी कठिन होगी, क्योंकि सरहद पर सड़कें नहीं है, कहते तो यहाँ तक हैं कि नेहरू जी ने कहा था कि करिअप्पा पागल हो गया है। कृष्णा मेनन उस जमाने में देश के रक्षा मंत्री थे और वह शुद्ध रूप से साम्यवादी थे, तो कहा यहाँ तक जाता है कि ऑर्डिनेंस फैक्ट्री में कॉफी पर कोलेटर बनाए जाते थे, शायद इसलिए लोग कहते होंगे, क्योंकि कृष्णा मेनन को कॉफ़ी का बहुत शौक था। करते-करते 5 वर्ष बीत गए और 1962 का चुनाव आया मगर उसके पहले चीन ने भारत पर हमला बोल दिया था और हमारी सेनाएं बिना तैयारी के युद्ध के मैदान में शर्मनाक पराजय की तरफ बढ़ रही थी।
अफसोस इस बात का है कि भारत के लोगों को आज तक यह पता नहीं कि हम यह युद्ध हारे क्यों थे? कुछ लोगों का कहना है कि नेहरू जी ने वायु सेवा का उपयोग रोका हुआ था कुछ का कहना था कि सिपाहियों के पास जाड़े के कपड़े नहीं थे, क्योंकि युद्ध अक्टूबर के महीने में आरंभ हुआ था और उसके बाद जाड़ा आ या था। 62 का चुनाव भारत-चीन के विश्वासघात और कशमकश के बीच में बीता, गाँव का आम आदमी तो अधिक नहीं जानता था, लेकिन शहर के लोग तो समझते ही थे और उन्होंने समझा भी लेकिन उस समय विपक्ष इतना कमजोर था कि वह मुखर होकर कुछ बोल भी नहीं पाता था, कुछ थोड़े से अटल जी जैसे लोग बोलते थे, बाकी साम्यवादियों में ए .के. गोपालन तथा बी. टी. रणदिवे और तमाम वामपंथी यह मानने को तैयार नहीं थे कि गलती चीन की है। नतीजा यह हुआ कि कम्युनिस्ट पार्टी दो भागों में बट गई, एक धड़ा ऐसे दंगों के नेतृत्व में और कांग्रेस के साथ मिलकर काम करता रहा, तो दूसरा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट के नाम से जो खुलेआम चीन का पक्षधर रहा।
साल 1962 में चीन के हाथों शर्मनाक पराजय के बाद चौथा चुनाव 1967 में होना था,लेकिन इससे पहले ही 1964 में नेहरू जी का देहांत हो गया और उन्हें पराजय का मुंह नहीं देखना पड़ा। 67 में आम जनता बहुत त्रस्त हो चुकी थी न केवल शर्मनाक पराजय के कारण बल्कि दैवीय आपदा के कारण, जब देश के बड़े भाग में अकाल और दुर्भिक्ष पड़ा था, खाने के लाले पड़ रहे थे और देश-विदेश से अनाज मांगा जा रहा था। नेहरू जी के बाद शास्त्री जी ने देश की बागडोर संभाली, वह किसानों का दर्द समझते थे, आजादी के बाद तब तक किसानों की दशा पर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया था और देश की बढ़ती हुई आबादी साथ में गिरती हुई पैदावार और ऊपर से अकाल जिसके कारण देश में त्राहि-त्राहि मची थी, लेकिन शास्त्री जी ने बड़ी हिम्मत के साथ ‘’जय जवान, जय किसान’’ का नारा दिया और किसानों का हौसला बढ़ाया। इस समय प्रयास किया गया कि वर्षा भले नहीं हो रही है लेकिन भूमि के नीचे जल का बहुत बड़ा भंडार मौजूद है और तब कुँए खोद कर रहट लगाकर और यहां तक कि पंप के द्वारा पानी निकालने का सिलसिला भी शुरू हुआ, सिंचाई के साधन बनाए गए और दुर्भाग्य वस शास्त्री जी की दर्दनाक परिस्थितियों में मृत्यु विदेशी धरती पर रूस में हुई, उसके बाद इंदिरा गांधी ने देश की बागडोर संभाली ।
साल 1987 में रुपए का अवमूल्यन हुआ और देश की साख गिर गयी, अमेरिका से पी एल 480 के अंतर्गत वह गेहूँ स्वीकारा गया जो अमेरिका कहते हैं अटलांटिक सागर में फेंकने वाला था, कल्पना की जा सकती है कि देश की क्या हालत थी और यह सब इसीलिए हुआ था कि गांधीवादी रास्ता छोड़कर और किसानों को नजरअंदाज करके, नेहरूवियन अर्थव्यवस्था से देश चल रहा था और सारी व्यवस्थाएं, सारी सरकारी कंपनियां घाटे में चल रही थी, मगर उस समय की सरकार नेहरूवियन अर्थव्यवस्था को छोड़ने को तैयार नहीं थी, ऐसी स्थिति में 1967 का चुनाव हुआ था। लेकिन अफसोस की बात कि तमाम पार्टियाँ अलग-अलग झंडा बैनर लेकर मैदान में उतरी फिर भी कोई एक सशक्त पार्टी नहीं बन पाई, कई प्रांतों में संयुक्त विधायक दल के नाम से सरकारें बनीं परंतु केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनी रही। संयोग की बात है कि बांग्लादेश में विद्रोह हुआ, शेख मुजीबुर्रहमान ने भारत से मदद मांगी और भारत में हजारों-हजार शरणार्थी आते गए और उस चरमराती व्यवस्था पर बोझ बनते गए। तब इंदिरा गांधी ने नारा दिया था ‘’गरीबी हटाओ’’ और इस नारा के साथ जनता में फिर से कुछ नया उत्साह आया था और जब पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए, शेख मुजीबुर्रहमान विजयी हुए, बांग्लादेश का जन्म हुआ और इंदिरा जी भारी मतों से विजई हुई, लेकिन देश की आर्थिक दशा तो रातो-रात सुधरने वाली नहीं थी और सुधरी भी नहीं। हालात बिगड़ते चले गए और इंदिरा गांधी की झुझलाहट भी बढ़ती चली गई नतीजा यह हुआ कि तमाम तरह की आन्दोलनी आवाजें उठीं और अंततः इंदिरा जी ने जून 1975 में आपातकाल की घोषणा कर दी। अचानक उस नए वातावरण में देश की गरीब जनता को एडजस्ट करने में कठिनाई तो जरूर हुई, लेकिन शुरुआती तीन-चार महीने काफी सुधरते हुए नज़र आए।
रेल गाड़ियां समय पर चलने लगी, दफ्तर समय पर खुलने लगे और यह लगा कि इंदिरा जी ने सही कदम उठाया है, परंतु ऐसा था नहीं, थोड़े ही समय के बाद पकड़-पकड़ कर जब बसों से उतार-उतार कर लोगों की नसबंदी होने लगी, तो देश के लोग बहुत परेशान हो गए। अन्ततोगत्वा छोटी-छोटी पार्टियाँ मिलकर जो 67 में उछल कूद करके रह गई थी, चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया। ऐसा लगा कि इस बार भी ये रह जाएँगी, क्योंकि तब साझा सरकारें बनी थी, नेता कोई नहीं था लेकिन इस बार विरोधी दलों को थोड़ी सद्बुद्धि आई और उन्होंने जयप्रकाश जी से निवेदन किया कि वह नेतृत्व स्वीकार करें, उन्होंने पहली शर्त लगाई कि सब लोग अपने-अपने झंडे और बैनर किनारे रखकर एक पार्टी बनाएं तब वह नेतृत्व देने को तैयार होंगे। फिर एक पार्टी बनी ‘’जनता पार्टी’’ और 1977 के आम चुनाव हुए जिसमें भारी भरकम बहुमत के साथ जनता पार्टी की विजय हुई और इंदिरा गांधी की पराजय। कठिनाई तब पैदा होने लगी जब बड़े नेताओं की महत्वाकांक्षा टकराने लगी और अंततः जयप्रकाश जी का स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा, डायलिसिस पर बार-बार जाना पड़ता था। चौधरी चरण सिंह की जीवन भर की महत्वाकांक्षा थी, प्रधानमंत्री बनने की और कांग्रेस ने उनकी इस इस कमजोरी को पहचाना और उन्हें बाहर से समर्थन देकर प्रधानमंत्री बना दिया। अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि 6 महीने वह प्रधानमंत्री रहे, लेकिन एक दिन भी सदन में ना गए और ना सदन संचालित करने की नौबत आई, समय बीत गया ।
अब तक आम आदमी जनता पार्टी के शासन से त्रस्त हो चुका था और 1980 के आम चुनाव में फिर से सत्ता कोंग्रेस पार्टी को सौंप दी। अब तक सरकारी व्यवस्था में किसानों के प्रति थोड़ा रुझान बढ़ा था, विदेश से मैक्सिकन गेहूँ मंगा कर बौनी प्रजाति के गेहूँ बोए जाने से देश की पैदावार बढ़ने लगी और कम से कम पेट भरने की समस्या तो नहीं रही। हर चुनाव के समय और परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग मुद्दे रहे हैं लेकिन भारतीय राजनीति में छोटी-छोटी पार्टियाँ उछल कूद तो करती रहीं लेकिन निर्णायक भूमिका में नहीं रहीं, नतीजा यह हुआ कि नारे जो लगते वह अक्सर नकारात्मक हुआ करते थे। 70 के दशक में ‘’इंदिरा हटाओ देश बचाओ’’ का नारा लगा और आज की तारीख में ‘’मोदी हटाओ देश बचाओ’’ का नारा लग रहा है। लेकिन इंदिरा हटाओ, मोदी हटाओ, पर किसको लाओ? इसका जवाब विपक्षियों के पास कभी नहीं रहा क्योंकि वह पार्टियाँ उस व्यवस्था में एक नेता पर कभी सहमति नहीं बना पाई, इसलिए स्वस्थ प्रजातंत्र विकसित नहीं हो पाया।
1952 के चुनाव में ही इसकी पहल होनी चाहिए थी, लेकिन पार्टियाँ व्यक्तियों के इर्द-गिर्द बंटी रहीं सिद्धांतों के आधार पर बात नहीं बनी, नतीजा यह हुआ कि कोई भी स्थाई या सैद्धांतिक नारा नहीं बनाया जा सका। और जब विकल्प आया जयप्रकाश जी के रूप में तो सबने मिलकर नेतृत्व स्वीकार करने के लिए उनसे निवेदन किया। चुनाव लड़ने के लिए आग्रह किया होता तो शायद वे मान जाते और उन्हें प्रधानमंत्री बनाते तो मोरारजी देसाई, बाबू जगजीवन राम और चौधरी चरण सिंह के बीच यह खींचतान नहीं होती। अब कुछ ही वर्षों के बाद हो सकता है कि हताश होकर अंततः दो या तीन पार्टी का सिस्टम हमारे देश में भी बन पाए जैसा विदेश में है और राजनीतिक लड़ाई सिद्धांतों के आधार पर हो, ताकि जनता को पता रहे कि किस पार्टी के आने पर क्या सिद्धांत होंगे, देश किस दिशा में जाएगा, अभी इतने सारे लोग मिलकर जीत भी जाएं तो देश अंधकार में जाएगा जो और भी दुर्भाग्यपूर्ण होगा क्योंकि आज भी वही सवाल है इतने सारे नेता हैं प्रधानमंत्री का उम्मीदवार कौन है? नेतृत्व कौन करेगा और फिर उसका सिद्धांत क्या होगा?