रमेश ठाकुर
रेल बजट का आम बजट में विलय कर दिया जाना रेलवे को बेसहारा करने जैसा कदम है। रेलवे की दशा को दुरुस्त करने के लिए अलग बजट और सही देखरेख की बहुत जरूरत है। सरकार देश में बुलेट ट्रेन चलाने की बात कर रही है। वह सपना कब पूरा होगा, यह सवाल भविष्य के गर्त में है। लेकिन मौजूदा रेल नेटवर्क की अव्यवस्था के चलते पूरा महकमा हांफ रहा है। मगर उस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा। उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात जिले के पुखरायां इलाके में हुई रेल घटना इसी बात का परिचायक है कि रेलतंत्र पूरी तरह से बेगाना हो गया है। इंदौर-पटना एक्सप्रेस रेल हादसे में अब तक 100 से ज्यादा लोगों के मरने और 100 से ज्यादा के घायल होने की खबरें आ चुकी हैं। आंकड़ा और भी बढ़ सकता है, जबकि 150 से ज्यादा लोग घायल भी हुए हैं। यह घटना कानपुर से करीब 100 किलोमीटर दूर पुखरायां के पास घटी है।
हादसे में ट्रेन के चार डिब्बे पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गए। हादसा सुबह के समय हुआ, जब यात्री गहरी नींद में सो रहे थे। इस रेल हादसे का जिम्मेदार किसे कहा जाए, सरकार को या प्रशासन को? लेकिन मरने वाले परिजनों की चीखें कौन सुनेगा। हादसे में किसी ने अपना भाई खोया, किसी ने अपना पति, तो किसी ने अपना दोस्त। इन चीखों का जवाब कौन देगा? कौन उनके जख्मों पर मरहम लगाएगा?
उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के पुखरायां रेलवे स्टेशन के पास हुए रेल हादसे में मारे गए लोगों के परिजनों को उप्र सरकार, मध्यप्रदेश सरकार, रेल मंत्रालय और प्रधानमंत्री राहत कोष से कुल मिलाकर 12.5 लाख रुपये का मुआवजा दिया जाएगा।
ऐसे हादसों की भरपाई के लिए मुआवजों का खेल खेलकर सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है। लेकिन असल सच्चाई से पर्दा नहीं उठाया जाता। सवाल यह है कि हादसों को रोकने के मुकम्मल इंतजाम क्यों नहीं किए जाते? किया बढ़ाया गया सुरक्षा के नाम पर, लेकिन ट्रेनों में चोरी-डकैती और हत्या तक की खबरें आ रही हैं। पिछले कुछ सालों से रेल हादसे भी लगातार हो रहे हैं। लेकिन हादसों के बाद मुआवजा देकर सब शांत कर दिया जाता है।
कानपुर रेल हादसे में भी यही किया जा रहा है। मरने वालों को मुआवजा देकर जिंदगी फिर उसी मोड़ पर चलने के लिए छोड़ दी गई। मौजूदा घटना के लिए रेल मंत्रालय ने दुर्घटना में हताहत हुए लोगों के परिजनों के लिए तीन लाख पचास हजार रुपये, गंभीर रूप से घायलों के लिए 50 हजार रुपये और साधारण रूप से घायलों के लिए 20 हजार रुपये मुआवजे का ऐलान किया है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री राहत कोष से मृतकों के परिजनों को 2 लाख रुपये और गंभीर रूप से घायलों को 50 हजार रुपये मुआवजे का ऐलान किया है।
चुनाव नजदीक है, इसलिए सबसे ज्यादा मुआवजा उप्र सरकार दे रही है। उत्तर प्रदेश सरकार ने मृतकों को पांच लाख रुपये और गंभीर रूप से घायलों को 50 हजार रुपये मुआवजा देने का ऐलान किया। वहीं मामूली रूप से घायल लोगों को 25-25 हजार रुपये की मदद का ऐलान किया है। मुआवजा देना हादसों को रोकने का विकल्प नहीं हो सकता। इसके लिए कारगर उपाय सोचने होंगे।
पिछले तीन सालों में ही देश के भीतर कई बड़े रेल हादसे हुए हैं। इतिहास की बात करनी बेमानी होगी। इसी साल पिछले माह अक्टूबर में कटक के पास ट्रेन दुर्घटना में दो लोगों की मौत हुई, 37 लोग घायल। 13 फरवरी 2015 को बेंगलुरू से एर्नाकुलम जा रही एक एक्सप्रेस ट्रेन की आठ बोगियां होसुर के समीप पटरी से उतर गईं। इसमें दस लोगों की मौत हो गई और 150 यात्री घायल हो गए थे।
25 मई, 2015 को राउरकेला से जम्मूतवी जा रही मुरी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गई। ट्रेन के करीब 10 डिब्बे पटरी से उतर गए, जिसमें एक की मौत हो गई। 26 मई 2014 को उप्र के संत कबीर नगर में गोरखधाम एक्सप्रेस ने एक मालगाड़ी को उसी ट्रैक पर टक्कर मार दी। हादसे में कम से कम 22 लोग मारे गए। चार मई 2014 को महाराष्ट्र के रायगढ़ में कोंकण रूट पर एक सवारी गाड़ी का इंजन और छह डिब्बे पटरी से उतर गए। हादसे में कम से कम 18 लोगों की मौत हो गई।
17 फरवरी 2014 को नासिक के घोटी में मंगला एक्सप्रेस के 10 डिब्बे पटरी से उतरे, जिसमें तीन यात्रियों की मौत और 37 घायल हुए। 28 दिसंबर 2013 को आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में बेंगलुरू नांदेड़ एक्सप्रेस के एक एसी कोच में आग लगने से 26 लोगों की मौत हुई। 19 अगस्त 2013 में बिहार के खगड़िया में कावड़ियां लोग पटरियों के रास्ते गुजर रहे थे, तभी राज्यरानी एक्सप्रेस ने इन्हें कुचल दिया था। उस हादसे में 37 लोग मारे गए थे।
इतने लोगों का बार-बार मारा जाना रेल प्रशासन पर सवालिया निशान खड़ा कर रहा है। सरकार द्वारा दिया गया मुआवजा कुछ दिनों तो मरहम का काम करता है, लेकिन स्थायी समाधान नहीं है। इस विषय को लेकर सरकार जनता के हित मे बड़े कदम उठाने की जरूरत है।
लगातार हो रहे हादसों से ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में रेलवे का विशाल रेलतंत्र किसी अभिशाप की तरह चिपक गया है। जो समय-समय पर अपना कहर बरपाती है। कुछ माह पहले की बात है, उत्तर प्रदेश के भदोही में एक भीषण हादसे में 10 स्कूली बच्चों दर्दनाक मौत हो गई, जबकि 12 बच्चे घायल हो गए हैं।
हादसा एक मानव रहित क्रॉसिंग पर एक स्कूली वैन के ट्रेन से टकराने से हुआ। इस घटना ने करीब डेढ़ साल पहले उत्तर प्रदेश के ही मऊ जिले में मानव रहित रेलवे क्रासिंग पर घटी दर्दनाक घटना का दर्द ताजा कर दिया। उस घटना ने भी दर्जनभर से ज्यादा बच्चों की जिंदगी लील ली थी। तेलंगाना के मसाईपेट में भी पिछले वर्ष जुलाई में घटी इसी तरह की एक घटना में भी 19 बच्चों की मौत हो गई थी।
रेलवे भी इस कड़वे सत्य को जानता है, लेकिन अब तक कोई ऐसी पुख्ता व्यवस्था लागू नहीं हो पाई है, जो ऐसे हादसों को रोक सके। हां, जुबानी और लिखित जमाखर्च करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। कानपुर रेल हादसे में जान गवाने वाले पीड़ित परिवारों के जख्मों पर इस समय हर कोई मरहम मलते दुर्घटना पर शोक प्रकट कर रहे हैं। लेकिन इससे उन परिवार वालों का दर्द कतई कम नहीं होगा, जिन्होंने अपनों को खोया है।
आखिर क्या वजह है कि सब कुछ गंवाने या यूं कहें कि घटना के बाद ही रेल प्रशासन की कुंभकर्णी नींद खुलती है?
(ये लेखक के निजी विचार हैं)