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तो फिर वर्षा का पूर्वानुमान किसान के किस काम का

सरकारी मौसम विभाग खुश है कि वर्षा का उसका पूर्वानुमान जो गड़बड़ा रहा था वह कुछ ठीक होता जा रहा है। हालांकि मानसून का आधा वक़्त गुजरने के बाद वर्षा के वास्तविक आंकड़ों के मुताबिक एक चौथाई भारत पर सूखे का भीषण संकट अभी भी है।
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देश के कुछ इलाकों में ताबड़तोड़ बारिश हो गई है। सरकारी मौसम विभाग खुश है कि वर्षा का उसका पूर्वानुमान जो गड़बड़ा रहा था वह कुछ ठीक होता जा रहा है। हालांकि मानसून का आधा वक़्त गुजरने के बाद वर्षा के वास्तविक आंकड़ों के मुताबिक एक चौथाई भारत पर सूखे का भीषण संकट अभी भी है। एक चौथाई भारत बाढ़ की चपेट में है। यानी देश के लगभग आधे क्षेत्रफल में बसे लोग मौसम विभाग के पूर्वानुभान से उलट स्थिति देख रहे हैं।

मौसम विभाग का पूर्वानुमान देश के 32 करोड़ हेक्टेअर भूभाग पर औसत बारिश का अंदाजा था। कहीं बहुत कम और कहीं बहुत ज्यादा बारिश के आंकड़ों का औसत निकाल कर आमतौर पर यह पूर्वानुमान सही निकल आता है। लेकिन जिस मकसद के लिए बारिश के अनुमान लगाए जाते हैं, वह बहुत गड़बड़ा रहा है।

जहां सूखे के हालात हैं, उन्हें पूर्वानुमान बिल्कुल ही गलत लग रहे हैं। पूर्वानुमान के आधार पर खेती बाड़ी की उनकी सारी तैयारियां बेकार हुई जा रही हैं। और जहां बाढ़ सी आ गई है, वे भी उतने ही संकट में है। फिर पूर्वानुमान का मतलब ही क्या बचा। यानी वैज्ञानिकों को वर्षा के पूर्वानुमानों की उपयोगिता पर नए तरीके से सोचना पड़ेगा।

कुछ ज्यादा ही ऊंच नीच हो रही है इस साल


अपना देश जरा ज्य़ादा बड़ा है। आबादी के लिहाज़ से और भूभाग के आकार के लिहाज़ से भी। अपना एक-एक प्रदेश दुनिया के भरे पूरे एक-एक देश के आकार का है। बहरहाल, मौसम विभाग बारिश के लिहाज़ से देश को चार भौगोलिक भागों में बांटकर वर्षा का मापन करता है। वह चार भाग हैं पूर्वी और पूर्वोत्तर, मध्य भारत, उत्तर पश्चिम, दक्षिण प्रायद्वीप।

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चार महीने के अपने मुख्य मानसून के मौसम में बारिश का मापन हम एक जून से 30 सितंबर तक करते हैं। इस समय जुलाई खत्म होने को आया है। यानी मानसून का आधा वक्त गुजरने के बाद वास्तविक वर्षा की स्थिति यह है कि पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत में अब तक जो बारिश हुई है वह सामान्य से 29 फीसदी कम है।

मध्य भारत बाढ़ से परेशान है, वहां 29 जुलाई तक सामान्य से 8 फीसदी ज्यादा पानी बरस गया। जबकि उत्तर-पश्चिम भारत सामान्य से कम बारिश के अंदेशे में है। वहां अब तक 1 फीसदी पानी कम गिरा है। देखने में एक फीसदी कम बारिश सामान्य बात लगती है, लेकिन उत्तर पश्चिम भारत के 9 भूभागों में से पांच में काफी कम पानी बरसा है। खासतौर पर पूर्वी-उप्र में पिछले हफ़्ते तक 38 फीसदी की कमी है।

पश्चिमी उप्र में भी कम बारिश का आंकड़ा 23 फीसदी था। यानी उत्तर पश्चिम भारत में सामान्य बारिश के एकमुश्त आंकड़े को देखकर यह न माना जाए कि वहां हर जगह हालात सामान्य हैं। इसी तरह देश के दक्षिण प्रायद्वीप में 4 फीसदी ज्यादा बारिश से निश्चित होना भी ठीक नहीं है।

दक्षिण प्रायद्वीप के दस में से चार उप संभागों में सामान्य से कम बारिश दर्ज हुई है। लक्ष्यद्वीप में तो सनसनीखेज तौर पर पिछले हफ्ते तक 40 फीसदी कम बारिश हुई थी। अब रही बात मध्य भारत की तो वहां 8 फीसदी ज्यादा बारिश को सामान्य बारिश की श्रेणी में रखा जा रहा है। लेकिन वहां कोकण और गोवा में 35 फीसदी ज्यादा बारिश ने हालात बेकाबू कर रखे हैं।

पश्चिमी मप्र में 24 फीसदी ज्यादा और मध्य महाराष्ट में 22 फीसदी ज्यादा बारिश से लोग बेहाल हैं। वहां के लोगों को मौसम विभाग के पूर्वानुमानों से बिल्कुल ही उलट अनुभव हो रहा है।

तो पूर्वानुमान किस काम के

माना जाता है कि वर्षा के पूर्वानुमान खेती-बाड़ी करने वालों की सुविधा के लिए बताए जाते हैं। सुविधा का यह तर्क तो किसान के लिए गलत बैठ रहा है। पूर्वानुमान का एक और मकसद यह बताया जाता है कि किसानों को कर्ज देने के लिए बैंक पहले से जानना चाहते हैं कि बारिश कैसी होगी। इस साल के पूर्वानुमान बैंक वालों को भी परेशान कर गए होंगे।

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वर्षा के पूर्वानुमानों का एक पक्षकार उद्योग व्यापार जगत भी है। लेकिन जो भारत के बाजार का स्वभाव जानते हैं वे बताते ही रहते हैं कि बाजार में पूंजी लगाने वाला उद्योग जगत भाविष्यवाणियों के चक्कर में नहीं पड़ता। उसके लिए सूखा हो या बाढ, दोनों ही स्थितियों में मौके के लिहाज से हमेशा ही व्यापार का सुरक्षित अवसर होता है।

फिर भी, हर साल अगर वर्षा के पूर्वानुमान का उपक्रम इतने शौक से किया जाता है तो इसे इस तरह समझा जा सकता है कि वर्षा का पूर्वानुमान प्रकृति के रहस्यों को समझने का एक वैज्ञानिक उपक्रम है। ऐसा उपक्रम जो अभी प्रायोगिक अवस्था में है।

वैसे भाविष्यवाणियां सही भी हों तो क्या फायदा

भारत में अलग-अलग भूभागों पर अलग-अलग मात्रा की वर्षा का पक्का रिकॉर्ड है। मसलन चेरापूंजी में देश के औसत से दस गुनी और जैसलमेर में देश के औसत बारिश का एक बटा छह हिस्सा यानी सिर्फ 20 सेंटीमीटर ही पानी गिरता है। यानी पिछले सौ पचास साल के आंकड़े काफी कुछ बताते आ रहे हैं। अपनी सरकार की जल प्रबंधन की योजनाएं इसी सांख्यिकी के आधार पर बनती हैं। दुनिया में अब तक बने सभी बड़े बांध की परियोजनाएं बनाते समय सबसे पहले उस बांध के जल ग्रहण क्षेत्र में वर्षा के 75 साल के आंकड़े ही देखे जाते हैं।

अब तक यही देखा जाता है कि जो बांध बना रहे हैं, वह हर साल पूरा भर जाएगा कि नहीं। ज्यादा पानी आने की सूरत में उसे दरवाजों के जरिए बाहर निकालने का प्रबंध रहता है। कुछ बड़े बांध अंग्रेज भी बनाकर गए थे और बहुत सारे आजादी के बाद बने। आज कोई साढ़े तीन हजार बांध और दूसरे जलाशय हमारे पास हैं। लेकिन देश में औसत बारिश से हर साल हमें जितना पानी नदियों में बहता हुआ मिलता है उसका आधा भी हम जमा करके रखने की स्थिति नहीं बना पाए।

मानसूनों के दिनों में यह बेशकीमती पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ समुद्र में वापस चला जाता है। अपने देश को प्रकृति से उपहार में मिलने वाला यह पानी जमा हो जाया करे तो हमें वर्षा की भविष्यवाणियों या मौसम की ऊंच नीच के बारे में चिंता करने की जरूरत ही न पड़े। तब हम निश्चित तो इस हद तक हो सकते हैं कि सन 1899 जैसा सूखा और अकाल पड़ने की हालत में भी हर खेत को पानी दे सकते हैं।

सिंचित और असिंचित खेती का पहलू


देश में अभी आधी से ज्यादा खेती की जमीन में सिंचाई की सुविधा नहीं है। यानी आधे से ज्यादा किसान वर्षाधारित खेती ही करते हैं। बेशक इन किसानों का सब कुछ वर्षा पर ही टिका होता है। इस तरह आज की परिस्थिति में वर्षा का पूर्वानुमान और वर्षा का मापन महत्वपूर्ण सिद्ध होता है। लेकिन अगर पहले से पता भी चल जाए कि पर्याप्त वर्षा होगी या नहीं तो किसान या सरकार ज्यादा कर क्या लेगी।

अनियमित वर्षा से होने वाले अंदेशे को अगर खत्म करना है तो हमें वह व्यवस्था चाहिए कि कम बारिश के समय नहरों से पानी मिल जाए। और अगर ज्यादा बारिश हो तो उस पानी को अपने प्रबंधन से अपनी मर्जी के मुताबिक जहां चाहें वहां जमा कर लें ताकि वह पानी नीचे के इलाकों में बाढ़ की तबाही न मचा सके।

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प्राचीन भारतीय जल प्रबंधन के इसी कौशल का संचयी ज्ञान हमें उपलब्ध है। मसलन बुंदेलखंड में नौवीं सदी से 13वीं सदी के बीच चंदेल राजाओं के बनाए गए तालाबों का जल विज्ञान हमें बता रहा है कि उनके बनाए तालाबों में इतना पानी भर लिया जाता था कि वे लगातार दो तीन साल के सूखे झेलने की कूबत रखते थे। उनका जल विज्ञान कितनी भी ज्यादा बारिश की हालत में सारा का सारा पानी जमा रखने की हैसियत रखता था।

महोबा में आपस में जुड़े सात तालाबों की श्रृंखला अभी लुप्त नहीं हुई है। यानी आज समस्या 10 या 15 फीसदी पानी कम या ज्यादा बरसने की नहीं है। बल्कि संकट इस बात का है कि मानसून में पानी भरकर रखने के लिए महोबा जैसे पर्याप्त बर्तन भांड़े हमने बनाकर नहीं रखे हैं।   

(यह लेखिका के निजी विचार हैं)

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