राजधर्म निभाने के लिए अहंकार त्याग, समाजहित देखें

Dr SB MisraDr SB Misra   27 Oct 2016 11:24 AM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
राजधर्म निभाने के लिए अहंकार त्याग, समाजहित देखेंराजधर्म निभाने के लिए अहंकार त्याग, समाजहित देखें

उत्तर प्रदेश की राजनीति में महाभारत जैसे हालात बन गए हैं। संग्राम कुरुक्षेत्र में नहीं और इन्द्रप्रस्थ में भी नहीं बल्कि लक्ष्मण की नगरी, प्रदेश की राजधानी में हो रहा है। बाकी सबकुछ वहीं है, दोनों तरफ़ यदुवंशी हैं लेकिन मुद्दा पुत्रमोह नहीं है, वर्चस्व को बचाने का है। सत्ता का वैसा ही संघर्ष है, स्वार्थ और अहंकार भी वही है और शकुनी की भूमिका में कुछ लोग अमर सिंह को देख रहे हैं। बाकी पात्रों की पहचान आप कर सकते हैं लेकिन अर्जुन की भूमिका में अखिलेश यादव हैं जिनके पास कृष्ण जैसा सारथी नहीं है इसलिए उनका रथ तीन कदम आगे और दो कदम पीछे जाता है। यदि राजधर्म निभाना है तो वैचारिक संग्राम में भी अर्जुन को कृष्ण का रणभूमि में दिया गया गीता का सन्देश याद रखना होगा, समाज हित को सर्वोपरि मानकर परिवार मोह त्यागना होगा।

रामायण काल की बात अलग थी जब स्वार्थ और अहंकार नहीं थे, भाई से भाई नहीं भिड़ा था और बेटे ने बाप के वचन को सिर झुकाकर मान लिया था। राम ने वन गमन सहर्ष स्वीकार किया था, भाई लक्ष्मण ने साथ नहीं छोड़ा था और पत्नी ने कांटों भरा रास्ता स्वीकार किया था राजसुख त्यागने में देर नहीं लगाई थी। यही कारण रहा होगा कि डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने कहा था, ‘हे धरती मां मुझे राम का वचन और कर्म देना।’ उस समय भरत जैसे भाई ने कर्तव्य निभाने के लिए राजकाज तो संभाला लेकिन उसका रखवाला बनकर। राम के लौटते ही उन्हें सिंहासन वापस सौंप दिया। अब राम कहां हैं जिन्हें सिंहासन सौंप दिया जाए।

सच कहूं तो समाजवादी एक साथ मिलकर काम ही नहीं कर सकते। हमारे देश में एक से बढ़कर एक समाजवादी हुए हैं जो भारत पर राज कर सकते थे। अच्युत पटवर्धन, जयप्रकाश नारायण, जेबी कृपलानी, राम मनोहर लोहिया, अशोक मेहता, आचार्य नरेन्द्र देव, कर्पुरी ठाकुर और उनके बाद भी दर्जनों ऐसे लोग जो पक्के समाजवादी थे लेकिन साथ मिलकर काम नहीं कर पाए। आपस में लड़ना झगड़ना और अपने आगे किसी की न सुनना समाजवादियों का स्वभाव रहा है। विचारधारा उन्हें एक सूत्र में बांध नहीं पाई नहीं तो देश का इतिहास अलग होता। अब तो परिवार भी उन्हें एक सूत्र में नहीं बांध पा रहा है।

कितना अच्छा होता आज के नेताओं ने इतिहास से कुछ सीखा होता। कैकेयी ने राम को वन भेजा और शकुनी ने महाभारत कराई, ऐसे चरित्रों की पहचान करके उनसे बचने की आवश्यकता है। कितना अच्छा होता यदि नेता जी, रामगोपाल और शिवपाल स्वेच्छा से पद छोड़कर मार्गदर्शन देते और अपनी सन्तानों को आगे बढ़ाते, आपस में मिलकर काम करना सिखाते। यदि बुजुर्ग यह कहते रहे कि अभी मैं कमजोर नहीं हुआ हूं, मुझ में कूवत बाकी है तो नई पीढ़ी को अपने को निखारने का अवसर ही नहीं मिलेगा। जब पांच साल पहले नेता जी ने अखिलेश यादव को मौका दिया था तो यही त्याग भाव लोगों को दिखाई पड़ा था। अभी भी उसी त्यागभाव की जरूरत है।

राजनीति के पटल पर अनिश्चय देख, विरोधी दलों ने अपनी गोटियां बिछानी आरम्भ कर दी हैं मानो समाजवादी पार्टी ‘छू मन्तर हो गई हो।’ कुछ विश्लेषक कहते हैं अब तो मुस्लिम वोट बसपा में चला जाएगा और थोड़ा बहुत भाजपा को भी मिलेगा। दूसरे कहते हैं यादव वोट भाजपा की तरफ झुकेगा और थोड़ा बहुत भाजपा में भी जाएगा। क्या नेता जी को यह सब नहीं मालूम है? उन्होंने जीवन भर यही सब किया है और बड़े बड़े नेताओं को ‘‘धोबी पछाड़” लगाकर चित करते रहे हैं। यह समझ से परे है कि यदि अभी भी अखाड़े में रहने के लिए कमजोर नहीं हैं तो पांच साल पहले मैदान क्यों छोड़ा।

कुछ लोगों को लगता है उम्र के साथ नेता जी की सोच उतनी प्रखर और स्पष्ट नहीं रही। जो भी हो अब पार्टी, परिवार और समाजवादी सोच को बचाने के लिए समय रहते उन्हें कठोर कदम उठाने चाहिए और यदुवंश के अन्दर या बाहर नेतृत्व के लिए त्यागभाव से झांकना चाहिए। आज की परिस्थितियों में अखिलेश यादव का साफ सुथरा विकल्प दिखाई नहीं देता, इसे शालीनता से स्वीकार करना चाहिए।

   

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.