शुभम कुमार
डॉ. राम मनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च, 1910 को हुआ था। लोहिया भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यकर्ता और समाजवादी राजनीतिक नेता थे। 1963 में लोहिया को फर्रुखाबाद निर्वाचन क्षेत्र, उत्तर प्रदेश से लोकसभा के लिए संसद के सदस्य के रूप में चुना गया था। लोहिया को अक्सर भारतीय राजनीति में प्रतिरोध और असंतोष की सबसे बड़ी आवाज़ के रूप में जाना जाता है।
लोहिया अपनी बुद्धि, ज्ञान और मुखरता के लिए काफ़ी प्रसिद्ध थे। उन्होंने न केवल राजनीती पर, बल्कि भारतीय समाज के रूढ़िवादी सिद्धांतों और दर्शन पर भी निरंतर सवाल उठाये और बड़ी ही मुखरता से इन बिंदुओं पर अपने विचार रखें। लोहिया ने आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर बड़े पैमाने पर लिखा, लेकिन केवल खुद को राजनीति या अर्थशास्त्र तक केवल सीमित नहीं रखा। लोहिया ने जाति, लिंग, किसानों के अधिकारों, गांधीवाद, मार्क्सवाद, आदि पर विस्तार से लिखा।
भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति बहुत ही चिंताजनक रही है। लोहिया ने ठीक ही कहा कि भारत में पितृसत्ता हमारी मानसिकता के मूल में अंतर्निहित है। महिलाओं पर हिंसा फैलाना, उन्हें हीन प्रजाति मानना और उनके साथ दुर्व्यवहार करना लंबे समय से भारतीय समाज की पहचान रही है। प्रारंभिक स्वतंत्रता आंदोलनों में एक सबसे बड़ी कमी यह थी कि यह काफी हद तक गैर-समावेशी था और इसमें प्रमुख रूप से उच्च वर्ग के हिंदू पुरुष शामिल थे।
राजनीतिक आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी के खिलाफ एक केंद्रीय तर्क यह था कि उनकी भूमिका को घर के भीतर परिभाषित किया गया था और वे घर के अन्य पुरुष सदस्यों की देखभाल और सेवा से जुड़ी थीं। दूसरी ओर, पुरुषों को उनकी शारीरिक शक्ति और आक्रामकता के कारण नेतृत्व के लिए आदर्श माना जाता था। लोहिया के अनुसार महिलाओं की समाज में भूमिका की ऐसी समझ बहुत पुरातन है और तर्कसंगत समझ पर आधारित नहीं है।
लोहिया ने लैंगिकता या अलैंगिकता, भावनात्मक या भौतिक मामलों, व्यक्तित्व या सामाजिक भूमिकाओं से संबंधित स्पष्ट विचारों के भीतर लैंगिक बहस को सीमित करने से इनकार कर दिया। लोहिया, हर घर में प्रचलित एवं सामाजिक रूप से स्वीकृत अभ्यासों की निरंतर आलोचना करते रहें। उन्होंने न केवल बाहरी दुनिया में महिलाओं द्वारा सामना की जाने वाली कठिनाइयों के बारे में चर्चा की बल्कि वे हर उस समस्या से चिंतित और प्रभावित थे जिनका महिलाओं को नियमित रूप से सामना करना पड़ा था। जैसे महिलाओं द्वारा रसोई में धुएं से लड़ने हो या लंबी दूरी तक पानी ले जाना हो या फिर परिवार के मर्दों का जूठन खाना हो।
लोहिया के नारीवादी विचार को उनके “द्रौपदी और सावित्री” नामक एक लेख से समझा जा सकता है। लोहिया इस तथ्य से भलीभांति अवगत थें कि भारतीय समाज अति-धार्मिक है और इसलिए उन्होंने नारीवाद की बहस को पौराणिक सन्दर्भ दिया। उन्होंने कहा कि सावित्री और सीता को आदर्श स्त्री और पौराणिक व्यक्तित्व के रूप में व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है। सावित्री और सीता के लिए लोहिया के मन में बेहद सम्मान था, लेकिन उनके अनुसार ‘निष्ठा और शुद्धता’ महिला के व्यक्तित्व के कुछ महत्वपूर्ण गुणों में से एक थे, परन्तु केवल निष्ठा और शुद्धता तक नारित्व को नहीं सीमित रखना चाहिए।
उन्होंने ‘आदर्श नारीत्व’ की उस अवधारणा को स्वीकार करने से इनकार कर दिया जो पतिव्रत धर्म के इर्द-गिर्द घूमती थी। लोहिया द्रौपदी को नारीत्व का सबसे शक्तिशाली प्रतीक मानते थे जिनके पास तेज बुद्धि थी और अपने मन की बात कहने का साहस भी था। उन्होंने यह भी आलोचना की और ध्यान दिलाया कि द्रौपदी का गुस्सा सिर्फ कौरवों के खिलाफ नहीं था, बल्कि उनके पतियों के खिलाफ भी था, जो उन्हें अपनी संपत्ति का एक मूल्यवान टुकड़ा मानते थे।
द्रौपदी के असंतोष और उसके क्रोध को ज़ाहिर करने के साहस ने एक आज़ाद और स्वच्छंद महिलाओं के चेहरे को दिखाया, जो नारीत्व के नए और आधुनिक आदर्श होने का दावा कर सकती थीं। लोहिया ने कृष्ण के अपवाद के साथ यह भी कहा कि “द्रौपदी शायद इतिहास की एकमात्र महिला है जो अपने समय के सभी पुरुषों की तुलना में सबसे अधिक समझदार थीं।”
अपने पूरे जीवन में लोहिया ने इस पहलू पर जोर दिया कि महिलाएँ अपनी गरिमा, आज़ादी और स्वायत्तता चाहती हैं तथाकथित पवित्रता या नैतिकता या देवी का दर्जा नहीं । डॉ. लोहिया ने कहा था कि महिलाओं के सशक्तीकरण के बिना सामाजिक समृद्धि संभव नहीं है। उनके लिए लिंग क्रांति एक सामाजिक क्रांति के अग्रदूत थे।
(लेखक डॉ. राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, लखनऊ के छात्र हैं और यह इनके निजी विचार हैं)