हाकिम सिंह : एक ग्रामीण महानायक का दुनिया से चले जाना

Hakim Singh Amodha

1857 की क्रांति के ग्रामीण नायकों तथा अमोढ़ा राज के इतिहास और किसान क्रांति के अतीत को खंगालने और उससे परतें हटाने वाले नायक बाबू हाकिम सिंह का हाल में निधन हो गया। हाकिम सिंह के जीवन की उपलब्धियों व संघर्ष के बारे में बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह…

लखनऊ से गोरखपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर अयोध्या के बाद एक प्रमुख कस्बा छावनी पड़ता है। यहां दरअसल 1857 के महान क्रांति के दिनों में अंग्रेजों ने एक सैनिक छावनी स्थापित की थी। तभी से इसी नाम से यह जगह विख्यात हो गयी। बस नाम के आगे बाजार भी जुड़ गया। लेकिन इससे लगे गांवों का प्रथम स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में काफी महत्व रहा है। जब देश के करीब हर हिस्से में क्रांति की मसाल बुझ गयी थी तो भी इस इलाके के किसान और मजदूर अंग्रेजों से लोहा लेते हुए आजादी की जंग लड़ रहे थे। अंग्रेजों ने छावनी बाजार में पीपल के एक पेड़ पर 500 क्रांतिकारियों को फांसी दी गयी थी। फिर इसका नाम फंसियहवा पड़ गया।

बाराबंकी से लेकर फतेहपुर और उत्तर प्रदेश के कई हिस्सो में अंग्रेजी राज के दमन के प्रतीक कई फंसियहवा पेड़ अभी भी जीवित हैं। लेकिन इस फंसियहवा पेड़ और इस अंचल में 1857 की क्रांति के ग्रामीण नायकों तथा अमोढ़ा राज के इतिहास और किसान क्रांति के अतीत को खंगालने और उससे परतें हटाने वाले नायक बाबू हाकिम सिंह का हाल में निधन हो गया। इस पिछड़े ग्रामीण अंचल में देहाती बच्चों के लिए एक सजग मार्गदर्शक होने के साथ वे एक प्रगतिशील किसान भी थे। खेती के तमाम नए तरीके विकसित करने के साथ उन्होंने छावनी बाजार के उच्च माध्यमिक विद्यालय के कृषि फार्म में अनूठा काम करके दिखाया।

उनको राष्ट्रपति पुरस्कार से भी नवाजा गया। वे एक अच्छे लेखक, अच्छे किसान और शिक्षक होने के साथ बहुआयामी भूमिका में थे। वे चाहते तो सांसद या विधायक हो सकते थे और दिल्ली या लखनऊ जाकर साहित्य सेवा करते तो शोहरत की बुलंदी पर होते लेकिन उन्होंने अपना गांव और जमीन नहीं छोड़ी। इस नाते उनकी मौत की खबर के बाद उन पर लिखने से अपने को रोक नहीं पाया। वे मेरे परिवार की छांव थे। छावनी के पड़ोस में ही स्थित गांव गुण्डाकुंवर के निवासी हाकिम सिंह ने 90 वर्ष की आयु में 13 जनवरी 2018 को जब आखिरी सांस ली तो पूरे इलाके में शोक की लहर फैल गयी। बस्ती के सांसद हरीश द्विवेदी, पूर्व मंत्री राजकिशोर सिंह और विधायक अजय सिंह से लेकर बहुत से लोग गांव पहुंचे लेकिन आम जनमानस जिस तरह उमड़ा उसने साबित किया कि उनकी जड़े कितनी गहरी थीं।

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हाकिम सिंह का जन्म 1 अप्रैल, 1928 को इसी क्रांतिकारी गांव में एक किसान परिवार में हुआ। स्कूली पढ़ाई के बाद वे शिक्षक बने और जीवन का बड़ा हिस्सा आदर्श जूनियर हाई स्कूल छावनी में प्राचार्य के रूप में बीता। 1987 में उनको राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला। लेकिन उनके जीवन का सबसे ब़ड़ा काम इलाकाई इतिहास को उजागर करना रहा है। स्वतन्त्रता संग्राम में अमोढ़ा की भूमिका, फूल की डाली और अमृत कलश जैसी किताबें उन्होंने लिखीं। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह रही कि यहां के आजादी के आंदोलन के शहीदों के बारे में देश दुनिया को खोज कर बताया। उनकी ही मदद से मैंने भारतीय डाक पुस्तक लिखने के दौरान यहां के इतिहास के कई पक्षों की जानकारी हासिल की।

यह ध्यान रखने की बात है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में दूरदराज के इलाकों के जमीनी स्तर के बहुत से जनसंघर्षों को इतिहासकारों ने नजरंदाज किया। इस नाते बहुत से जमीनी क्रांति नायकों और नायिकाओं की वीरता की कहानियां अपेक्षित महत्व नहीं पा सकीं। ऐसी ही एक महान सेनानी बस्ती जिले की अमोढ़ा रियासत की रानी तलाश कुवंरि और कई अज्ञात स्वतंत्रता सेनानियों की भी कहानी है, जिसे प्रकाश में लाने का श्रेय हाकिम सिंह को जाता है।

राम जानकी मार्ग पर अमोढ़ा 6,500 लोगों की आबादी वाला गांव है, लेकिन 1857 में यह पूर्वांचल की महत्व की रिसायतों में एक था। सांसद हरीश द्विवेदी ने इसके ऐतिहासिक महत्व के नाते सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत गोद लिया है। लेकिन रानी का नाम भी स्थानीय लोगों को नहीं पता था। 140 साल तक गुमनाम रहीं इन महान रानी की बलिदानी भूमिका की असली पड़ताल हाकिम सिंह ने की। बाद में 1997 में बस्ती मंडल के आयुक्त विनोद शंकर चौबे ने उनकी याद में जिला महिला चिकित्सालय का नाम वीरांगना रानी तलाश कुवंरि जिला महिला चिकित्सालय, बस्ती कराया।

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रानी अमोढ़ा ने 10 महीनों तक अंग्रेजों को खुली चुनौती दी थी। उनकी शहादत के बाद भी स्थानीय किसानों ने उस समय तक जंग जारी रखी जब सारी जगह 1857 के शोले बुझ चुके थे। रानी को घाघरा नदी के तटीय इलाके में ऐसा व्यापक जनसमर्थन हासिल था कि इससे निपटने के लिए फरवरी 1858 में अंग्रेजों को नौसेना ब्रिगेड की तैनाती करनी पड़ी थी। ग्रामीणों ने अंग्रेजी नौसेना तथा गोरखाओं के छक्के छुड़ा दिए। उस दौरान गोंडा , बहराइच, बाराबंकी और फैजाबाद में क्रांति की ज्वाला दहक रही थी और नदी के तटीय इलाकों में घाटों की पहरेदारी तथा चौकसी के नाते अंग्रेजों का आना जाना भी असंभव हो गया था।

अमोढ़ा एक जमाने तक राजपूतों की काफी संपन्न रियासत हुआ करती थी। 1857 में बस्ती में केवल नगर तथा अमोढ़ा के राजाओं ने ही अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी जबकि बाकी रियासतें अंग्रेजों के साथ थीं। कालांतर में अमोढ़ा बागियों का मजबूत केन्द्र बना। दस्तावेजों के साथ हाकिम सिंह ने जानकारी जुटाई की रानी अमोढ़ा ने 1853 में शासन संभाला और 2 मार्च 1858 तक अंग्रेजों को टिकने नहीं दिया। 1857 की क्रांति की खबर मिलने के बाद उन्होंने भरोसेमंद लोगों के साथ बैठक कर अंग्रेजों से लड़ने का फैसला किया। स्थानीय किसानों की मदद से उन्होंने बस्ती-फैजाबाद के बीच सड़क और जल परिवहन ठप करा दिया और संचार का सार तार तोड़ दिया। उसी दौरान राजपूतों के गांव शाहजहांपुर के क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों की छावनी पर हमला करने दुस्साहस किया, जिससे 1858 में इस गांव का नाम ही गुंडा रख दिया गया। आजादी के 60 साल बाद भी यह गांव गुंडा कुंवर के नाम से ही जाना जाता है।

जब नेपाली सेना की मदद से 5 जनवरी 1858 को अंग्रेजों ने गोरखपुर पर अपना कब्जा कर लिया तो उनका ध्यान बस्ती के दो सबसे बागी इलाकों की ओर गया। रोक्राफ्ट के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने अमोढ़ा की ओर कूच किया लेकिन उसी दौरान गोरखपुर से पराजय के बाद बागी नेता और सिपाही भी क्रांति के केन्द्र अमोढ़ा पहुंच गए। रानी अमोढ़ा के नेतृत्व में अंग्रेजी फौजों को कड़ी चुनौती मिली और अंग्रेज हार गए। इस जंग में 500 से अधिक क्रांतिकारी मारे गए। बाद में और बड़ी संख्या में अंग्रेजी फौज और तोपें अमोढ़ा के लिए रवाना हुईं तो हरकारों की मदद से यह सूचना रानी को मिल गयी। बागी सैनिकों को बेलवा क्षेत्र की ओर भेज कर रानी खुद पखेरवा की ओर चली गयीं। अंग्रेजों ने भी यहां काफी संख्या में भेदिए तैनात कर रखे थे और उनको आभास हो गया था यहां की जन बगावत को आसानी से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। इस नाते नौसेना की यहां तैनाती की गयी। उसी दौरान अंग्रेज अधिकारी ले. कर्नल ह्यूज ने गोंडा की ओर से आकर पखेरवा के करीब रानी पर हमला किया।

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क्रांतिकारियों ने बहादुरी से मोरचा संभाला और अंग्रेजी सेना को पीछे हटने के लिए विवश कर दिया। लेकिन उसी दौरान रोक्राफ्ट भी बड़ी सेना के साथ वहां पहुंच गया और रानी हर तरफ से घिर गयीं। फिर भी वे घबरायीं नहीं और उन्होंने जंग जारी रखी। उनका घोड़ा पखेरवा के पास ही घायल होकर मर गया। रानी को जब यह आभास हो गया कि अब जीतना संभव नहीं है तो वे पखेरवा किले पर पहुंच गयीं और अपने समर्थको को आखिरी बार संबोधित करते हुए कहा कि अंग्रेज हमें जीवित या मृत पकड़ना चाहते हैं…ऐसी नौबत अगर आ गयी तो मैं स्वयं अपनी कटार से अपनी जीवनलीला समाप्त कर दूंगी, लेकिन आप लोग मेरी लाश को अंग्रेजों के हाथ नहीं पड़ने देना और जंग जारी रखना ।

2 मार्च 1858 को रानी ने अपनी कटार से अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी। किसानों ने उनका शव अमोढ़ा राज्य की कुलदेवी समय भवानी के चौरा के पास दफना कर मिट्टी का एक टीला बना दिया जो 1980 तक रानी चौरा के नाम से मशहूर था और स्थानीय लोग देवी की तरह उनकी पूजा करते थे। 1980 में एक श्रद्धालु ने समय भवानी का मंदिर बनवाने के क्रम में ऐतिहासिक तथ्यों की अज्ञानता के चलते रानी चौरा का भी सत्यानाश कर दिया। पखेरवा में रानी का घोड़ा भी स्थानीय ग्रामीणों ने दफना दिया।

रानी की शहादत के बाद आसपास के इलाके में क्रांति की आग और तेजी से फैली। जगह-जगह अंग्रेजी फौज को चुनौती मिली। छावनी के पास ही स्थित रामगढ़ गांव में अंग्रेजों का मुकाबला करने की रणनीति के तहत 17 अप्रैल 1858 को ग्रामीण नायकों की एक गोपनीय बैठक हुई जिसमें रामगढ़ के धर्मराज सिंह, बेलाड़ी के पंडित ईश्वरी शुक्ल, बभनगांवा के अवधूत सिंह, गुंडा कुवर के सुग्रीव सिंह, घिरौलीबाबू के कुलवंत सिंह, हरिपाल सिंह, बलवीर सिह, रिसाल सिंह, रघुवीर सिंह, सुखवंत सिह से लेकर कई इलाकों के क्रांतिकारी मौजूद थे। लेकिन इसकी सूचना लेफ्टीनेंट कर्नल हगवेड फोर्ट को मिल गयी और वह सेना की एक टुकड़ी लेकर यहां पहुंच गया। बाकी लोग बच निकले लेकिन धर्मराज सिंह पकड़ लिए गए। लेकिन हगवेड ने उनको बांध कर घसीटा लेकिन छावनी के उत्तर दिशा की ओर जाते समय उसकी कटार अचानक नीचे गिर गयी और उसने धर्मराज सिंह को कटार उठाने का हुक्म दिया। लेकिन बागी धर्मराज ने उसी कटार से हगबेड की जीवनलीला समाप्त कर दी। हगवेड की समाधि छावनी में अंग्रेजों ने बनवायी लेकिन हाकिम सिंह की प्रेरणा से उसी के पास ही धर्मराज सिंह की शहादत का शिलालेख भी लगवाया गया।

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इन घटनाओं के बाद भी अंग्रेजों के कब्जे में यह इलाका नहीं आया। घाघरा के किनारे आखिरी सांस तक लड़ने के लिए बहुत बड़ी संख्या में बागी डटे हुए थे। उस दौरान की एक सरकारी रिपोर्ट में कहा गया है कि -नगर तथा अमोढ़ा को छोड़ कर बाकी शांति है……घाघरा के तटीय इलाके में बड़ी संख्या में बागियों की मौजूदगी है।

रानी अमोढ़ा की सेना बड़ी थी जिसमें सभी जातियों के लोग थे। रानी को स्थानीय किसानों और खेतिहर मजदूरों का व्यापक समर्थन था क्योंकि वे अपनी जागीर में किसानों का खास ध्यान रखती थीं। रानी अमोढ़ा के सेनापति अवधूत सिंह ने रानी की शहादत के बाद हजारों क्रांतिकरियो को एकत्र कर 6 मार्च, 1858 को अमोढ़ा तथा बाद में अन्य स्थानों पर युद्द किया। वे अपने साथियों के साथ बेगम हजरत महल को नेपाल तक सुरक्षित पहुंचाने भी गए। लेकिन वापसी में अंग्रेजों के हाथ पड़ गए और छावनी मे पीपल के पेड़ पर उनको फांसी दे दी गयी। वहीं बागियों की रामगढ़ की गुप्त बैठक में शामिल सभी लोग जल्दी ही पकड़े गए और इन सबको बिना मुकदमा चलाए फांसी पर लटका दिया गया। अंग्रेजों ने प्रतिशोध की भावना से गांव के गांव को आग लगवा दी।

फंसियहवा पेड़

गुंडा कुंवर तथा महुआ डाबर सर्वाधिक प्रभावित रहे और यहां से काफी संख्या में लोगों का पलायन हुआ। बहुत से लोगों की जायदाद जब्त हो गयी थी। इस अंचल में बलिदानी परिवारों की संख्या हजारों में है। अमोढ़ा के राजपुरोहित परिवार के वंशज पंडित बंशीधर शास्त्री ने काफी खोजबीन कर अमोढ़ा के इतिहास को तलाशा और हाकिम सिंह के प्रयासों से यह सामने आ पाया। वर्ष 915 ईस्वी के पहले अमोढ़ा में भरों का राज था, जिसे पराजित कर सूर्यवंशी राजा कंसनारायण सिंह ने शासन किया । उनके पांच पुत्र थे जिसमें सबसे बड़े कुंवर सिंह ने पखेरवा में अपना किला स्थापित किया। अमोढ़ा के इर्द गिर्द के 42 गांव अपने आगे कुंवर लगाते है। 1858 के बाद इन गांवों पर अंग्रेजों ने भीषण अत्याचार किया गया ।

1858 से 1972 तक छावनी का यह शहीद स्थल उपेक्षित पड़ा था। लेकिन इसी साल हाकिम सिंह के प्रयासों से शिक्षा अधिकारी जंग बहादुर सिह ने एक शिलालेख लगवाया। इसके पहले कई गांवो से इतिहास संकलन का प्रयास हुआ और तथ्यों के साथ जो नाम प्रकाश में आए उनको शिलालेख पर अंकित किया गया। 30 जनवरी को शहीद दिवस पर यहां मेला सा लग जाता है। आज हमारे देश में किसानों के बलिदानों की गाथाएं भरी पड़ी होने के बावजूद अंधी गुफाओं में कैद हैं। अगर हर इलाके में एक हाकिम सिंह खड़ा हो जाये तो शायद यह कमी पूरी हो सकती है।

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