अभी एससी-एसटी एक्ट के खिलाफ सवर्णों का आन्दोलन समाप्त ही हुआ है जो अपराध के खिलाफ़ उनकी रिपोर्ट पर बिना छानबीन के सवर्णों और अन्य पिछड़ी जातियों को गिरफ्तार करने के विषय में था। केन्द्रीय मंत्री अठावले ने सवर्णों को आरक्षण का सुझाव दे डाला। इसके पहले, मराठा, पटेल, गूजर, मुस्लिम और जाटों के उग्र आंदोलन हो चुके हैं आरक्षण की मांग को लेकर। आरक्षण पर विचार करें तो अनुसूचित जाति (18), जनजाति (03), अन्य पिछडी़ जातियों को (27), महिलाओं को प्रस्तावित (33), अल्पसंख्यकों को (14) और अब सवर्णों को (18) प्रतिशत का सुझाव है। इस प्रकार सभी आरक्षण लागू हो गए तो करीब 113 प्रतिशत आएगा। मेधावी अभ्यर्थियों को क्या मिलेगा पता नहीं और 113 प्रतिशत की पूर्ति कैसे होगी पता नहीं।
सरकारी नौकरियों में आरक्षण पाने के लिए पढ़ना-लिखना आना चाहिए लेकिन संसद और विधान सभाओं में घुसने के लिए किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती तब भी आरक्षण लागू है। सरकारी प्रतिष्ठानों की नौकरियों में आरक्षण लागू है जो लगातार घाटे में चल रही हैं और अब निजी प्रतिष्ठानों में भी आरक्षण का प्रावधान लागू होने का प्रस्ताव है। पता नहीं विदेशी पूंजी निवेश के लिए भी यही दिशा निर्देश हुए तो सब घाटे में चलेंगे और भाग जाएंगे । आरक्षण के लिए जिस प्रकार के उग्र आन्दोलन हो रहे हैं उससे कानून-व्यवस्था की हालत क्या होगी जब बेरोजगार मेधावी लोग चोर, डकैत, अपराधी होंगे और पुलिस की कुर्सी पर होंगे आरक्षण के रास्ते से आए अधिकारी।
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आरक्षण आन्दोलन देशद्रोह न सही, उससे कम भी नहीं है। इसी आन्दोलन के कारण गुजरात में हार्दिक पटेल पर देशद्रोह का मुकदमा कायम हुआ है। इस प्रकार के हिंसक आन्दोलन 80 के दशक में मंडल कमीशन से उपजे थे।
आन्दोलनकारियों का तर्क हो सकता है कि वे अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं लेकिन कुछ लोगों के अधिकारों के लिए बहुसंख्य लागों के जीवन को तहस-नहस कर देना देशद्रोह है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सभी मुख्यमंत्रियों को 1961 में लिखा था ”मैं हर प्रकार के आरक्षण को नापसन्द करता हूं विशेषकर सेवाओं में।” सरदार वल्लभ भाई पटेल भी आरक्षण को देशहित के विरुद्ध मानते थे। जब 1980 के दशक में वीपी सिंह ने आरक्षण का नया फ्रंट खोला तो राजीव गांधी ने 6 सितम्बर 1990 को लोकसभा में वी़ पी़ सिंह से कहा था ” आप ने सारे देश में जातीय हिंसा की आग जला दी है।” दुख की बात है कि वह आग अभी भी जल रही है ।
नए आरक्षण की बात अलग है पुराने आरक्षित पद इसलिए नहीं भरे जा रहे हैं कि योग्य अभ्यर्थियों की कमी है। ऐसी हालत में वैज्ञानिक प्रतिष्ठान, कल कारखाने और प्रशासनिक इकाइयां या तो धीमी गति से चलेंगी या रुकी रहेंगी जब तक कोटा पूरा ना हो जाए। जब मेधावी लोग बेरोजगार होंगे तो अपराधी बनेंगें। तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने आन्दोलित मेधावी छात्रों को पेट्रोल पम्प का लाइसेंस देने, मिट्टी का तेल का परमिट देने, मारुति कार की एजेंसी देने की बात कही थी। बुद्धि का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता है। हमें मानना होगा कि आरक्षण के नाम पर आज जो हो रहा है वह विकसित देशों में नहीं होता। इस प्रकार हम कभी भी विकसित देश नहीं बन पाएंगे ।
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सबसे बड़ी समस्या है साम्प्रदायिक आरक्षण की। वल्लभ भाई पटेल अंग्रेजों द्वारा दिए गए कम्युनल अवार्ड के सख्त खिलाफ थे और जवाहर लाल नेहरू का कहना था यह गलती ही नहीं तबाही की डगर पर ले जाएगा। उस समय सलाहकार समिति के अध्यक्ष के रूप में पटेल ने साम्प्रदायिक आरक्षण को सर्वसम्मति से रद्द कराया था। नेहरू सरकार ऐसे दलितों को भी आरक्षण के खिलाफ़ थी जो धर्मान्तरित हो गए हों ।
मुसलमानों के साथ न तो स्वाधीन भारत में और न उसके पहले कभी भेदभाव हुआ है। इसलिए यह पहेली है कि मुसलमान कब, कैसे और क्यों पिछड़ गए। क्या आरक्षण मांगने का कोई आधार है? दलितों की तरह उनका कभी शोषण नहीं हुआ। सरकारी नौकरियों में मुसलमानों का प्रतिशत कम है इसके लिए स्वयं उनका समाज जिम्मेदार है क्योंकि वे अपनी भाषा और ज्ञान के साथ नौकरी चाहते हैं। गरीब मुसलमानों को आरक्षण की नहीं आधुनिक शिक्षा की आवश्यकता है जिससे वे वैज्ञानिक, प्रशासक और तकनीकी अधिकारी की रेस में आ सकें। सच यह है कि उर्दू शिक्षक और अनुवादक के लिए भी सुयोग्य मुस्लिम अभ्यर्थी नहीं मिलते।
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नौकरियों में उनके कम प्रतिशत का कारण है कि वे अरबी, फारसी और उर्दू पढ़कर कम्प्यूटर शिक्षक और वैज्ञानिक नहीं बन सकते। यदि कोई हिन्दू भी संस्कृत पाठशाला में पढ़कर वैज्ञानिक की नौकरी चाहेगा तो नहीं मिलेगी जैसा मदरसा शिक्षित मुस्लिमों को नहीं मिलती। और यदि आरक्षण का प्रावधान कर भी दिया जाय तो उनका भला नहीं होगा क्योंकि शहरी क्षेत्रों में 6.1 प्रतिशत और गांवों में केवल 1.3 प्रतिशत मुस्लिम ग्रेजुएट हैं, जबकि हिन्दुओं में यही प्रतिशत क्रमशः 25.3 और 5.3 प्रतिशत है। मुस्लिम समाज में उच्च शिक्षा के प्रति अरुचि क्यों है और सैकड़ों साल हुकूमत करने के बावजूद पिछड़े क्यों हैं, सोचना होगा ।
देश के विकास के लिए चन्द लोगों को आरक्षण नहीं चाहिए देशवासियों में इक्सेलेंस चाहिए जैसे अमेरिका और यूरोप ने किया, अथवा प्रजातंत्र को शहीद करके विकास हो सकता है जैसा रूस और चीन ने किया। लेकिन हमारे नेता योग्यता, क्षमता और इक्सेलेंस के बगैर वोटबैंक बनाकर विकास चाहते हैं, यह नहीं होगा। महत्वपूर्ण जातीय प्रतिनिधित्व नहीं क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व है यानी गांव और शहर का प्रतिनिधित्व। लेकिन यदि वर्तमान अराजकता में ही जीना चाहते हैं तो एक दिन गृहयुद्ध होगा जातियों के बीच में जैसे धर्मों के बीच होता रहा है। सेनाएं तैयार हैं भीमसेना, करणी सेना, रामसेना, शिवसेना और नई नई सेनाएं बनेंगी फिर अस्तित्व की लड़ाई होगी और सबसे बलिष्ठ जीतेंगे, जिसकी लाठी उसकी भैंस।