जैसे-जैसे धरती पर जनसंख्या का दबाव बढ़ता जा रहा है, नित नए रोगों का आगमन भी हो चला है। कहा जाता है कि अपने संतुलन के लिए पृथ्वी स्वत: अपने प्रयासों से इसे संतुलित करने का बीड़ा उठा लेती है। आदिवासी अंचलों में जिस तरह अक्सर कहा जाता है कि पर्यावरण संतुलन के लिए नए पौधों का रोपण जितना जरूरी नहीं उससे कहीं ज्यादा जरूरी बचे हुए पेड़-पौधों को कटने से बचाना है, क्योंकि ये पेड़-पौधे स्वत: इतने सक्षम हैं कि अपनी नई संतति को पैदा कर सकते हैं। सवाल सिर्फ इतना है कि हम मनुष्य अपनी रोजमर्रा की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति को अपना शिकार न बनाएं।
भागदौड़ भरी जिंदगी में मनुष्य ने हर एक रास्ते को अपनी सहूलियत के हिसाब से तैयार किया है लेकिन आधुनिकता की अंधी दौड़ ने मनुष्य को दिन-प्रतिदिन पीछे ही धकेला है। आधुनिकता की चकाचौंध और रफ्तार की जिंदगी के चलते हमने अपनी सेहत को कभी प्रमुखता से ध्यान नहीं दिया। दवाओं के जंगलनुमा बाज़ार से त्वरित इलाज की गुंजाइश से जिन दवाओं का सेवन किया जाता है, उनके दुष्परिणामों की कल्पना भी कर पाना कठिन है। आदिकाल से ही मनुष्य वनसंपदाओं और सरल जीवन शैली को अपनाता रहा है लेकिन समय की कमी और भागती-दौड़ती जिंदगी ने अब सरलता को जटिलता में परिवर्तित कर दिया है। सिर्फ सर्दी और खांसी की समस्या होने मात्र से हम सीधे केमिस्ट तक दौड़ लगा लेते हैं और बगैर सोचे-समझे घातक एंटीबायोटिक्स का सेवन कर लेते हैं। त्वरित परिणाम की चाहत तो पूरी हो जाती है लेकिन लंबे समय तक होने वाले दुष्परिणामों को हम समझने की कोशिश भी नहीं करते हैं।
जिस तरह पृथ्वी अपने संतुलन को बनाए रखने के लिए सक्षम है, हमारा शरीर भी ठीक इसी सिद्धांत पर काम करता है। हमारे शरीर में भी रोग-प्रतिरोधक क्षमताएं होती हैं। हमारा शरीर भी प्राकृतिक परिवर्तनों के हिसाब से खुद को संतुलित करने में सक्षम है लेकिन इस मूल बात को हम मनुष्यों ने समझने की अक्सर भूल ही की है। रासायनिक और दुष्परिणामों वाली औषधियों के सेवन से हमारे शरीर में एक अल्प सक्रिय जहर तो फैल ही गया है। क्या हमारा शरीर साधारण जीवन शैली और तनाव रहित जीवन पाकर पुन: स्वस्थ हो सकता है? अवश्य लेकिन सचेत और सजग होकर हम अपने शरीर के स्वास्थ्य, हमारे खान-पान, जीवनचर्या और रहन-सहन पर ध्यान देना शुरू करें तो निश्चित ही हमारी सेहत पहले की तुलना में कई गुना बेहतर होती जाएगी।
हमारे शरीर में इतनी ताकत और रोगप्रतिरोधक क्षमताएं है कि वह प्राकृतिक रूप से स्वत: ही अनेक रोगों को अपने पास भटकने भी नहीं देता। जब शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का एक संतुलित समन्वय होता है तो प्राकृतिक रूप से शरीर में अनेक रोगों से लड़ने की क्षमता आ जाती है और यहीं से जन्म होता है स्व-चिकित्सा (सेल्फ हीलिंग) का। स्व-चिकित्सा के जरिए हम अपने ही शरीर को तमाम रोगों से बेहतर तरीके से लड़ने के लिए तैयार कर सकते हैं। स्वस्थ भोजन, स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन और स्वस्थ विचार में निहित इस रक्षा कवच को अपनाने के लिए हम सब में एक जिज्ञासा का पनपना जरूरी है। स्व-चिकित्सा का मूल आधार जहां एक तरफ सदविचारों के साथ अच्छा भोजन, कसरत, आस-पास का साफ सुधरा पर्यावरण है, वहीं दूसरी तरफ, प्राकृतिक और वन संपदाओं से स्वास्थ्य समस्या का निवारण भी। आदिवासियों के अनुसार रोग कोई समस्या नहीं होती है, रोग तो एक प्रवृति है जो धीमे-धीमे हमारे शरीर में विकसित होने लगती है, वास्तव में हमें रोगों का नहीं, रोगकारकों का उपचार करना होगा। यदि रोगोपचार की विधि तार्किक और न्यायसंगत नहीं होगी तो समस्याएं कम होने के बजाए दोगुनी ही होती चली जाएंगी।
रसायनों और कृत्रिम रूप से तैयार आधुनिक औषधियों की शरण में जाकर त्वरित उपचार तो हो सकता है लेकिन पूर्णरूपेण नहीं। अक्सर ये दवाएं हमारे शरीर में प्रवेश करने के साथ हमारे शरीर में पहले से उपस्थित पोषक तत्वों को नष्ट करने लगती हैं और अक्सर पोषक तत्वों की कमी होने से वही रोग पुन: हो जाता है जिसके उपचार के लिए हमने कोई रासायनिक या तथाकथित फार्मास्युटिकल दवा ली हो।
यदि शरीर में किसी पोषक तत्व की कमी है तो पोषक तत्व की पूर्ति के लिए तत्पर औषधियों की तरफ दौड़ लगाने के बजाए तत्वों की कमी होने के कारणों को खोजा जाए और इन कारणों का प्राकृतिक रूप से निवारण किया जाए। यदि अनियंत्रित खाद्य शैली, भाग-दौड़ और तनावग्रस्त जीवन में हम अपने शरीर को ढाल लेते हैं और शरीर बीमारियों की चपेट में आता है तो कसूरवार हम खुद हैं। दुर्भाग्यवश हमारे चिकित्सक लोग रोगों के लक्षणों को ठीक कर सकते हैं किंतु रोगों के कारणों को नहीं क्योंकि उन्हें शायद रोगकारकों के बजाए रोग लक्षणों की शिक्षा ज्यादा दी जाती है।
(लेखक हर्बल विषयों के जानकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)