सातवां वेतनमान लागू होगा, म‍ह‍ंगाई सब बराबर कर देगी

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सातवां वेतनमान लागू होगा, म‍ह‍ंगाई सब बराबर कर देगीgaonconnection

सातवें वेतन आयोग के लागू हो जाने के बावजूद केंद्रीय कर्मचारी हड़ताल पर जाने की तैयारी कर रहे हैं। ये कर्मचारी अपने अलावा समाज के दूसरे वर्गों के विषय में सोचते ही नहीं हैं। इनका न्यूनतम वेतन सात हजार से 18 हजार हो गया है। इस हिसाब से देखें तो किसान का एक किलो गेहूं जो 14 रुपए में बिक रहा है वो 35 रुपए में बिकना चाहिए। क्या ये कर्मचारी इसे स्वीकार करेंगे?

उन्हें कोई मतलब नहीं कि महंगाई कितनी बढ़ेगी, शेयर बाजार का क्या हो रहा है या रुपए की कीमत कहां जा रही है। इन्दिरा गांधी ने देश के 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था उनमें ना जाने कितनी बार हड़तालें हो चुकी हैं और ना जाने कितने हजार या लाख करोड़ रुपए का नुकसान इस गरीब देश का हो चुका है। 

सरकारी कर्मचारी हर साल हड़ताल पर जाते हैं या कलमबन्द करके देश को अरबों रुपए का नुकसान पहुंचाते हैं। डॉक्टरों से इलाज कराने बड़ी उम्मीद लेकर लोग आते हैं। उन्हें भर्ती किया जाता हैं और भगवान के बाद का दर्जा रखने वाले डॉक्टर हड़ताल पर चले जाते हैं। अनेक मरीज मर जाते हैं। इस देश में अध्यापक को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के बराबर माना जाता था। आज के अध्यापक मजदूरों की तरह यूनियन बनाकर हड़ताल करेंगे तो मजदूरों वाला सम्मान मिलेगा। जब अध्यापक को ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहा गया था तो विश्वास मानिए वे कभी हड़ताल नहीं करते थे। कहां ईश्वर से भी बड़ा स्थान था और कहां मजदूरों की कतार में खड़े हैं। 

कानून व्यवस्था के रखवाले पुलिस और पीएसी के लोग हड़तालें करते हैं लेकिन जरा सोचिए यदि सेना के जवान हड़ताल पर चले जाएं तो देश का क्या होगा। देश को गुलाम होने में देर नहीं लगेगी। शायद इसीलिए पुलिस की वर्दी का सम्मान भी चला गया और जगह-जगह वे पिट रहे हैं। अपनी रक्षा नहीं कर पाते तो समाज की रक्षा क्या करेंगे।

हड़तालें आमतौर से वेतन बढ़ाने या वेतन विसंगतियां दूर करने के लिए होती हैं और नारा होता है ‘‘चाहे जो मजबूरी हो मांग हमारी पूरी हो”। दूसरे देशों में भी हड़तालें होती हैं, पता नहीं उनका क्या नारा होता है। रोचक बात यह है कि पूंजीवादी देशों में हड़तालें कम होती हैं और शायद साम्यवादी देशों में भी। मूल्य सूचकांक बढ़ने से डीए बढ़ाने की मांग उठती है। यदि सरकार मूल्य सूचकांक घटाती है तो क्या कर्मचारी डीए घटाने के पक्ष में होंगे?

हमारी मिलीजुली अर्थव्यवस्था में ना तो पूंजीवादी उत्पादन पर आग्रह था और ना ही साम्यवादी कड़ा अनुशासन। हम उत्पादन और वितरण में सामंजस्य नहीं बिठा सके। मजदूर संगठनों ने जोर दिया वितरण पर और नारा हुआ ‘धन और धरती बंट के रहेगी’। उत्पादन पिछड़ गया। कम से कम अनुशासित और सम्मानित वर्गों को हड़ताल करनी ही न पड़े ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।

क्या कारण है कि सरकारी प्रतिष्ठानों में खूब हड़तालें होती हैं और प्राइवेट में बहुत कम। तो क्या उद्यम और व्यापार का निजीकरण कर देना चाहिए क्योंकि जब सरकारी बैंकों में हड़ताल हुई तो प्राइवेट बैंक खुले थे। हड़तालें घटाने का एक उपाय जॅाब सिक्योरिटी यानी नौकरी की जमीदारी की धारणा से छुटकारा पाना है। अमेरिका जैसे देशों ने कॉन्ट्रैक्ट आधार पर नौकरियां देनी आरम्भ की है। कॉन्ट्रैक्ट की अवधि में सन्तेाषजनक काम होने पर ही नौकरी का नवीकरण होता है।

हड़तालों का एक और कारण है केन्द्र और राज्यों के वेतनमानों में विसंगति और अलग-अलग विभागों में अलग-अलग वेतनमान। पहले सैकड़ों की संख्या में वेतनमान थे जो अब काफी घटे हैं। अच्छा हो यदि केवल एक ही वेतनमान हो और उसी में योग्यता, क्षमता और अनुभव के आधार पर कर्मचारियों की नियुक्ति समायोजित हो। इसे हम राष्ट्रीय वेतनमान की संज्ञा दे सकते हैं। शिक्षा, उद्योग और व्यापार में लगे लोगों के वेतनमानों में समरूपता हो तभी उच्च शिक्षा में होने वाला शोध उद्योग तक और उद्योग का अनुभव शिक्षा तक पहुंच सकेगा।

 

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