किसान मुक्ति यात्रा और एक फोटोग्राफर की डायरी (भाग-2)  

मंदसौर फायरिंग की पहली बरसी पर हम पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं किसान मुक्ति यात्रा में शामिल वरिष्ठ पत्रकार प्रभात सिंह की डायरी । 2017 में जंतर-मंतर पर तमिलनाडु के किसानों के प्रदर्शन और मंदसौर कांड के बाद शुरु हुई किसान मुक्ति यात्रा, जो मध्यप्रदेश समेत 7 राज्यों से होकर गई। इस यात्रा में देश के कई राज्यों के 130 किसान संगठन और चिंतक शामिल हुए। किसानों की दशा और दिशा को समझने के लिए प्रभात सिंह इस यात्रा में शामिल हुए। एक फोटोग्राफर और पत्रकार के रुप में उनकी डायरी का भाग-2

Prabhat SinghPrabhat Singh   7 Jun 2018 5:18 AM GMT

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किसान मुक्ति यात्रा और एक फोटोग्राफर की डायरी  (भाग-2)  मध्य प्रदेश में मंदसाैर से शुरू हुई किसान मुक्ति यात्रा पर रिपोर्ट पढ़िए। 

पहला भाग यहां पढ़ें-किसान मुक्ति यात्रा और एक फोटोग्राफर की डायरी (भाग-1)

सुबह की सिहरन और गिरफ्तारी की तैयारी

पौ फटने से पहले का उजाला और घर-बाहर के कामकाज की शुरुआत की वजह से गांव में सवेरा यों भी जल्दी हो जाता है। मगर उजाले से भी पहले सिहरन की वजह से मेरी आंख खुल गई. तमाम लोगों ने सिरहाने की रज़ाई या फिर बिछावन की चादर निकालकर ओढ़ रखी थी। कुछ बड़ी उम्र वाले तब तक फ़ारिग होकर नहा-वहा भी चुके थे। यह मेरा अगला इम्तहान था। सामूहिक नित्यकर्म का यह तर्जुबा भी गांवों की बारात तक महदूद रहा है और अब तक स्मृति में धुंधला भी चुका था।

नई-नई सोहबत थी सो बहुत लोगों से वाकफ़ियत भी नहीं थी। परिचित चेहरे तलाशने लगा तो वे नदारद। रात को सोने से पहले वीएम सिंह, योगेंद्र यादव, राजू शेट्टी, रामपाल जाट और कार्यसमिति वाले नेता सुबह की रणनीति पर बात करने कहीं और गए थे। मुझे मालूम न था कि सोने के लिए वे कहां गए ? नीचे उतरा तो वीरेंद्र मिल गए। वीरेंद्र खेतिहर हैं, मवाना के पास किसी गांव के हैं। आंदोलन के मौकों पर वीएम भाई के साथ ही रहते हैं। इस बार यात्रा पर निकलने से पहले बीमार थे। डॉक्टर उन्हें ग्लूकोज़ चढ़ा रहे थे और वे ज़िद पर अड़े थे कि यह सब हटाओ, किसान यात्रा पर जाना है। उन्हें भरोसा था कि रास्ते में वह ठीक हो जाएंगे।

जेब में रखे बीकासूल और पार्ले जी के पैकेट उनके इस भरोसे को मज़बूती देते थे। ख़ुद के लिए कैप्सूल और वीएम सिंह के लिए सुबह-सुबह गर्म पानी और रास्ते में मुनक्का, काली मिर्च और लौंग वह मुस्तैदी से जुटाते रहे ताकि उनका गला दुरुस्त रहे। तो वीरेंद्र ने बताया कि जिन चेहरों को मैं तलाश रहा हूं, वे सब तो रात को धर्मशाला लौटे ही नहीं।

थोड़ी देर में किसी ने आकर बताया कि वीएम सिंह ने बुलवाया है। अपना साजो सामान लेकर मैं पीछे-पीछे चल पड़ा। धर्मशाला के पीछे के गेट से निकलकर गलियों में दायें-बायें घूमकर हम एक घर के सामने रुके। सामने दालान के बाद पुराने ढब का दरवाज़ा। अंदर पहुंचे तो सामने ही बड़ा अहाता, जहां लहसुन के तमाम बोरे रखे थे। पार्श्व में एक ट्रैक्टर, दो गाय, बछिया और टीन शेड में भरा उनका चारा। हम दाईं ओर बनी बैठक में दाख़िल हुए। यह सुरेश पाटीदार का घर है। कल के पुलिस के रवैये को देखकर गांव के लोगों को लगा कि कहीं पुलिस इन नेताओं को रात में ही गिरफ्तार न करने पहुंच जाए तो सबको उन्होंने गांव के अलग-अलग घरों में ठहराने का तय किया। वीएम सिंह यहां मेहमान थे। बैठक में दो सॉकेट थे और ख़ाली थे। सुरेश के बेटे नितिन से चार्जर मांगकर मैंने सबसे पहले फोन का बन्दोबस्त किया। फिर नहाने-धोने का क्रम।

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लौटा तो सुरेश ने ज़ोर देकर इसरार किया कि हम नाश्ता करके ही जाएं। गांव में सवेरे नाश्ता आमतौर पर खाने के बराबर ही होता है। उनकी मां और पत्नी रसोई में जुटे थे। बैठक की आलमारी में किताबें दिखीं तो जिज्ञासावश उधर चला गया। प्रेमचंद, डेल कार्नेगी, शिव खेड़ा, देवदत्त पटनायक सजे थे। कुछ अचकचा गया संग्रह के संयोजन पर। नितिन ने बताया कि ये उनकी किताबें हैं। ग्रेजुएशन के बाद अब वह दिल्ली में रहकर सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे हैं। प्रेमचंद की सर्वकालिकता और सार्वभौमिकता को लेकर मुझे कभी कोई संदेह नहीं रहा है। मगर बाकी क्यों? मगर वह समय इस किस्म के जवाब ढूंढने का नहीं था।

सुरेश की मोटरसाइकिल मांगकर मैं बाज़ार में सुबह की गतिविधि देखने निकल पड़ा। अभी आठ नहीं बजे थे मगर चौराहे की नाश्त-चाय वाली दुकानों पर आवाजाही शुरू हो चुकी थी। भट्ठियों के दिन लद गए हैं, सो गैस चूल्हे की आंच पर बर्तन चढ़े थे। चाय बनाने को कहा और पोहा लेकर बैठा ही था कि वीरेंद्र दिखाई पड़ गए। बड़ी मुश्किल से उन्हें पोहा चखने के लिए राज़ी कर सका। जाने क्यों बिना खाए ही पोहा उन्हें अपने खाने लायक खाद्य नहीं लग रहा था? थोड़ा लंबा चक्कर लगाकर लौटा तो सुरेश के घर नाश्ता तैयार था। दाल, सब्ज़ी, रोटी, चावल, प्याज़, अचार, सेव, बेसन पापड़ी और गुड़ भी। हमारे लिए दरअसल वह दोपहर का भोजन था। पिता-पुत्र ने बड़े नेह से खिलाया, हाथ धोने के लिए हमारे उठने से पहले ही एक पात्र लेकर आ गए, हालांकि हम सारे उठकर बेसिन तक गए।

सुरेश ने अपना घर दिखाया। गाय-बैलों के बारे में बताया कि हर घर में मिलेंगे। बताया कि लहसुन का बाज़ार भाव फिलहाल 25-30 रुपये किलो है। वह बता रहे थे और मैं सोच रहा था कि नोएडा वाले इस भाव में पाव भर लहसुन खरीदते हैं। दो साल पहले तक सोयाबीन साढ़े चार-पांच हज़ार रुपये क्विंटल तक बिका मगर अब भाव दो हज़ार-बाइस सौ रह गया है। तमाम किसान इस भाव बेचने के बजाय इस उम्मीद में सोयाबीन घर में ही रखे हुए हैं कि शायद लागत से ज्यादा से दाम मिल सके ताकि उनकी मेहनत वसूल हो। मध्य प्रदेश सरकार ने वायदा किया कि अफ़ीम उगाने वाले अब पॉपी का चूरा नहीं बेचने पाएंगे, इसलिए उन्हें अफीम की कीमत पांच से सात हज़ार रुपये किलो मिलेगी। फिलहाल अफीम की क्वालिटी के मुताबिक सरकार 1200-1700 रुपये में खरीदती है। किसानों को वायदे पर अमल का इंतज़ार है।

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हम चलने को हुए तो सुरेश की पत्नी और मां भी विदा करने दरवाज़े तक आ गए। हमने हाथ जोड़े तो उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा कि उनका घर धन्य हो गया। ज़ाहिर है कि श्रद्धा की यह अभिव्यक्ति किसानों के नेता होने के नाते वीएम सिंह के प्रति थी मगर उनके साथ खड़े होने के नाते हमें भी इसका पात्र माना गया। इस सादगी पर ज़ाहिर है कि श्रद्धावनत होने के सिवाय मैं और कुछ नहीं कर सकता था। उनके पिता बाहर मिल गए। बाहर निकलकर हम जल्दी-जल्दी धर्मशाला की ओर लपके। यात्रा के लिए लोग जुटने लगे थे, महिला-पुरुष, बुज़ुर्ग-नौजवान। पुलिस की गोली से मारे गए जवान किसान इस गांव के नहीं मगर आसपास के ही थे। उनमें से एक की रिश्तेदारी भी बूढ़ा में थी। गांव के लोगों में इसे लेकर दुख और क्षोभ दोनों थे। उन्हें उम्मीद थी कि किसान यात्रा उनकी माली हैसियत बेहतर बनाने के अलावा शहीदों के परिवारों को न्याय दिलाने में ज़रूर कारगर होगी।

धर्मशाला में अंदर गहमागहमी थी। कुछ लोगों नाश्ते में जुटे थे तो कुछ तैयारियों में। स्वराज अभियान से जुड़े कुछ युवा अख़बार में लिपटे हल और कलश खोल रहे थे तो कुछ लोग उन्हें लेकर मोबाइल से फोटो उतारने में मग्न थे। हरे रंग में रंगे हल की प्रतिकृति के साथ जो कलश हैं, उनमें मारे गए किसानों के गांव की मिट्टी लेकर दिल्ली लौटने का प्रस्ताव योगेंद्र यादव का है। मीडिया स्वराज अभियान की टीम कल ही पहुंच गई थी।

कल शाम जिस युवती को ट्राईपॉड पर कैमरा लेकर वीडियो बनाते हुए देखकर मैं मंदसौर का मीडिया प्रतिनिधि समझ रहा था, वह रश्मि हैं। बाद में मालूम हुआ कि वह कर्नाटक में रैयत संघ के साथ काम करती रही हैं और किसान मुक्ति यात्रा डॉक्युमेंट कर रही हैं। उनके अलावा तीन-चार युवक और हैं, जो टेबलेट से लाइव वीडियो भी कर रहे हैं। हिन्दी-अंग्रेज़ी में प्रेस रिलीज़ बनाते और देश भर के मीडिया हाउस को मेल करते। कुछ लोग बाहर खड़े बात करे थे तो कुछ शेतकारी संगठन की बस को बैकग्राउण्ड में रखकर अपनी फोटो उतार या उतरवा रहे थे। यह बस किसान मुक्ति यात्रा के मकसद और संदेश वाले भव्य रंगीन स्टीकर से ढंकी है।

अनुभवी और बुज़ुर्ग सेल्फी वाली इस जमात से अलग आगत के बारे में अंदाज़ लगा रहे थे। अगर गिरफ्तारी की नौबत आई तो क्या करना है। यह तो तय है कि पुलिस उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए पिपलिया नहीं जाने देगी। छोड़ा तो जाने कहां ले जाकर छोड़ दे। कैसे हो कि पहले से तय आगे के कार्यक्रम प्रभावित न हों। उधर तिराहे पर भीड़ बढ़ने लगी है। सारे नेता भी वहीं चले गए हैं। पुलिस थोड़ी दूर है मगर चाक-चौबंद, दो-एक पुलिस वाले अपने मोबाइल से जुलूस का वीडियो बना रहे थे, बतौर सबूत।

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मैं जब वहां पहुंचा तो योगेंद्र व्यवस्था बनाने में लगे थे। उनके हाथ में माइक्रोफोन था और वे महिलाओं को आगे आने और बाक़ी लोगों से उनके लिए जगह बनाने की अपील कर रहे थे। वहां पता चला कि मेधा पाटकर आने वाली हैं। व्यवस्था बनाकर हल और कलश थाने नेताओं की अगुवाई में यात्रा शुरू हुई। यहां से बाज़ार तक रास्ता थोड़ा तंग है सो हरे झंडे लिए मोटरसाइकिल वाले थोड़ा आगे निकल गए। अभी चौराहे तक पहुंचे थे कि लाल झंडे लिए कुछ लोग भी सामने से आकर शरीक हो गए। आगे बढ़कर देखा तो सुभाषिनी अली थीं, सीपीआईएम के कुछ स्थानीय कर्ताधर्ता भी। दिल्ली से आते वक़्त रास्ते में इस यात्रा की जितनी रूपरेखा मैंने समझी थी, उसमें मेधा ताई या सुभाषिनी अली का कोई ज़िक्र न था.। मगर अब इसे समझने में मेरी बहुत दिलचस्पी भी नहीं थी.

बारिशों के बाद का साफ आसमान। नतीजा तेज धूप और बला की गर्मी। बाज़ार और बस्ती से निकलकर जुलूस बाहर आ गया। दोनों ओर खेतों में सोयाबीन के पौधों की हरियाली, कहीं-कहीं ख़ूब बड़ी गोलाई वाले कुएं। मोटर साइकिलों के अलावा पैदल लोगों का जत्था और पीछे मोटर कारें। इक्का-दुक्का खेतों में जहां कहीं भी कोई काम करता दिखाई दिया, युवकों ने उन्हें ललकारा- शर्म करो, शर्म करो। बुजुर्गों ने हाथ हिलाकर साथ आने का न्योता दिया। 'जब तक दुखी किसान रहेगा...', 'इन्कलाब ज़िदाबाद' वाले नारों के साथ लोग आगे बढ़ते गए।

रास्ते में जहां बस्तियां थीं, लोगों ने पानी-गुड़ का इन्तज़ाम कर रखा था। लोग रुककर पानी पीते, नेता लोगों से मिलते। वीएम, योगेंद्र, मेधा ताई, राजू शेट्टी, रामपाल जाट वगैरह मोटरसाइकिलों पर पीछे बैठे थे। सिर्फ़ सुभाषिनी अली कार में थीं। थोड़ी देर पहले मेरे हाथ में छाता देखकर उन्होंने टोका था, 'आज बारिश नहीं होगी।' मैं उन्हें कैसे समझाता कि पिछली शाम किसी के धक्के से मेरा एक लेंस हाथ से छूकर गिर गया था।

दूसरे के भीगने का जोख़िम मैं नहीं ले सकता था। गाड़ी में साथ बैठे पार्टी के जिलाध्यक्ष से बतियाते हुए उन्होंने ड्राइवर हरीश से पूछा, 'यह गाड़ी किसकी है?' हरीश के जवाब पर उनका सवाल आया, 'कौन वी.एम. सिंह?' हरीश उन्हें दिल्ली के हवाले से और उनके हुलिये से समझाने की कोशिश कर रहा था और मैं थोड़ा हैरान था. यानी वह यात्रा में शरीक ज़रूर हैं मगर यात्रा के संयोजक से नावाक़िफ हैं। दिल्ली से इतनी दूर किसके आमंत्रण पर आई होंगी? शायद योगेंद्र यादव के। मेधा पाटकर को मोटरसाइकिल पर सवार होते देखकर किसी ने सुझाया कि उन्हें गाड़ी में बुला लेते हैं। प्रतिक्रिया आई, 'रहने दो। ताई जानबूझकर मोटरसाइकिल पर चल रही हैं।' इस प्रतिक्रिया के निहितार्थ को समझते हुए मैं गाड़ी से उतर लिया और पैदल ही आगे बढ़ा। पास से गुज़रते दो युवकों ने मोटर साइकिल रोक दी और उसमें से एक ने उतरकर मुझसे बैठने को कहा। मैं उनके साथ हो लिया।

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किसानों का धरना और बबूल की छांव

हम लोग अभी थोड़ा पीछे ही थे, जब सामने गुड़ भेली गांव के पहले पुलिस वालों की भीड़ दिखाई दी। तमाम बैरिकेड्स लग गए थे। हेलमेट और गार्ड, हाथ में लाठियां और बंदूकें भी। बख़्तरबंद वरुण और फायर ब्रिगेड की गाड़ियों के साथ ही नीली लारियां और जीपें रास्ता रोककर खड़ी थीं। दाईं ओर बसों की एक क़तार थी। जुलूस के नारे थम गए मगर शोर बढ़ गया। आगे चल रहे नेताओं ने सबसे सड़क पर धरना देने की अपील की।

शोर के बीच आगे वाले लोग धीरे-धीरे बैठने लगे। सबसे आगे महिलाओं का जत्था था, पीछे पुरुष. मोटर पर लगे स्पीकर का माइक नेताओं ने थाम लिया और एक-एक करके भाषण का क्रम शुरू हुआ। इतने में स्वराज अभियान की टीम के लोग मंदसौर में मारे गए छह किसानों की तस्वीर लेकर आ गए। तय किया गया कि उनकी शहादत को श्रद्धांजलि देने का कार्यक्रम अब वहीं होगा। अब तक मंदसौर और भोपाल के मीडिया के लोग भी जुट गए थे। सामने की ओर कैमरे, स्टिक में कसे मोबाइल, टेबलेट, ट्राइपॉड पर विराजे भारी-भरकम वीडियो कैमरों की भीड़ इस क़दर थी कि दाएं-बाएं बैठे लोग अपने उन नेताओं को देख नहीं पा रहे थे, जिन्हें वे सुन रहे थे।

ऐसे मौक़ों पर मीडिया का ऐसा प्रताप देखकर मन में कई बार भरोसा जगता है कि क्रांति अब बस आके रहेगी। उल्टी कैप लगाए केबिल संभाल रहे कैमरामैन के इर्दगिर्द माइक लेकर बड़ी ठसक से चलते रिपोर्टरों में से कुछ पीछे की तरफ जाकर नेताओं की बाइट लेने के लिए उन्हें बुला रहे थे। प्रिंट वाले इस मायने में थोड़े ख़ुशनसीब थे। उन्हें भीड़ में या नेताओं के क़रीब खड़े रहने की बंदिश न थी सो वे पुलिस की बड़ी गाड़ियों की छांव में खड़े सिगरेट फूंक रहे थे या फिर अफसरों से परिचय का रीन्यूअल करने में मुब्तला थे।

अख़बारों के फोटोग्राफर बड़ी गाड़ियों की छत पर सवार होकर वाइड एंगिल शॉट बना रहे थे। एक सज्जन जिस बैरिकेडिंग पर चढ़े थे, उस पर निगाह गई। लिखा था- 'म.प्र. पुलिस हार्दिक अभिनंदन'। अभिनंदन का यह सलीका वाक़ई क़ाबिले ग़ौर है कि आप माइक लगाकर ज़ोर-शोर से जिस पुलिस को कोस रहे हों, वह किसिम-किसिम की बंदूकें थामे सिर्फ सुन रही हो। कुछ लोग सड़क के किनारे पेड़ों के नीचे खड़े धूप से बचने की कोशिश कर रहे थे। बबूल के पेड़ जितनी छांव दे सकते हैं, वहां भी दे रहे थे। एकाध के कुर्ते और कुछ के पांव में बबूल की निशानियां दर्ज़ हुईं। यह देखकर कुछ नीचे की ओर सोयाबीन के खेत में जा बैठे।

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घंटे भर से ज्यादा हो गया था मगर नेताओं को कोई जल्दी नहीं थी। वे बार-बार कह रहे थे कि सारे नेता अपनी पूरी बात कहने के बाद ही गिरफ्तारी देंगे। अब तक धूप का असर होने लगा था। लोगों को प्यास लगने लगी तो आसपास देखा। साहबों के अर्दली गाड़ी से मिनरल वॉटर की बोतलें निकाल लाए थे मगर बाक़ी की निगाह पास के घर पर पड़ी, जहां बाहर की तरफ हैंडपम्प भी था। गृहस्वामी ने दो-तीन वॉटरजग भरकर बाहर की तरफ एक दीवार पर रख दिए थे, दो लोटे भी। उधर भीड़ काफी हो गई तो लोग हैंडपम्प पर चले गए। उस घर के बच्चे बारी-बारी से नल चला रहे थे ताकि पीने वालों को ज़हमत न हो। उन लोगों के हौसले की वाकई दाद देनी चाहिए जो धूप में पूरे धीरज से धरने पर थे, ख़ासतौर पर महिलाएं।

नीचे तपती सड़क थी और ऊपर आसमान मगर मजाल है कि महिलाओं में से कोई वहां से हटा हो। पीछे की ओर खड़े अख़बारनवीसों में बढ़ती हलचल देखकर समझ आ गया कि सभा अब पूरी होने को है। पुलिस वाले भी अचानक सक्रिय हो उठे। बैरिकेडिंग के पीछे की तरफ से वीएम सिंह आते दिखाई दिए और उनके साथ चल रहा किसानों का एक जत्था सबसे क़रीब वाली बस की तरफ बढ़ा। बहुतों ने तिरंगी टोपी लगा रखी थी, जिन पर लिखा था, 'गर्व से कहो मैं किसान हूं'। मुट्ठियां हवा में लहराते पूरे जोश से नारे लगाते हुए वे बस में चढ़ने लगे। एक पुलिस वाला दफ्ती में काग़ज़ दबाए, कलम लिए बस की ओर दौड़ा। उसके ज़िम्मे गिरफ्तारी देने वालों के नाम दर्ज़ करने का काम था। मगर भीड़ का जोश औऱ गति देखते हुए यह मुमकिन नहीं था। सो उसके अफसर ने रोका और लिखा पढ़ी का काम बाद में करने का मशविरा देते हुए बस आगे बढ़वाने को कहा।

तभी मेधा ताई की अगुवाई में महिलाओं का जत्था आता दिखा। पुलिस वालों के ज़िम्मे गिरफ्तारी देने वालों को बस में बैठाने से भी पहले मीडिया की भीड़ से पार पाने का अतिरिक्त काम भी था।धक्का-मुक्की से बचाते हुए वे मेधा पाटकर और बाक़ी की महिलाओं को बस तक ले आए। यह बस चलती कि पीछे से बाक़ी के नेता भी आने लगे और उनके साथ नारे लगाती भीड़। दस्तूर है कि बस की खिड़की या पुलिस वैन की जाली के पार से गिरफ्तार नेताओं की बाइट ली जानी चाहिए, तो यहां भी मीडिया पूरे अनुशासन से इस परंपरा को निभाने में जुटा था।

ये वही सारे नेता थे, जो थोड़ी देर पहले जनसभा में बोल रहे थे बस में बैठने तक ऐसा नया क्या घट गया होगा, जिसे मीडिया इतने महत्व का मान रहा है। मीडिया की इस सारी मुस्तैदी और फुर्ती का पता अगले रोज़ के अख़बारों से पता चला। कुछ टीवी चैनल्स पर एकाध मिनट की ख़बर दिखी, जिसमें हाईकोर्ट के निर्देश और सूबे की सरकार के मंत्री का बयान भी शामिल था। सुबह के अख़बारों में छपी ख़बर का शीर्षक था- मेधा-योगेंद्र गिरफ्तार। इसी में मंदसौर मामले पर मध्य प्रदेश कांग्रेस के आंदोलन की ख़बर भी शामिल थी मगर वीएम सिंह और राजू शेट्टी का कहीं ज़िक्र भी नहीं था।

         

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