शिक्षामित्रों की नियुक्ति एक जुगाड़ था, नहीं चला

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शिक्षामित्रों की नियुक्ति एक जुगाड़ था, नहीं चलाकोई रजिस्ट्रेशन नहीं, चालक को प्रशिक्षण नहीं और वाहन का बीमा भी नहीं।

हम सब ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जुगाड़ से बने वाहन और ट्रैक्टर देखे हैं। कोई रजिस्ट्रेशन नहीं, चालक को प्रशिक्षण नहीं और वाहन का बीमा भी नहीं। इसी तरह अस्पतालों में डॉक्टर न आए तो नर्सें और वार्ड ब्वाय अक्सर डाॅक्टर का काम करते हैं और रखवाली के लिए बैंक, कारखाना, के सामने बिना प्रशिक्षण और बिना अस्त्र के सुरक्षा एजेंसी से लेकर सिपाही खड़े कर दिए जाते हैं और खेतों की रखवाली के लिए तो किसान बजूका यानी धोखा खड़ा कर देते हैं। यह सब जुगाड़ है।

सर्वशिक्षा के नाम से शिक्षा विभाग के पास अचानक इतना पैसा आ गया कि अधिकारियों की लाटरी खुल गई। हजारों स्कूलों के भवन बनाना और लाखों अध्यापकों की नियुक्ति करना था। स्कूल भवन तो हर गाँव में तेजी से बनवाए गए लेकिन अध्यापक तो इतनी जल्दी तैयार नहीं हो सकते थे। इसलिए जिला स्तर पर बेसिक शिक्षा अधिकारियों ने शिक्षकों का जुगाड़ लगाया और पौने दो लाख अप्रशिक्षित और कम शिक्षित बेरोजगारों की नियुक्ति शिक्षामित्र के रूप में कर दी। अधिकांश नियुक्तिकर्ता थे अनपढ़ प्रधान जिन्होंने अपने सगे सम्बन्धियों को शिक्षा मित्र चुनकर प्रधानाध्यापकों को सौंप दिया और हो गया अध्यापकों का जुगाड़।

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अनेक बार बेहतर शिक्षित बेरोजगारों को या तो पता ही नहीं चला और यदि आवेदन दिए तो पावती नहीं दी गई। अदालत गए तो कहा गया कि इनका आवेदन मिला ही नहीं। इस प्रकार चुने गए शिक्षामित्रों की नियुक्ति संविदा पर ग्यारह महीने के लिए होनी थी, हर साल नए सिरे से पंचायत में डुग्गी पिटवाकर चुना जाना था, फिर से केवल ग्यारह महीने के लिए। लेकिन नेताओं को शिक्षा मित्रों का वोट बैंक दिखने लगा तो ग्यारह महीने का प्रतिबंध हटाया, उन्हें अध्यापक के रूप में समायोजित करने की कवायद शुरू कर दी। बसपा सरकार ने उनके लिए 10 प्रतिशत का आरक्षण निर्धारित किया यदि टीईटी पास और बीएड डिग्रीधारक हों। लेकिन अगली समाजवादी सरकार ने सबको समायोजित करने का आदेश निकाल दिया।

इस प्रक्रिया में घरों में बैठे शिक्षित बेरोजगारों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ और समान अवसर के संवैधानिक अधिकार को भी धता बता दिया गया दुखद यह रहा कि अनेक शिक्षामित्रों को सही हिन्दी लिखना भी नहीं आता था। जो भी हो, उस समय की सरकार ने शिक्षामित्रों को सहायक अध्यापकों के रूप में समायोजित करने का आदेश निकाल दिया। कुछ लोग उच्च न्यायालय गए और इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने समायोजन को निरस्त कर दिया। शिक्षामित्र आन्दोलित हुए तो सरकार उच्चतम न्यायालय गई और स्टे लेकर जुगाड़ चलता रहा। अन्तत: उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को सही पाया। अब एक बार फिर आन्दोलन की राह पर हैं शिक्षामित्र।

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अब वर्तमान प्रदेश सरकार के पास सीमित विकल्प हैं। यदि अदालत के आदेश के बावजूद शिक्षामित्रों को वेतन देती रहती है तो आर्थिक बोझ के साथ ही न्यायालय की अवमानना होगी। उच्चतम न्यायालय ने एक विकल्प दिया है कि शिक्षा मित्रों को उनके पुराने पदों पर बहाल कर सकती है सरकार। मौजूदा हालत में उनके पास कोई पद और वेतन नहीं बचा। शिक्षामित्रों का प्रतिनिधिमंडल जब मुख्यमंत्री योगी से मिला तो कोई स्पष्ट आश्वासन तो नहीं मिला लेकिन उन्होंने बीच का रास्ता निकालने के लिए समय मांगा है।

सच यह है कि शिक्षामित्र मामूली वेतन पर अपने पदों पर शान्ति से काम कर रहे थे और सन्तुष्ट थे। खैरात बांटने वाली सरकार ने नियमितीकरण का लोभ दिखाकर उनका विश्वास जीता और हुकूमत भी। लेकिन विवाद का विषय बना संविदा पर नियुक्त और पद के लिए अनर्थ शिक्षामित्रों का सहायक अध्यापकों के रूप पें समायोजन। उच्चतम न्यायालय के निर्णय को निष्प्रभावी किया जा सकता है जैसे शाह बानो प्रकरण में राजीव गांधी ने किया था। यह काम केन्द्र सरकार को करना होगा और मैं नहीं समझता प्रधानमंत्री मोदी ऐसा कुछ करना चाहेंगे।

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एक न्यायोचित विकल्प जो बहुत पहले अजमाना चाहिए था अब भी लागू हो सकता है। आज की तारीख में पौने दो लाख शिक्षा मित्र स्कूलों का बहिष्कार कर रहे हैं और हजारों की संख्या में स्कूलों की पढ़ाई दुष्प्रभावित हो रही है। जरूरी है कि अविलम्ब शिक्षकों की भर्तियां आरम्भ की जानी चाहिए और यदि अर्ह शिक्षा मित्र आवेदन करें तो उन्हें वरीयता मिलनी चाहिए।

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