आधुनिक व परंपरागत औषधि ज्ञान में ज्यादा असरदार क्या?

Deepak AcharyaDeepak Acharya   31 Jan 2017 6:39 PM GMT

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आधुनिक व परंपरागत औषधि ज्ञान में ज्यादा असरदार क्या?विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रपट के अनुसार विकासशील देशों के 80 से अधिक प्रतिशत लोग आज भी प्राकृतिक और हर्बल चिकित्सा के द्वारा अपने रोगों का निवारण करते है।

कौन सा विज्ञान ज्यादा असरकारक और प्रचलित है, आधुनिक औषधि विज्ञान या परंपरागत हर्बल औषधि ज्ञान? अक्सर ये विवाद और बहस का मुद्दा हो सकता है। हालिया जयपुर यात्रा के दौरान ट्रेन में इन दोनों विज्ञान के जानकारों की बहस सुनकर सहज उनके करीब जा पहुंचा और ध्यान से बहस को सुनता रहा।

आधुनिक औषधि विज्ञान के प्रतिनिधि महोदय विज्ञान की इस शाखा को महत्व देते हुए बखान कर रहे थे कि लोग आज भी झोलाछाप चिकित्सकों और गाँव-देहाती ज्ञान को अपनाकर समस्याओं को गले लगा लेते हैं। लगातार विरोधाभास होने पर हर्बल विज्ञान की पैरवी करने वाले महोदय ने बहस को तूल देते हुए जानकारी दी कि किस तरह आधुनिक विज्ञान की दवाओं के नकारात्मक असर के चलते उनके शरीर पर काले धब्बे बन गए और अब वे हर्बल औषधियों के उपयोग के बाद बेहतर महसूस कर रहे हैं।

एक तीर इस तरफ से चलता तो दूसरा उस तरफ से, यह दौर चलता रहा। कभी किसी एक ने दूसरे से सवाल किया कि हाथ-पैर की हड्डियों के टूटने पर वो किस तरफ इलाज के लिए जाएंगे तो जवाब में यह सवाल आया कि क्या आपके पास पीलिया या बवासीर का इलाज है? आपका विज्ञान इतना आधुनिक है तो क्यों नहीं अब तक इन रोगों का समाधान आया? बहस जोरदार चलती रही। इस तरह की बहस अक्सर सुनने में आती है और सच्चाई भी यही है कि बहस होना जायज है। दरअसल औषधि विज्ञान की इन दोनों शाखाओं में मरीजों को परोसने बहुत कुछ है और सवाल यह महत्वपूर्ण नहीं कि कौन सा विज्ञान अति महत्वपूर्ण है। मेरे खयाल से सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कौन से औषधि विज्ञान से मरीज ठीक हो रहा है, रोगमुक्त हो रहा है। औषधि विज्ञान की इन दोनों शाखाओं में एक महत्वपूर्ण संबंध है, संबंध भी परंपरागत है।

सदियों से पौधों को मनुष्य ने अपने रोगनिवारण के लिए उपयोग में लाया है और विज्ञान ने समय-समय पर इन पौधों पर शोध करके उसे आधुनिकता का जामा भी पहनाया है। चलिए आज जानते हैं परंपरागत हर्बल ज्ञान पर आधारित आधुनिक औषधि विज्ञान के बारे में और कोशिश की जाए कि दोनों तरह के औषधि विज्ञान की महत्ता को समझा जाए।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रपट के अनुसार विकासशील देशों के 80 से अधिक प्रतिशत लोग आज भी प्राकृतिक और हर्बल चिकित्सा के द्वारा अपने रोगों का निवारण करते है। दुनिया के इतने बड़े तबके के द्वारा हर्बल औषधियों को अपनाया जाना अपने आप में एक प्रमाण है कि ये दवाएं काफी कारगर हैं। मजे की बात तो ये भी है कि अब विकसित देशों में भी हर्बल ज्ञान पैर पसारना शुरू कर दिया है, और उसकी वजह यह है कि इस ज्ञान पर विज्ञान का ठप्पा लगना शुरु हो गया है। सच्चाई भी यही है कि आधुनिक औषधि विज्ञान को भी दिन-प्रतिदिन नई दवाओं की जरूरत है। आधुनिक औषधि विज्ञान को एक नई दवा को बाजार में लाने में 15 से अधिक साल और करोड़ों रुपयों की लागत लग जाती है और अब विज्ञान की इस शाखा को पारंपरिक हर्बल ज्ञान में आशा की किरण नज़र आ रही है। जहां अनेक वर्तमान औषधियों के प्रति रोगकारकों या वाहकों (सूक्ष्मजीवों/कीट) में प्रतिरोध विकसित हो चुका है तो वहीं दूसरी तरफ निश्चित ही आधुनिक विज्ञान को इन सूक्ष्मजीवों/कीटों के खात्मे के लिए नई दवाओं की आवश्यकता है और ये आवश्यकता पूर्ति 15 साल तक के लंबे इंतजार के बाद पूरी हो तो विज्ञान के लिए शर्मिंदगी की बात है और ऐसी स्थिति में पारंपरिक हर्बल ज्ञान एक नई दिशा और सोच को जन्म देने में कारगर साबित हो सकता है। ना सिर्फ वैज्ञानिकों में नई कारगर दवाओं को लेकर खोज की प्रतिस्पर्धा है बल्कि अनेक फार्मा कंपनियों में भी इस बात को लेकर अच्छी खासी होड़ सी लगी पड़ी है कि कितने जल्दी नई कारगर दवाओं को बाजार में लाया जाए।

आधुनिक औषधि विज्ञान के इतिहास पर नजर मारी जाए तो समझ पड़ता है कि धीमे-धीमे ही सही लेकिन इसने पारंपरिक हर्बल ज्ञान को तवज्जो जरूर दी है। सिनकोना की छाल से प्राप्त होने वाले क्वीनोन की बात की जाए या आर्टिमिशिया नामक पौधे से प्राप्त रसायन आर्टिमिसिन की, दवाओं की प्राथमिक जानकारी आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान से ही मिली। इन दोनों दवाओं को मलेरिया के उपचार के लिए सबसे बेहतर माना गया है। सन 1980 तक बाजार में सिर्फ सिनकोना पौधे से प्राप्त रसायन क्वीनोन की ही बिक्री होती थी, मलेरिया रोग के उपचार में कारगर इस दवा का वर्चस्व बाजार में काफी समय तक रहा, लेकिन चीन में पारंपरिक हर्बल जानकारों द्वारा सदियों से इस्तेमाल में लाए जाने वाले आर्टिमिसिया पौधे की जानकारी जैसे ही आधुनिक विज्ञान को मिली, फटाफट इस पौधे से आर्टिमिसिन रसायन को प्राप्त किया गया और झट बाजार में क्वीनोन के अलावा आर्टिमिसिन भी उपलब्ध हो गयी।

सन 2004 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी आर्टिमिसिन को दुनिया भर में उपचार में लाने के लिए स्वीकृति दे दी। सदियों से अपनाए जाने वाले इस नुस्खे को बाजार में आने और आम चिकित्सकों द्वारा अपनाए जाने में देरी की वजह सिर्फ यही रही कि आधुनिक विज्ञान के तथाकथित पैरवी करने वालों ने इस पर इतना भरोसा नहीं जताया। यदि चीन के पारंपरिक हर्बल जानकारों से मिलकर इस दवा के प्रभावों की प्रामाणिकता पर खुलकर बात होती, भरोसे की नींव मजबूत होती तो शायद इतना वक्त ना लगता। क्वीनोन और आर्टिमिसिन बाजार में पूरी तरह से आ पाती, उससे पहले ही खबरें आने लगीं कि आफ्रिकन मच्छरों ने दोनों दवाओं के प्रति प्रतिरोधकता विकसित कर ली है, यानि मच्छरों पर इनका खासा असर होना बंद हो चुका है। अब चूंकि एक सफलता हाथ आई, भले ही कम समय के लिए, लेकिन विज्ञान भी पारंपरिक हर्बल ज्ञान का लोहा मान बैठा।

आज आधुनिक विज्ञान की मदद से पारंपरिक हर्बल ज्ञान को पहचान मिलना शुरू हो रही है लेकिन आज भी अनेक लोगों के बीच हर्बल ज्ञान को लेकर भरोसे की कमी है। हालांकि इस भरोसे की कमी के पीछे अनेक तथ्य हैं, जिनमें हर्बल दवाओं की शुद्धता, मानक माप-दंड, नकली दवाओं का बाजार में पसारा हुआ पांव, बगैर शोध और परीक्षण हुए दवाओं का बाजारीकरण प्रमुख हैं जिन पर चर्चा किसी और लेख में की जाएगी।

(लेखक हर्बल जानकार हैं ये उनके अपने विचार हैं।)

      

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