खाने में लचीलापन लाएं खाद्य पदार्थों का आयात घटाएं

Dr SB MisraDr SB Misra   12 May 2017 8:57 AM GMT

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खाने में लचीलापन लाएं खाद्य पदार्थों का आयात घटाएंअरहर की दाल 200 रूपये प्रति किलो बिकने लगे तो सरकार को दोष मत दीजिए।

दालों में आप को अरहर दाल ही चाहिए और वह 200 रुपया प्रति किलो बिकने लगे तो सरकार को दोष मत दीजिए। आखिर मांसाहारी लोग 400 रुपया प्रति किलो मांस खरीदते हैं। आप प्याज के बिना छटपटा रहे हैं तो जो भाव मिले खरीदिए या अरहर और प्याज का विकल्प सोचिए। याद रखिए साल भर का समय लेती है अरहर की फसल और किसान की लागत भी नहीं आती, ऊपर से अरहर आयात की धौंस बताती है सरकार। किसान के नज़रिए से सोचिए।

कुछ समय पहले मीडिया में आया था कि लड़की वाला मांस का भोजन नहीं दे सका तो बारात वापस चली गई। पता नहीं वह मुर्गा, मछली और अंडों आदि का इंतजाम कर सका था या नहीं। कई बार ऐसा हुआ है कि प्याज की कमी के कारण सरकारें गिर गईं। इसके विपरीत ऐसा भी हुआ है कि किसान को अपना प्याज सड़कों पर फेकना पड़ा है। इस साल आलू के साथ ऐसा ही हुआ और कोल्ड स्टोरेज भर गए वहां जगह नहीं। दुनिया भर के देशों में ऐसा नहीं होता क्योंकि उनकी खाने की आदतें इतनी जिद्दी नहीं हैं।

शाकाहारी बनाम मांसाहारी की बात नहीं है बल्कि विषय है यदि हम अपने खाने की आदत में कोई बदलाव नहीं करना चाहते और सरकार से अपेक्षा करते हैं कि वह दुनिया में जहां कहीं मिले अरहर दाल और प्याज लाए तो यह ठीक नहीं। इन वस्तुओं का आयात करने से देश का विदेशी मुद्रा भंडार घटेगा और हमारा आत्मसम्मान भी। मनमोहन सरकार ने कुछ साल पहले पाकिस्तान से प्याज खरीदने का ऐलान किया था। वही पाकिस्तान जो आतंकवादी भेजता है और सरहद पर गोलियां बरसाता है, हमारे सैनिकों के सिर काटता है, लानत है ऐसे प्याज पर। भारत के देशभक्तों को प्याज छोड़ने में देर नहीं लगनी चाहिए।

हमारे देश के शाकाहारी भोजन में प्रोटीन की पूर्ति दालों से, कार्बोहाइड्रेट की रोटी और चावल से, खनिज और विटामिन की सब्जियों से और वसा की घी, तेल से होती है। जब अरहर दाल की कमी हो जाती है तो हाय-तौबा मचती है। आखिर प्रोटीन दूसरी दालों में भी होता है लेकिन हम कोई समझौता करने को तैयार नहीं। तेलों की कमी भी आती है तो भोजन को बिना फ्राई किए खा नहीं सकते। कन्द, मूल, फल खाने की पुरानी परम्परा समाप्त हो चुकी है और दूध, दही बचता नहीं घरों में। ऐसी समस्याएं दूसरे देशों में भी आती होंगी लेकिन वे खाने के मामले में इतने जिद्दी नहीं हैं।

हम मुख्य भोजन के लिए गेहूं, चावल पर निर्भर हैं जिनके उगाने में किसान की लागत अधिक है और उसे लागत वसूल करना भी कठिन होता है। हमने ज्वार, बाजरा, मक्का जैसे अनाजों को छोड़ दिया है। ये फसलें पानी की कम मात्रा से, खाद और बीज पर कम खर्चा करके और कम उर्वरा जमीन में भी उगाई जा सकती हैं। इन अनाजों की मांग नहीं इसलिए किसान बोता नहीं। किसान अपने खर्चे और गुजारे के लिए नकदी फसलें बोता है जैसे गन्ना, मूंगफली, आलू और प्याज।

सरकार ने पांच रुपया प्रति किलो से भी कम पर आलू का समर्थन मूल्य निर्धारित किया। यह जले पर नमक छिड़कने जैसा था और सरकार कितना आलू खरीद सकी यह वही जाने। सरकार यह आलू खरीद कर करेगी क्या शायद वह भी नहीं जानती होगी। अन्न और मांस के साथ ही आलू को मुख्य भोजन के रूप में स्वीकार करने की आवश्यकता है। विकसित पश्चिमी देशों के भोजन में उबले हुए बीफ़, मुर्गा, मछली, केकड़ा, अंडे और इनके साथ आलू के विविध रूप। उबले आलू, मैश पोटैटो यानी भर्ता, फ्राइड फ्रेंच फ्राइ और सब्जियों में बीन्स, गाजर, पालक आदि मिलकर भोजन के पोषक तत्व पूरे कर देते हैं।

सरकार जिस तरह शहरी लोगों को मजबूर नहीं कर सकती कि अरहर के बदले उरद, मूंग, मसूर, मटर, चना का प्रयोग करें उसी तरह किसान को भी मजबूर नहीं कर सकती कि अरहर ही बोये। हमें सरकार पर इस बात का दबाव भी नहीं डालना चाहिए कि वह अरहर और प्याज का आयात करके विदेशी मुद्रा घटाती रहे, किसान का लाभ घटाए और विकास को धीमा करती रहे। बीच का रास्ता निकालना होगा और वह है हमें भोजन की आदत लचीली बनानी चाहिए और बाजार में जो मिले वह खाना चाहिए। किसान यही तो करता है जो बोया वहीं खाया।

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