पर्यावरण संकट का हल: लौटना होगा अपनी जड़ों की ओर

पर्यावरण संकट आज मानव अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है, लेकिन समाधान हमारे सामने है—हमारी अपनी सनातन संस्कृति में। कैसे हमारे पूर्वजों की प्रकृति के प्रति श्रद्धा, पंचतत्वों की समझ, और जैव विविधता के साथ संतुलित जीवन शैली आज की सबसे ज़रूरी पर्यावरणीय रणनीति बन सकती है।
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हमारे पूर्वजों ने प्रकृति और प्राणी, यानी जीव और जगत के संबंध को बड़ी बारीकी से समझा था। उन्होंने कहा था—”क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा“। इसका आशय है कि ये पाँच तत्व हमारे शरीर का निर्माण करते हैं, और यदि इनमें से कोई एक भी विकृत हो जाए तो शरीर संकट में पड़ सकता है और मानव प्रजाति का अस्तित्व भी खतरे में आ सकता है। तभी तो हमारे पूर्वजों ने कहा था—”यत पिंडे तथैव ब्रह्माण्डे।”

हमारे देश की मान्यता रही है कि पंचतत्वों से बना शरीर तभी तक स्वस्थ रह सकता है, जब तक इन तत्वों का संतुलन बाह्य जगत में बना रहे। मनुष्य का जीवन तभी तक सुरक्षित है, जब तक वायुमंडल में प्राणवायु, यानी ऑक्सीजन है। और ऑक्सीजन तभी तक है जब तक उसे उत्पन्न करने वाले पेड़-पौधे और वनस्पति पृथ्वी पर विद्यमान हैं। ये पेड़-पौधे तभी तक रहेंगे जब तक धरती पर मिट्टी और पानी रहेगा। किसी भी एक कड़ी के टूटने से पूरी श्रृंखला ही टूट जाएगी।

प्राणवायु अर्थात ऑक्सीजन सबसे महत्वपूर्ण है, जो वायुमंडल में अन्य गैसों के साथ मिलती है। दूसरी प्रमुख गैस है—कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂), जिसे सामान्यतः धुआँ कहा जाता है। इसका भी अपना महत्व है—यदि यह अधिक हो जाए तो तापमान बढ़ जाएगा, और यदि अत्यधिक कम हो जाए तो तापमान गिर सकता है और हिम युग लौट सकता है।

पानी दूसरा सबसे महत्वपूर्ण घटक है, जो धरती की सतह पर और धरती के अंदर पाया जाता है। आज भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है और सतही जलस्रोत सिकुड़ रहे हैं। यदि इस संकट से बचना है तो हमें जल संचयन और जल प्रबंधन की अपनी पारंपरिक प्रणालियों को पुनर्जीवित करना होगा, और भूजल पर निर्भरता को घटाना होगा। भूजल संकट का एक उदाहरण है दक्षिण अफ्रीका का केपटाउन, जहाँ पानी की पूरी आपूर्ति टैंकरों से हो रही है। प्रश्न यह है—यह व्यवस्था कब तक चलेगी?

हमारे देश में भी हिमालय क्षेत्र में जंगलों की कटाई के कारण भूमि पथरीली होती जा रही है और भूस्खलन बढ़ रहे हैं। पहाड़ी ढलानों की स्थिरता बनाए रखने में वृक्षों की भूमिका अहम है। एक बार यदि ढलानों से मिट्टी हट जाए तो दुबारा उपजाऊ मिट्टी बनने में हजारों साल लग जाते हैं। पहाड़ी ढलानों की स्थिरता को प्रभावित करने वाले कारणों में वनों की कटाई, सड़क निर्माण, भारी भवनों का निर्माण, और जल प्रवाह में बाधा प्रमुख हैं।

हमारे पूर्वज वनों के महत्व को समझते थे। जीवन के चार आश्रमों में वानप्रस्थ आश्रम में पहुँचकर वे वन में निवास करते थे, जहाँ वे प्रकृति और जीवों के साथ रहते हुए आत्मज्ञान प्राप्त करते और समाज का मार्गदर्शन करते थे।

हर साल 5 जून को पर्यावरण दिवस आता है और चला जाता है। भाषण, गोष्ठियाँ और संकल्प होते हैं, फिर भूल जाते हैं। पर्यावरण की चर्चा तभी तेज हुई जब पश्चिमी देशों, विशेष रूप से अमेरिका, के ऊपर ओजोन परत में छेद दिखाई दिए। ओजोन परत पृथ्वी को सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों से बचाती है। लेकिन क्लोरोफ्लोरोकार्बन जैसी गैसें इस परत को क्षति पहुँचाती हैं। अब प्रदूषण अपनी सीमाएँ पार कर चुका है।

वनों की कटाई से मिट्टी का क्षरण तेज हो गया है। कहीं अतिवृष्टि, तो कहीं सूखा पड़ रहा है। रोगाणु और विषाणु बढ़ रहे हैं। और मानव जाति का अस्तित्व संकट में है। इसका मुख्य कारण भारतीय संस्कृति और जीवनशैली से बढ़ती दूरी है।

वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड के कारण तापमान बढ़ रहा है। इससे हिमखंड पिघल सकते हैं और समुद्र का जलस्तर बढ़ सकता है, जिससे तटीय नगर जलमग्न हो सकते हैं। पेड़ इस गैस को शोषित कर प्राणवायु प्रदान करते हैं। लेकिन एसी, फ्रिज, रेफ्रिजरेटर से निकलने वाली गैसें ओजोन परत को नुकसान पहुँचा रही हैं। आज गाँवों में भी फ्रिज आ गए हैं, लेकिन पेड़ घटते जा रहे हैं।

जल चक्र भी बिगड़ रहा है। आज सिंचाई, उद्योग, शौचालय आदि सभी भूजल पर निर्भर हैं। परिणामस्वरूप भूजल स्तर कई स्थानों पर हर वर्ष एक मीटर नीचे जा रहा है। वर्षाजल का संग्रह, वर्षा जल का भूमि में समावेश, वनस्पतियों की भूमिका—यह सब भूजल पुनर्भरण के लिए आवश्यक है।

बड़े पैमाने पर जंगल समाप्त हो गए हैं। जैव विविधता भी लुप्त हो रही है। मनुष्य का अस्तित्व इसी पर निर्भर है। हमारी परंपरा रही है कि पशु-पक्षियों को भोजन देना पुण्य का कार्य समझा जाता था। आज गिद्ध लगभग विलुप्त हो गए हैं क्योंकि मांस जहरीला हो गया है।

मनुष्य अपने स्वार्थ में अपने विनाश का मार्ग स्वयं तैयार कर रहा है। हमारी कृषि, वनस्पति, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे, जलचर—all are interdependent. “जीवहि जीव आधार, बिना जीव जीवत नहीं।”

हमारी संस्कृति ही पर्यावरण संरक्षण की सबसे बड़ी प्रेरणा है। पूजा-पाठ में हम फूल, दूब, घास, तुलसी, बेलपत्र आदि प्रयोग करते हैं। यही संस्कृति हमें सिखाती है कि हर जीव में ईश्वर का अंश है।

यदि मानव जाति को बचाना है, तो हमें अपनी सनातन सोच को बचाना होगा। यही सोच पर्यावरण और जैव विविधता की रक्षा कर सकती है।

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