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वर्तमान मानसिकता के चलते पर्यावरण बचाना आसान नहीं

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत को प्रदूषणमुक्त करना चाहते हैं लेकिन क्या हमारा देश इसके लिए मानसिक रूप से तैयार है?
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हर साल पंजाब और हरियाणा में धान की फसल कटती है और खेतों में जलने लगता है पुआल, दिल्ली की हवा दम घुटाने लगती है लेकिन धान की फसल तो दुनिया के तमाम देशों में होती है और अपने ही देश के बिहार, बंगाल, असम, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में पंजाब और हरियाणा से कहीं अधिक धान बोया जाता है, कभी वहां की हवा को जहरीला होते नहीं सुना। मिर्जापुर के अनेक भागों में लोगों की हड्डियां टेढ़ी और कमजोर हो रही हैं और मुजफ्फरपुर में हर साल गर्मियों में बच्चों की मौतें होती हैं लेकिन हमारे वैज्ञानिक ये गुत्थियों को सुलझा नहीं पाए हैं।

दीपावली का त्योहार आया और चला गया लेकिन पीछे छोड़ गया पटाखों का कचरा, हवा में कार्बन डाइ ऑक्साइड और ध्वनि प्रदूषण। लक्ष्मी-गणेश की रंग-बिरंगी मिट्टी की बनी मूर्तियों की पूजा करते और जल में प्रवाह कर देते हैं। फूल, मिठाई, खील और मूर्तियों को रखने और बेचने में प्लास्टिक की बड़ी मात्रा उपयोग में लाई जाती है और सड़कों पर प्लास्टिक के ढेर लगते हैं। यही प्लास्टिक जलाई भी जाती है जो हवा को जहरीला करती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत को प्रदूषणमुक्त करना चाहते हैं लेकिन क्या हमारा देश इसके लिए मानसिक रूप से तैयार है?

हमारे मनीषियों का मानना था कि यह पृथ्वी बहुत पुरानी है, इसके साथ हमारा नाता भी उतना ही पुराना है और इस पर हमें बार-बार आना है अतः इसे संजोकर रखना है। दूसरे लोगों का सोच रहा है कि इस धरती पर जो कुछ नेमत परमेश्वर ने बखशी है वह इंसान के लिए है, इसका भोग कर लो क्योंकि केवल एक ही जीवन मिला है, वे कहते हैं यहां आना न दोबारा। ऐसी विचारधाराओं के चलते पर्यावरण का विनाश होना ही था और हुआ भी। दूसरी तरफ घनी आबादी और निर्धनता के बावजूद पर्यावरण बिगाड़ने में हमारे देश की बहुत कम भूमिका रही है।

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गाँवों में शौचालय तो बने पड़े हैं फिर भी गाँव के लोग बाहर शौच के लिए जाते हैं। आगे भी ऐसे ही शौचालय बनते रहेंगे और आगे भी ग्रामीण उन्हें बेहतर विकल्प नहीं मानेंगे, गाँवों में बने शौचालयों में पानी की व्यवस्था नहीं की जाती, जमादार बड़ी संख्या में अच्छे वेतन पर नियुक्त किए गए हैं परन्तु वे नालियां, गलियां और गाँव ही नहीं साफ करते तो शौचालय क्या साफ करेंगे। और जब बीड़ी, सिगरेट पीने वाले या पान, तम्बाकू और मसाला खाकर सड़क पर या बिल्डिंग के कोने पर मुंह से पिचकारी मारने वालों के लिए शौचालय बनाने की नहीं मानसिकता बदलने की आवश्यकता है।

सड़कों पर झाड़ू लग जाने के साथ ही जरूरी है सड़ता हुआ कचरा विसर्जन। अस्पतालों का कचरा, मन्दिरों के फूल-पत्ते और पूजा सामग्री, कारखानों का कचरा, धुआं उगलती चिमनियां, खेतों से बह कर आए कीटनाशक और मेलों तथा धार्मिक आयोजनों से निकली प्लास्टिक और गन्दगी यह सब भी हटानी होगी। नदियों के किनारे शवदाह से मोक्ष मिले या न मिले, नदी में अधजले शव डालने से जल प्रदूषण की गारंटी है।

साल दर साल मूर्तियां स्थापित की जाती हैं और नदी, झील या समुद्र में उनका विसर्जन होता है। दुर्गा, गणेश, लक्ष्मी या फिर अन्य देवी-देवताओं के नाम पर ये आयोजन होते हैं। जानवरों की बलि चढ़ाने के लिए चाहे हलाल करें या झटका, अपशिष्ट तो बचते ही हैं। कुछ मन्दिरों में चढ़ावा के फूलों से पवित्र खाद बनाने का काम आरम्भ हुआ है लेकिन प्रसाद और फूल के लिए प्रयुक्त प्लास्टिक की थैलियों के बारे में भी सोचना होगा। गायें इसे खाती हैं और मरती हैं, इस गोहत्या की जिम्मेदार कौन है, शायद वे सरकारें जो प्लास्टिक बनाने का लाइसेंस देती हैं या भक्त जो पूजा सामग्री लाते हैं। जब तक प्लास्टिक की थैलियां बनाने और बेचने पर प्रतिबन्ध नहीं लगेगा, इस बीमारी से निजात नहीं मिलेगी।

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गाँवों की बाजारों में उल्टा टंगे खालरहित बकरों का खून, सब्जी मंडी अथवा मांस-मछली की मंडी की प्रदूषित हवा कैसे नियंत्रित होगी। शहरों के लाइसेंसधारी बूचड़खाने हटाना भी कठिन है। भारत को स्वच्छ दिखना ही नहीं, होना भी पड़ेगा। मिट्टी, पानी और हवा के प्रदूषण की जड़ में हमारी मानसिकता है।

गाँव में जानवर मर जाने पर ठेकेदार उसकी खाल उधेड़कर निकाल ले जाते हैं और मांस छोड़ जाते हैं जो खुले में सड़ता और वायु प्रदूषण फैलाता रहता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दे रखा है कि शहर में गाय-भैंसे पालकर डेयरी ना चलाई जाएं फिर भी सड़कों पर घूमते हुए जानवर गोबर और मूत्र फैलाते रहते हैं। हम स्नान, ध्यान, पूजा करके व्यक्तिगत मोक्ष खोजते रहते हैं लेकिन सामाजिक जीवन की चिन्ता कम ही रहती है। जरूरत है मानसिकता बदलने की। 

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