सर्च इंजन ऑप्टिमाइज़ेशन करने वाले कई जानकारों की बात मानूं तो हिंदुस्तान में हिंदी भाषा ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अंग्रेजी के साथ बराबरी से कंधा मिलाना शुरू कर दिया है। कुछ इसी तरह की बात क्षेत्रीय भाषाओं के लिए भी कही जाने लगी है। जानकारों के अनुसार दक्षिण से लेकर उत्तर तक सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जल्द ही क्षेत्रीय भाषाओं की तूती बोलने लगेगी। मुझे भी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हिंदी में ही संवाद अच्छा लगता है।
पिछले साल “डिजिटल भाषा” एक संवाद कार्यक्रम के सिलसिले में दिल्ली गया था जहाँ इंटरनेट पर हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के भविष्य पर दो दिनों का एक कार्यक्रम आयोजित किया गया जहां मुझे भी अपने विषय में हिंदी के इस्तेमाल को लेकर अपने विचार रखने थे। इस कार्यक्रम में गूगल, फेसबुक, माइक्रोमैक्स, मोजिला जैसी कंपनियों के एक्सपर्ट्स को सुनने का मौका मिला था। एक सुर में इन सभी बड़े कॉर्पोरेट्स ने निकट भविष्य में अपने उत्पादों के सहज उपयोग के लिए हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल की बात कही थी।
बीते एक साल में मैंने हिंदी को सोशल नेटवर्किंग साइट्स और इंटरनेट पर दो से तीन गुना बढ़ता हुआ देखा है। मैंने खुद पिछ्ले 2-3 साल से अंग्रेजी भाषा में अपने पोस्ट्स डालना काफी कम कर दिया है क्योंकि देर सवेर मुझे ये समझ आ गया कि ज्यादा लोगों तक आपकी बात पहुंचाने के लिए आपको अपनी स्थानीय भाषा में ही संवाद करना होगा। अब ये बात साफ समझ आने लगी है कि हिंदी ने इंटरनेट पर परचम लहराना शुरू कर दिया है।
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रफ़ीक खान मेरे पुराने मित्र हैं जो मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा के नज़दीक एक छोटे से शहर परासिया में रहते हैं। अक्सर मोबाइल पर हिंदी भाषा में लिखे उनके मैसेज आते रहते हैं, हर तीज त्यौहार में उनके बधाई संदेश जरूर आते हैं। बीते सुबह उनका एक मैसेज मुझे मिला जिसमें उन्होंने मुझे हिंदी दिवस की शुभकामनाएं भेजी। साथ ही ये भी बताया कि उन्होंने हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर शिक्षा में पूरे महाविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त किए थे। उर्दू के विषय में मेरा ज्ञान कच्चा है लेकिन हिंदी साहित्य में रफ़ीक भाई की पारंगतता उत्साहित करने वाली बात थी। मैं अक्सर सोचता था कि रफ़ीक भाई जब हिंदी बोलते भी हैं तो उनकी भाषा में गज़ब की मिठास होती है लेकिन आज उनके हिंदी प्रेम को समझ पाया।
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दरखोडि़या पीर (जंगली बाबा) की दरगाह का भी जिक्र करना चाहूंगा। अहमदाबाद से करीब 25 किमी दूर नास्मेद गाँव के करीब ये दरगाह है। ठीक इसके बाजू में एक शिव मंदिर है और इन दोनों के बीच मातारानी का एक मंदिर भी है। हर मंगलवार और शुक्रवार को यहाँ हर धर्म से जुड़े काफी तादाद में लोग आते हैं। यहाँ तो जो आता है अपनी आस्था लेकर आता है, अपनी तकलीफों को मंदिर और दरगाह में सौंप जाता है। यहां किसी को इस बात की परवाह नहीं होती कि कौन क्या सोचता है, कौन क्या कहता है और कौन किस धर्म का है। यहाँ एक दूसरे की पहचान सिर्फ बोले जानी वाली भाषा से होती है। यहाँ बैठकर मैं अलग-अलग भाषाओं और बोलियों को सुनने का आनंद लेता हूं। जात-पात, धर्म और भाषाओं को लेकर आपसी मनमुटाव के तमाम मुद्दों को एक किनारे रखकर लोग यहाँ सबकी बेहतरी की दुआएं मांगते हैं, अपनी-अपनी भाषाओं में। स्थानीय भाषाएं हम सभी को एक सूत्र में पिरोने का काम करती है। फिलहाल रफ़ीक भाई के हिंदी प्रेम ने मुझमें उर्दू को और बेहतर समझने की ललक जरूर जगा दी है।
(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)