देश भर में चिल्ल पों मची है कि बड़े नोट समाप्त करने का मोदी का तरीका गलत है। एक दलित नेता कह रही थीं कि गरीब आदमी वक्त जरूरत के लिए बड़े नोट बचाकर रखता है उसकी पूंजी चली गई, एक और नेता कह रहे थे नोटबन्दी का समय बढ़ाना चाहिए, कुछ ने कहा बन्द करने की तैयारी नहीं हुई सभी दलों से चर्चा होनी चाहिए थी, कुछ कहते हैं पहले विदेशों में जमा काला धन लाना चाहिए था आदि।
लोगों ने सोचा यही था कि विदेशी धन पर पहले प्रहार होगा इसलिए बीमारी का इलाज कराने अथवा अज्ञात वास में लम्बे समय के लिए विदेश गए और अनुमान है कि विदेशी कालाधन सहेज कर वापस आ गए नहीं तो बीमारी का नाम न बताना और अज्ञातवास का कारण न बताना विचित्र लगता है। वैसे कालाधन देशी हो या विदेशी, कौन सा पहले निकाला जाए यह सरकार तय करेगी, हमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आपत्ति का एक ही विषय है कि ईमानदार करदाता को अधिक दिनों तक असुविधा नहीं होनी चाहिए, गरीबों को भोजन पानी के लिए उनकी दैनिक गतिविधियां बाधित नहीं होनी चाहिए।
गरीबों को असुविधा झेलने की आदत है और पहले भी थी। आजादी के बाद अनेक वर्षों तक लोगों में जोश बाकी था और देश के लिए काम करने का जज़्बा बचा था। लोगों को त्याग और बलिदान का मतलब मालूम था। नमस्ते, जैराम और पैलग्गी के साथ ही ‘‘जैहिन्द” उनका अभिवादन हुआ करता था। बाद के दिनों में उस त्याग को भुनाने वाले लोग पैदा होते गए और नई पीढ़ी को आदर्श का मतलब बताया नहीं गया। आजकल पुराने नेता भी अपना जुझारू व्यक्तित्व भूल चुके हैं और मौजूदा परिस्थितियों के हिसाब से अपने को ढाल लिया है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रह चुके संजय बारू ने हाल ही में एक पुस्तक लिखी है ‘‘ ऐक्सीडेन्टल प्राइम मिनिस्टर” जिसमें उन्होंने सोनिया जी के त्याग का खुलासा किया है।
भारत गाँवों में रहता है और इस भारत का अपना प्रधानमंत्री नहीं बना यदि लालबहादुर शास्त्री का थोड़ा समय न गिनें। चौधरी चरनसिंह एक किसान थे और किसानों के दर्द को समझते भी थे परन्तु प्रधानमंत्री पद पर कांग्रेस ने उन्हें अधिक दिन नहीं रहने दिया।
अटल जी और मोरार जी ने इस पद पर रहकर देश की सेवा की है परन्तु उन्होंने सेवा को त्याग और बलिदान नहीं कहा। त्याग के नाम पर याद आते हैं जय प्रकाश नारायण, वीर सावरकर, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, राम मनोहर लोहिया और नाना जी देशमुख जो चाहते तो सत्ता सुख भोग सकते थे, लेकिन भोगा नहीं। सत्ता का सुख भोगने वाला त्यागी नहीं होता, यदि चाहे तो देश का हितैषी सेवक हो सकता है।
हाल ही में पुराने बड़े नोट समाप्त होने को गरीबों की पीड़ा बताने वाले नेता वास्तव में अपनी पीड़ा बयां कर रहे हैं। यह सच है कि मध्यम वर्ग के लोगों को फौरी असुविधा हो रही है और बैंकों तथा एटीएम पर भीड़ इसका प्रमाण है लेकिन यह असुविधा भूल जाएगी यदि देशवासियों को सुरक्षा और सम्मान मिलेगा और अच्छे दिनों की झलक मिलेगी। यदि ऐसा हुआ तो मोदी के कदम को त्याग और बलिदान तो नहीं लेकिन निश्चित रूप से देशहितकारी कहा जाएगा।
त्यागी और बलिदानी कुछ त्यागते हैं, जीवन भी त्यागने में संकोच नहीं करते। मंगल पांडे, चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, राम प्रसाद बिस्मिल, अश्फाक उल्ला खां, मदन लाल धींगरा, राजेन्द्र लाहिड़ी, चाफेकर वन्धु, नेता जी सुभाषचन्द्र बोस और ना जाने कितने वीर जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपनी पूर्णाहुति दे दी, वे थे महान त्यागी। इन सभी का जीवन त्याग और बलिदान को परिभाषित करता है। देश के बलिदानियों के घरों को स्मारक नहीं बनाया गया, उनकी हजारों मूर्तियां नहीं लगी, याद भी नहीं आती।
यदि बलिदानियों का जीवन स्कूल कॉलेजों में पढ़ाया जाता तो देश में भ्रष्टाचार, व्यभिचार, कालाधन, रिश्वतखोरी, आतंकवादियों को शरण जैसी बातें नहीं होतीं और आतंकवादियों तथा काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक की भी जरूरत नहीं होती। बड़े नोट बन्द करना दर्दनिवारक एनासीन जैसा है, जरूरत है देश के नौजवानों को देशभक्ति की प्रेरणा देने की, बाकी सब ठीक हो जाएगा।
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