मंजीत ठाकुर
अपने देश की खेती-बाड़ी में जो बढ़ोत्तरी हुई है, जो हरित क्रांति हुई है उसमें बड़ा योगदान रासायनिक उर्वरकों का है। हम लाख कहें कि हमें अपने खेतों में रासायनिक खाद कम डालने चाहिए-क्योंकि इसके दुष्परिणाम हमें मिलने लगे हैं—फिर भी, पिछले पचास साल में हमारी उत्पादकता को बढ़ाने में इनका योगदान बेहद महत्वपूर्ण रहा है लेकिन, अभी भी प्रमुख फसलों के प्रति हेक्टेयर उपज में हम अपने पड़ोसियों से काफी पीछे हैं। मसलन, भारत में चीन के मुकाबले तकरीबन दोगुना खेती लायक ज़मीन है, लेकिन चीन के कुल अनाज उत्पादन का हम महज 55 फीसद ही उगा पाते हैं। इसका मतलब है उत्पादन के मामले में हम अभी अपने शिखर पर नहीं पहुंच पाए हैं।
इसी के साथ एक और मसला है जिसपर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है, वह है कि क्या हम रासायनिक खादों का समुचित इस्तेमाल करते हैं? आज की तारीख़ में भारत रासायनिक खादों की खपत करने वाला दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है लेकिन देश के उत्पादन में मदद करने वाला यह उद्योग आज कराह रहा है।
देश में नियंत्रित रासायनिक खादों की कीमतें साल 2002-03 के बाद से संशोधित नहीं की गई हैं। पिछले वित्त वर्ष में सरकार पर उर्वरक कंपनियों का बकाया करीब 43 हज़ार करोड़ रुपए था लेकिन इस बार अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में प्राकृतिक गैस की कीमतों में कमी की वजह से आज की तारीख में इस उद्योग का करीब 30 हज़ार करोड़ रुपए सरकार पर बकाया है, जो मार्च में वित्त वर्ष खत्म होने तक करीब 40 हजार करोड़ तक चला जाएगा।
यूरिया खाद की कीमतें और सब्सिडी अभी भी डेढ़ दशक पुराने हैं। हालांकि, साल 2014 के अप्रैल से यूरिया के प्रति टन पर 350 रुपए की बढ़ोत्तरी की गई थी लेकिन यह वृद्धि सिर्फ वेतन, अनुबंधित मजदूरों, विक्रय के खर्च और मरम्मत जैसे कामों के मद में की गई थी। जाहिर है, लागत पर इसका असर नहीं होना था। इस नीति के तहत, न्यूनतम कीमत 2300 रुपए प्रति टन स्थिर किया गया लेकिन इसके तहत अभी तक कंपनियों को भुगतान नहीं किया गया है।
साल 2015 में नई यूरिया नीति भी सामने आई। इसमें फॉर्म्युला लाया गया कि ऊर्जा के खर्च और तय कीमतों के मद में ही पुनर्भुगतान किया जाएगा। बहरहाल, साल 2015-16 में यूरिया का 40 लाख टन अतिरिक्त उत्पादन किया गया। देश में यूरिया की कमी नहीं हुई। यह बड़ी खबर थी लेकिन कंपनियों के अधिकारी अब शिकायत कर रहे हैं कि अपनी क्षमता के सौ फीसद से अधिक किए गए उत्पादन पर उन्हें प्रति टन महज 1285 रुपए का भुगतान किया गया।
अब उर्वरक कंपनियां सरकार के सामने अपनी मांग लेकर जा रही हैं कि वह उर्वरक सेक्टर में सब्सिडी को जीएसटी से अलग रखे। क्योंकि अगर सब्सिडी को जीएसटी से अलग नहीं रखा जाएगा तो इससे कीमतें बढ़ानी पड़ेगी। यानी, 5-6 फीसद से अधिक की जीएसटी की दर से उर्वरकों की उत्पादन लागत बढ़ जाएगी, जिसे बाद में या तो सरकार को या फिर किसानों को वहन करना होगा।
उर्वरक कंपनियां सरकार द्वारा दिए जाने वाले प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) पर भी एतराज़ जता रहे हैं। कंपनियों के आला अधिकारी कह रहे हैं कि रासायनिक खादों में दिए जाने वाले सब्सिडी को कंपनियों के ज़रिए ही दिया जाए क्योंकि घरेलू गैस की तरह सीधे किसानों के बैंक खातों में दिया जाने वाला लाभ कामयाब नहीं हो पाएगा।
बहरहाल, आने वाले वक्त में, जब किसान नकदी की समस्या से जूझ रहा है और खेतों में आलू की फसल को खरीदार नहीं मिल रहे हैं, इन उर्वरक कंपनियों की मांग रासायनिक खादों की कीमत में इजाफा कर सकते हैं। ऐसे में इन कंपनियों की नज़र उस सब्सिडी पर है जो वह किसानों के नहीं अपने खातों में डलवाना चाहते हैं। अगर सरकार कंपनियों की मांग मानकर डेढ़ दशक पुरानी कीमतों को संशोधित करती है तो खाद की कीमत भी बढ़ सकती है, ऐसे में देश में खेती की लागत एक दफा फिर से बढ़ सकती है। जो भी हो, किसानों तक निर्बाध रूप से उर्वरकों को पहुंचाने के लिए सरकार कदम तो जरूर उठाएगी। यूरिया की समुचित पर्याप्तता सुनिश्चित करके पिछले बरस एक सकारात्मक कदम दिखा था। कीमतें स्थिर रहें तो किसानों के हिस्से में ज्यादा आएगा।
(यह लेख, लेखक के ब्लॉग गुस्ताख से लिया गया है।)