प्रेमचंद का नारीवाद और 100 से अधिक वर्ष बाद के समाज में उसकी प्रासंगिकता

वाराणसी में जन्मे मुंशी प्रेमचंद हिंदी और उर्दू के लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार, एवं विचारक रहे हैं। प्रेमचंद जी एक जनवादी तथा प्रगतिशील लेखक थे।
#Munshi Premchand Birthday

हिंदी साहित्य जगत में मुंशी प्रेमचंद का पर्दापण एक विशेष महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। प्रेमचंद जी एक जनवादी तथा प्रगतिशील लेखक थे। मुंशी प्रेमचंद जी एक ऐसे जनवादी चेतना से सम्पृक्त लेखक थे जिन्होंने 20 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कार्यरत होते हुए भी आधुनिक समाज के 21 वीं शताब्दी तक की समस्याओं को अपने साहित्य में उस दौर में लिख दिया था। अगर हम ये कहे कि आज से करीब 100 वर्ष पहले ही प्रेमचंद जी ने महाभारत के संजय की भांति अपनी दूर दृष्टि से आने वाले कल को देख लिया था, तो यह कथन कतई गलत नहीं होगा। जिस प्रकार से इन्होंने अपने उपन्यासों, कहानियों में घटनाओं की रचना की थी वह आज की सच्चाई को बयां करती है। चाहे वह स्थिति एक किसान की हो, दलित की हो या फिर नारी की ही क्यूँ न हो, इनकी रचनाएँ समाज का वास्तविक रूप प्रस्तुत करती हैं।

प्रेमचंद के नारी पात्रों में शहरीय वर्ग, गाँव का किसान समुदाय और अभिजात्य वर्ग के दर्शन होते हैं। अतः इनके व्यवहार, आचरण, प्रतिक्रियाओं पर सामंती आर्थिक व्यवस्था का पूरा प्रभाव दिखता है। उनकी कृतियों में सामाजिक परिस्थितियाँ सत्यता लिए हुये ज्यों की त्यों नज़र आती है, इनकी लेखनी में कहीं कोई काल्पनिकता का आभास नहीं होता। इनकी रचनाओं में असफलताएँ भी नजर आती है और सफलताओं द्वारा नई दिशा भी दिखाई देती है। प्रेमचंद जी के नारी पात्रों में हम एक माँ, पत्नी, प्रेमिका, बहन, सौतेली माँ, दोस्त, बदचलन, वेश्या, भाभी, ननंद, समाज सुधारक, देशप्रेमी, परिचारिका, आश्रिता आदि कई रिश्ते भी दिखाई देते हैं।

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प्रेमचंद जी एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने न सिर्फ नारी की दयनीय स्थिति को अपनी रचनाओं में उद्धृत किया बल्की नारी को पुरुष के समान अधिकार की भी बात सामने रखी| इनकी रचनाओं में नारी पात्र दीन दुखी तो है पर वह सशक्त है; वह अपने साथ हो रहे अत्याचारों के खिलाफ लड़ने में सक्षम भी है, तभी तो वे अपने कालजयी उपन्यास में उस दौर में लिखते हैं जिसकी कल्पना उस दौर में करना भी अपराध था – “जब पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वो महात्मा बन जाता है और अगर नारी में पुरुष के गुण आ जाये तो वो कुलटा बन जाती है”। ‘गोदान’ में उद्धृत ये पंक्तियां प्रेमचंद का नारी को देखने का संपूर्ण नज़रिया बयां करती हैं।

आज हमारा पूरा भारतीय समाज नारी को सशक्त बनाने के लिये जिस क्रांतिकारी दौर से गुज़र रहा है उस नारी को प्रेमचंद बहुत पहले ही सशक्त साबित कर चुके थे | प्रेमचंद के साहित्य की स्त्री सशक्त है वह ‘कर्मभूमि’ में उतरकर पुरुष के कांधे से कंधा मिलाकर देश की आजादी के लिए संघर्ष करती है, उसे ‘गबन’ कर लाये पैसों से अपने पति की भेंट में मिला चंद्रहार स्वीकृत नहीं है, वो एक गरीब किसान के दुख-दर्द की सहभागी बन अपना पतिव्रता धर्म भी निभाती है, वो ‘बड़े घर की बेटी’ भी है और उस सारे पुरुष वर्चस्व वाले परिवार में मानो अकेली मानवीय गुणों से संयुक्त है, वो मजबुरियों में पड़े अपने परिवार के लिये समाज के सामंत वर्ग से बिना डरे ‘ठाकुर के कुएं’ पे जाकर तत्कालिक व्यवस्था को चुनौती देती है और कभी एक माँ बनकर अपने बच्चे के लिये खुद की जान भी लुटा देती है।

मुंशी प्रेमचंद जी ने अपने साहित्य में जिस परिदृश्य को चित्रित किया है वो कतई नारी के अनुकूल नहीं रहा है और नारी उस काल में समाज के पिछले पन्ने का ही प्रतिनिधित्व करने वाली रहा करती थी, लेकिन इसके बावजूद मुंशीजी के साहित्य में नारी चरित्र उभरकर सामने आया है और इस साहित्य को देखकर लगता है कि मानों नारी समाज की मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व कर रही है और पुरुष हासिये पर फेंक दिये गये हैं।

प्रेमचंद जी के दो दर्जन से अधिक उपन्यासों में से निर्मला, मंगलसूत्र, कर्मभूमि, प्रतिज्ञा, तो ऐसे उपन्यास हैं जो पूर्णरूपेण नारी चरित्रों पर ही केन्द्रित रहे हैं तो अन्य भी जो उपन्यास रहे हैं उनमें भी स्त्री चरित्र को पुरुष के समानांतर ही प्रस्तुत किया है। प्रेमचंद की सैंकड़ो कहानियों में से जो कुछेक अति प्रसिद्ध कथाएँ रही हैं वो भी अपने प्रमुख नारी चरित्रों के कारण जानी जाती है जिनमें से ठाकुर का कुआँ, पूस की रात, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दूध का दाम, कफ़न इत्यादि अति प्रसिद्ध हैं। उनके साहित्य में प्रस्तुत नारी छवि को देख ऐसा जान पड़ता है कि मानों समाज में मानवोचित गुणों की वाहक मात्र नारी ही है और जो पुरुष मानवीय गुणों से संपन्न हैं, वे भी नारी के प्रभाव में आकर ही मानवीयता से संपन्न हुए हैं।

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प्रेमचंद अपनी रचनाओं में महिला चरित्रों को कर्म, शक्ति और साहस के क्षेत्र में पुरुष के समकक्ष प्रस्तुत करते हैं पर महिला की नैसर्गिक अस्मिता, गरिमा और कोमलता को वो क्षीण नहीं होने देते। प्रेमचंद का साहित्य उन तमाम आधुनिक महिला सशक्तिकरण के चिंतको के लिये उदाहरण प्रस्तुत करता हैं जो नारी को सशक्त बनाने के लिए उसके चारित्रिक पतन की पैरवी करते हैं और उसकी अस्मिता के भौंडे प्रदर्शन को नारी शक्ति का प्रतीक मानते हैं।

इज्जत, शारीरिक सुंदरता, शारीरिक निर्बलता एवं उसके दैवीय गुणों को महिमामंडित कर नारी को बल पूर्वक घर में बंद रहने पर मजबूर किया गया है। यही कारण है कि परिवार में पुरुष वर्ग कब्जा जमाये बैठे हैं। वहीं स्त्री अपने पारिवारिक स्थान से गिरते हुये शीघ्र ही गुलाम बना दी जाती है । यह एक दुखद बात है कि जिस घर को एक नारी इतनी मेहनत और लगन से बनाती और चलाती है उसके त्याग और समर्पण की परवाह किसी को नहीं होती पुरुष समाज जब चाहे उसे बहार निकाल सकता है।

भले सरकार और हमारी शिक्षा प्रणाली आज महिला को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रही है पर पुरुष मानसिकता को बदलने में अभी तक सब नाकाम ही हैं| इस पुरुष वर्चस्व प्रधान समाज में, घर के बाहर की बात तो दूर घर-परिवार के अंदर ही महिलाएं आज भी इस पुरुष प्रधान मानसिकता का शिकार होती हैं जहां उसे अपनी पसंद, अपनी इच्छाओं, जिजीविषाओं का हर पल गला घोंटना पड़ता है। इसी पुरुष मानसिकता की देन है कई छुपे हुए गहन अपराध, भ्रुणहत्या, दहेज, महिला उत्पीड़न, घरेलू हिंसा आदि। आज के वक्त में जब जनता दामिनी, गुड़िया और निर्भया पर हुए अन्याय का बदला लेने के लिये सड़को पर है इस दौर में प्रेमचंद का नारी के प्रति दृष्टिकोण सर्वाधिक प्रासंगिक बन पड़ता है।

[यह लेख प्रियंका कुमारी द्वारा लिखा गया है। उन्होंने प्रेसिडेंसी यूनिवर्सिटी, कोलकाता से हिंदी में स्नातकोत्तर किया है और वर्तमान में सेंट जेवियर्स कॉलेज, कोलकाता में पढ़ रहीं है। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।]

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