वसंत तो जैसे गायब ही हो गया है!

हमारे बचपन की तरह बसंत भी अब किसी गुजरे जमाने की बात लगने लगा है। महज दो दिनों में पारा कई डिग्री उछल जाता है और चिलचिलाती गर्मी समय से काफी पहले हमारे सिर पर आ धमकती है। रजाई और बिना पंखे वाली रातों से हम सीधे एसी वाले कमरों में आ जाते हैं। लेकिन सबसे ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि बढ़ती गर्मी और गायब होता वसंत हमारे अन्न भंडारों के लिए सीधा खतरा है।

Nidhi JamwalNidhi Jamwal   10 March 2023 5:51 AM GMT

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वसंत तो जैसे गायब ही हो गया है!

पुराने बसंत याद हैं? कैसे सर्दियां धीरे-धीरे वसंत को रास्ता दिया करती थीं, जब कोमल हरे पत्ते भी पेड़ों पर नजर आने के लिए अपना समय लिया करते थे! कलियों को भी खिलने की जल्दी नहीं होती थी।

घर के गमलों में फूल आलसी वसंत की दोपहर की ठंडी हवा में नाचते थे, गेहूं की बालियां तापमान के धीरे-धीरे बढ़ने और धीरे-धीरे सुनहरे पीले होने का इंतजार किया करती थीं। बैसाखी त्योहार के लिए अप्रैल तक ही फसल कटाई के लिए तैयार हुआ करती थीं।

उन दिनों कम्बल ओढ़ने के लिए काफी गर्मी होती थी, लेकिन रात को चादर की जरूरत अभी भी पड़ती थी। बचपन में हम हाथ से बुने हुए उन मोटे स्वेटर को उतारना चाहते थे, लेकिन हमारी मांए हमेशा चौकन्ना रहती थीं और हमें उन्हें उतारने की इजाजत कभी नहीं मिलती थीं। जब हम बाहर खेल कर वापस आते और गर्मी से तमतमाते चेहरे को ठंडा करने के लिए पंखा चालू करते, तो हर बार वही गुस्से भरी आवाज से सामना करना पड़ता था: “तुम बीमार हो जाओगी, यह बसंत का मौसम है, अभी गर्मी नहीं आईं है।”


वैसा वसंत अब नजर नहीं आता है, वह गायब हो गया है। हमारे बचपन की तरह यह भी किसी बीते जमाने की बात लगता है। अब महज दो दिनों में पारा कई डिग्री उछल जाता है और चिलचिलाती गर्मी हमारे सिर के ऊपर आ धमकती है। रजाई और बिना पंखे वाली रातों से हम सीधे एसी वाले कमरों में आ जाते हैं।

फूल दो-चार दिन खिलते हैं और भीषण गर्मी में मुरझा जाते हैं। सबसे ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि तापमान के अचानक यूं बढ़ जाने से रबी की फसलों की उत्पादकता प्रभावित हो रही है।

1901 में रिकॉर्ड-रखने की शुरूआत होने के बाद से पिछले महीने भारत ने अपना सबसे गर्म ‘फरवरी’ दर्ज की थी! समय से पहले आने वाली इस गर्मी से फसलों और हमारी खाद्य सुरक्षा पर विनाशकारी प्रभाव पड़ रहा है। इस वजह से देश के अन्नदाताओं के सामने आने वाली परेशानियों की कहानियों को गाँव कनेक्शन लगातार सामने लाता रहा है।

दरअसल हमारे मौसम का पैटर्न गड़बड़ा गया है - मानसून के मौसम में कम बारिश, तो मानसून के बाद बाढ़ आ जाती है। सर्दियों में बारिश नहीं होती है, लेकिन ओलावृष्टि तब होती है जब फसल कटाई के लिए तैयार खड़ी होती है।

दोहरी मार: साइलेंट स्प्रिंग, मिसिंग स्प्रिंग

दो दशक पहले, एक पत्रकार के रूप में मैंने बतौर ‘पर्यावरण रिपोर्टर’ अपनी यात्रा शुरू की थी। मौजूदा समय में शायद यह एक सटीक शब्द हो, लेकिन उस समय मैं जो भी कर रही थी, उसका वर्णन करने के लिए ऐसा कोई शब्द तब नहीं था।

पर्यावरण को एक बेकार और उबाऊ बीट माना जाता था। इसलिए यह विषय उन पत्रकारों के लिए रिजर्व था, जो 'ब्रेकिंग न्यूज' जैसी खबरें नहीं करते थे।

पर्यावरण पर रिपोर्ट शायद ही कभी टीवी न्यूज़रूम में आती थी। यह तो अखबारों के पन्नों के अंदर ही दबी रह जाती, जिसपर गाहे-बगाहे ही पाठकों की नजर पड़ पाती थी।

मैं भाग्यशाली थी कि मुझे अन्य 'महत्वपूर्ण' बीट्स के साथ मुकाबला नहीं करना पड़ा, क्योंकि मैंने पर्यावरण और विज्ञान से जुड़ी एक पत्रिका के साथ काम किया, जहां पर्यावरण व्यापक विषय था और अन्य सभी बीट या कहानियों - राजनीति, महिला, मंत्रालय, विदेश नीति, पीएमओ, खाद्यान्न आदि को पर्यावरण के चश्मे से देखा जाता था।


'पर्यावरण राजनीति' या 'वैश्विक पर्यावरण राजनीति' जैसे शब्द लोकप्रिय और फैशनेबल बनने से बहुत पहले से हम उन पर रिपोर्ट करते आ रहे हैं।

खाद्य श्रृंखला में कीटनाशक, विलुप्त हो रही प्रजातियां, सूखे और बाढ़ की बढ़ती घटनाएं, पर्यावरण प्रवासी, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन, फसल खराब होना, ग्लोबल नॉर्थ बनाम ग्लोबल साउथ, कार्बन उत्सर्जन।।। ये हमारी रोजमर्रा की कहानियां थीं।

उस समय (और अब भी) एक पर्यावरण पत्रकार के लिए रेचल कार्सन की ऐतिहासिक किताब ‘साइलेंट स्प्रिंग’ (1962 में प्रकाशित) को पढ़ना जरूरी माना जाता था।

प्रकृति पर लिखने वाली एक प्रसिद्ध लेखिका और यूएस फिश एंड वाइल्डलाइफ सर्विस की पूर्व समुद्री जीवविज्ञानी कार्सन ने अपनी किताब में सावधानीपूर्वक वर्णन किया है कि कैसे डीडीटी (डाइक्लोरोडिफेनिलट्रिक्लोरोइथेन, एक सिंथेटिक कीटनाशक) ने सप्लाई चैन में जगह बनाई और इंसानों समेत जानवरों के फैटी टिश्यू में जाकर जमा हो गया और कैंसर एवं आनुवंशिक क्षति का कारण बना।


उन्होंने अपनी इस किताब में बताया कि कैसे फसल पर किया गया एक बार का छिड़काव हफ्तों और महीनों तक कीड़ों को मारता रहता है और बारिश के पानी में बह जाने के बाद भी पर्यावरण में जहरीला बना रहता है। किताब के सबसे परेशान करने वाले चैप्टर , 'ए फैबल फॉर टुमॉरो' में, उन्होंने एक अनाम अमेरिकी शहर का वर्णन किया था, जहां डीडीटी के हानिकारक प्रभावों से सभी जीवन "खामोश" हो गए थे।

उनके द्वारा लिखे गए चौंकाने वाले विवरणों पर शुरू में तंज कसा गया और उनका मज़ाक उड़ाया गया। लेकिन इसी किताब ने कई सरकारों को कीटनाशकों को विनियमित और प्रतिबंधित करने की राह दिखलाई, मुकदमे दायर किए गए और पर्यावरण आंदोलन दुनिया भर में मजबूत स्थिति में आ गए थे।

लेकिन अब यह एक दोहरी मार है – साइलेंट स्प्रिंग और मिसिंग स्प्रिंग यानी मूक वसंत और लापता वसंत। वसंत धीरे-धीरे मर रहा है। हम देश में अब शायद ही इसका अहसास कर पाते हों। इसके और बदतर होने की उम्मीद है। जलवायु वैज्ञानिक इसे लेकर चेतावनी देते रहे हैं।

दुनिया भर के देश बढ़ती गर्मी और पृथ्वी पर सभी जीवन रूपों पर इसके प्रभाव के बारे में चिंता दर्ज करा रहे हैं। हमारे अस्तित्व को खतरा है। यूएनएफसीसीसी (यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑफ क्लाइमेट चेंज) के तहत CoP ( कॉन्फ्रेंस ऑफ दि पार्टीज) बैठकें नियमित रूप से बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के वैश्विक लक्ष्य के साथ आयोजित की जाती हैं।


घने काले बादलों के बीच एक उम्मीद की किरण यह है कि अब पर्यावरण बेकार और उबाऊ नहीं रह गया है। पर्यावरण मुख्यधारा में आ गया है। हमारे अस्तित्व सहित बाकी सब कुछ इस पर टिका है। ग्लेशियरों और सीमा पार की नदियों के पिघलने के राजनीतिक निहितार्थ हैं। समुद्र का बढ़ता स्तर, गायब होती जमीन और बढ़ती आपदाएं पहले से ही लोगों को पर्यावरणीय प्रवासियों में बदल रही हैं। अनियमित मौसम हमारे अन्न भंडार के लिए सीधा खतरा है।

एक मूक वसंत से भी बदतर है लापता वसंत

पिछले महीने, फरवरी में मैंने गंगा नदी बेसिन में एनर्जी ट्रांजिशन पर एक राइट-शॉप में भाग लेने के लिए नेपाल की यात्रा की थी। गंगा नदी बेसिन, जो भारत, नेपाल और बांग्लादेश (और चीन में एक छोटा सा हिस्सा) के बीच साझा है। काठमांडू से नुवाकोट के अपने सफर के दौरान, मैं ग्रामीण इलाकों में फैले सेमल के पेड़ों को निहारने और तारीफ करने से खुद को नहीं रोक सकी। गंगा में बहने वाली गंडक नदी की सहायक नदी त्रिशूली नदी का साफ-सुथरा पानी मेरे इस खूबसूरत सफर में चार चांद लगा रहा था।

सेमल के पेड़ों की मेरे दिल में एक खास जगह है। पहाड़ी शहर में हमारे घर के पास भी एक ऐसा ही पेड़ हुआ करता था, जिसे देखते हुए मैं बड़ी हुई थी। हम बच्चे इसे 'राजा-रानी का पेड़' कहा करते थे और वसंत की कई दोपहरें इसके लाल फूलों को इकट्ठा करने में बीता करती थीं।


वसंत के दौरान, सेमल के लाल फूल की चमक किसी की भी भावनाओं को भड़काने लिए काफी होती हैं। इसका पेड़ एक ठूंठ की तरह खड़ा होता है, इसकी पत्तियों झड़ चुकी होती है, लेकिन सैकड़ों फूलों से चमकता ये पेड़ पक्षियों को अमृत प्रदान करता है। कवियों और प्रेमियों को प्यार का जश्न मनाने के लिए छंद लिखने के लिए प्रेरित करता है।

सेमल वसंत के आने का संकेत देता है, लेकिन इस पर भी अब फूल जल्द खिलने लगे हैं और थोड़े समय में ही इनका जादू गायब हो जाता है। नुवाकोट में एक जलविद्युत परियोजना स्थल का दौरा करते हुए, मैंने वहां सेमल के फूलों की एक कालीन बिछी देखी थी। पलाश की लौ जैसे फूलों की एक गलीचा, ज्यादा दूर नहीं था। ये फूल जो पूरे साल बसंत का इंतजार करते हैं और हमारे सांसारिक जीवन में सुंदरता जोड़ते हैं, को मैंने अपनी हथेलियों के बीच रखा और फिर बसंत से सेमल, पलाश और सैकड़ों अन्य फूलों के पेड़ों के साथ अपनी तारतम्यता बनाए रखने के लिए एक प्रार्थना की।

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