अमिताभ अरुण दुबे
छोटी नदियों का विस्तार बड़ी नदियों जितना ना हो। लेकिन जिन दायरों में ये बहती है। वहां के जीवन पर असर करती है। नदी सिर्फ़ ज़िंदगी के संग ही नहीं बहती ये ज़िंदगी के बाद भी साथ निभाती है। ये बात और है कि हम ही नदियों का साथ नहीं निभा रहें है। उस मोड़ पर भी जबकि उन्हें हमारी सबसे ज्यादा ज़रूरत है। छोटी नदियां बड़ी कहानियां सीरीज़ की इस कड़ी में मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा ज़िले की कुलबहरा नदी की कहानी का दूसरा भाग।
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इस दौर में अगर संत कबीर होते तो वो शायद नदियों की ‘ख़ैर’ मांगते। शायद कबीर कहते ‘कबीर खड़ा बाज़ार में मांगें नदियों की ख़ैर।’ ऐसा इसलिये भी लाज़मी लगता है, क्योंकि आज छोटी-बड़ी सभी नदियां अपने सबसे मुश्किल दौर से गुज़र रही है। नदियों के अस्तित्व पर मंडराते ख़तरे जैसे रुकने का नाम ही नहीं लेते। बल्कि इनकी तादात अब और भी ज़्यादा बढ़ रही है। कुलबहरा इसका जीता सबूत है। नदी केवल नदी नहीं होती। बल्कि वो सदियों की कहानियों का जीता बहता दस्तावेज़ भी होती है। इस लिहाज़ से कुलबहरा में सदियों की कहानियां आज भी बह रही है। लेकिन सदियों की कहानी वाली ये नदी तमाम तरह के संकटों से घिरी है। छिंदवाड़ा से करीब 12 किलोमीटर दूरी पर लिंगा के पास कुलबहरा नदी के तट पर कालीरात धाम है। चांद में पेंच नदी में मिलने से पहले कुलबहरा किनारे ये आखिरी धार्मिक जगह है। राज्य सरकार ने इसे पर्यटन स्थल की मान्यता भी दी है।
‘सदियों पुराना कालीरात धाम’
लोग कहते हैं कालीरात धाम सदियों पुराना है। यहां भवानी मां का सदियों पुराना मंदिर है। जिसे लोग कालीरात मंदिर भी कहते है। इस जगह का नाम भवानी यानी काली जी के नाम पर ही पड़ा। इसके आस पास लक्ष्मी नारायण, हनुमान जी, विठ्ठल रुकमणी और शिवजी दूसरे देवी देवताओं के मंदिर भी हैं। मंदिरों से सुबह शाम निकलती मंगल ध्वनियां कुलबहरा की दिव्यता बयां करती है। तीज़-त्योहारों पर होने वाले विशेष आयोजन इसे आस्था का अदद केंद्र बनाते हैं। यहां संत कबीर का आश्रम और अलग-अलग समाज की धर्मशालाएं भी है।
‘गाद के टीलों का ढेर बनी कुलबहरा’
कालीरात में कुलबहरा में जगह जगह गाद (मिट्टी) के टीले बन गये हैं। इससे नदी का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। गाद के इन टीलों की वजह से नदी की गहराई कम हो रही है। इससे आगे नदी का बहाव धीमा पड़ जाता है। ऊपरी इलाकों में हो रहे अवैध रेत खनन के नतीज़तन बाढ़ के दौरान नदी से आने वाली गाद का ज्यादातर हिस्सा यहां जमा होता है। छिंदवाड़ा में रहने वाले सुखचंद साहू बताते हैं “सांख घाट से काली रात डोह तक नदी में सफाई नहीं है। वो दिन दूर नहीं जब ये गाद मिट्टी के ये टीले पहाड़ जैसे बन जाएंगे।” कालीरात मेला प्रबंधन समिति के कोषाध्यक्ष मधु इंगले बताते हैं कि “ऊपर से मिट्टी के टीलों से दिखने वाले इन ढेरों के नीचे बहुत ज्यादा मात्रा में रेत जम गई है।” कालीरात धाम से जुड़े लोग बताते हैं “नदी को गहरा करने की दरकार है। इसके लिये पंचायत को इन टीलों की सफाई का अधिकार मिलना चाहिए।” कालीरात गोरेघाट पंचायत में आता है। गांव के सरपंच राजेश परतेती बताते हैं उन्होंने पंचायत में गाद की सफाई और गहरीकरण का प्रस्ताव दिया था। इसमें पंचायत के जरिये रेत खनन का प्रस्ताव भी था। लेकिन कुछ सदस्यों के विरोध के चलते इस पर काम नहीं हो सका।
‘गाद की सफाई पर क्या कहते हैं एक्सपर्ट”
गांव के लोग गाद के टीलों को हटाकर नदी का गहरीकरण करना चाहते हैं। क्या इससे नदी के नैसर्गिक पर्यावरण पर कोई विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इस सवाल पर जब हमने देश के मशहूर नदी विशेषज्ञ अभय मिश्रा से बात की तो उन्होंने बताया कि “किसी भी नदी का प्राकृतिक रूप से गाद के निदान अपना तरीका होता है। जिसमें नदी खुद गाद लाती और बहाती है। गहराई और उथलापन भी प्राकृतिक रूप से नदी खुद ही बनाती है।” यानी कृत्रिम तरीके से नदी को गहरा करना इसके वज़ूद पर और ज़्यादा संकट बढ़ा सकता है। अभय कहते हैं कि “ गाद या मिट्टी अगर जमा हो गई है तो थोड़ा थोड़ा ऊपर से वैज्ञानिक तरीके से हटाई जानी चाहिये। ताकि नदी पर कोई ख़तरा ना हो।”
‘यहां तक आते, सूख जाता है नदी का पानी’
कुलबहरा के किनारे पड़ने वाले ज्यादातर खेतों में किसान मोटर लगाकर इसके पानी से सिंचाई करते हैं। रूप प्रसाद बनवारी बताते हैं कि “जगह-जगह मोटरों से सिंचाई करने पर गर्मियों से पहले ही नदी का पानी सूखने लगता है।” हालांकि किसान कहते हैं पेट भरने के लिये अनाज उगाना भी जरूरी है। नदी से किसान ज़रूरत जितना ही पानी निकलाते हैं। और एक दो सिंचाई के बाद मोटर निकाल लेते हैं। लेकिन इमली खेड़ा औद्योगिक विकास क्षेत्र से चलने वाली फेक्ट्रियां सबसे ज्यादा पानी बर्बाद कर रही है।
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‘ज़िंदगी के बाद भी साथ निभाती कुलबहरा’
ज़िले के ज्यादातर लोग मृत परिजनों की खारी यानी राख का विसर्जन काली रात धाम में करते हैं। सुखचंद साहू बताते हैं ‘रोज़ाना करीब पांच से सात खारियों का विसर्जन यहां होता है। दूर दराज के लोग आते हैं। खारी संस्कार के लिये आने वाले लोगों के लिये सुविधाएं बढ़ाई जानी चाहिए। खारी विसर्जन के लिये गर्मियों में भी पानी मिले। इसकी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए।”
‘कालीरात का मशहूर मेला’
काली रात धाम ‘कालीरात मेले’ के लिये भी मशहूर है। हर साल कार्तिक पूर्णिमा पर यहां मेला लगता है। गांव के लोग मेले को सदियों पुराना बताते हैं। दशकों तक ये मेला पचमढ़ी मेले के बाद ज़िले का दूसरा सबसे बड़ा मेला रहा। (पचमढ़ी मेले का प्रबंधन छिंदवाड़ा और होशंगाबाद ज़िला मिलकर करते हैं)। लेकिन अब इसकी चमक फीकी पड़ गई है। एक महीने से ज्यादा चलने वाला मेला घटकर केवल 7 दिन का रह गया है। सुखचंद साहू बताते हैं “किसी समय मेले में हज़ारों बैलगाड़ियां आती थी। ज़रूरत के छोटे बड़े सामान मिलते थे। मेला सोने चांदी की दुकानों के लिये प्रसिद्ध था। करोड़ों रुपयों कारोबार होता था।”
मेला सुनहरे दौर में इलाके के किसानों के लिये बड़ी राहत था। क्योंकि किसानों को खेती बाड़ी के सामान जैसे मोट (रहट) से लेकर गहने तक सालभर की उधारी पर मिल जाते थे। मधु इंगले कहते हैं “ठेकेदारी से मेला टूट गया। लेकिन पिछले 5 साल से गांव वाले इसका प्रबंधन करते हैं। व्यापारियों पर बोझ ना पड़े इसके लिये उनकी मर्जी के मुताबिक ही टैक्स लिया जाता है। इस तरह से मेला अब नि:शुल्क ही है।”
‘संत कबीर का आश्रम’
कुलबहरा धाम में संत कबीर का आश्रम और मंदिर भी है। सिंगौड़ी के बाद ये ज़िले का दूसरा कबीर मंदिर है। आश्रम की दर –ओ- दीवार पर संत कबीर के दोहे लिखे हैं। पंढरी इंगले और उनकी धर्मपत्नि रुकमा इंगले ने इस आश्रम को बनवाया था। यहां नियमित रूप से कीर्तन सतसंग और गुरू पूर्णिमा पर विशेष आयोजन होता है। संतकबीर ने कभी कहा था साधो ये मुर्दों का गांव। नदियों को लेकर हमारी संवेदनायें कहीं मरती तो नहीं जा रही है। हमें सोचना होगा। पर्यटन विभाग ने कालीरात क्षेत्र के विकास के लिये करीब 40 लाख रुपये खर्च किये हैं। लेकिन इसके बावज़ूद यहां कायदे की व्यवस्था क्यों नहीं बन पायी। और आखिर मध्यप्रदेश में राजनीतिक मुद्दा बन चुका अवैध रेत खनन, पर्यावरण से जुड़ा मुद्दा क्यों नहीं बन पा रहा है। ‘कुलबहरा की कहानी’ की अगली कड़ी में हम इसकी पड़ताल करेंगे। पढ़ते रहिये हमारी स्पेशल सीरीज़ ‘छोटी नदियां बड़ी कहानियां’।
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