प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बहुत प्रयास किया भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने के लिए लेकिन चीन ने दीवार खड़ी कर दी। इस बात पर बहस हो सकती है क्या प्रतिष्ठा दांव पर लगानी चाहिए थी मोदी को। चीन भूल रहा है अपने दिन जब भारत ने सोवियत रूस के साथ मिलकर चीन को सदस्य बनाने के लिए 25 साल तक बराबर सहयोग दिया था। तब जाकर 1971 में उसे सदस्यता मिल पाई थी। चीन अलग-थलग पड़ गया था फिर भी 1964 में उसने परमाणु परीक्षण कर लिया था जबकि भारत ने 1974 में किया था। उन्हीं दिनों चार्टर में संशोधन किया गया कि 1967 से पहले जिन्होंने परमाणु परीक्षण कर लिया था उन्हें तो नहीं, बाकी सब को एनपीटी (नॉन प्रॉलिफिरेशन ट्रीटी) पर हस्ताक्षर करने होंगे।
भारत ने हस्ताक्षर नहीं किए और करना भी नहीं चाहिए था। यह दोहरा मापदंड है। भारत को परमाणु शक्ति वाला देश नहीं माना गया जबकि चीन को माना गया। सच यह है कि नेहरू की भूलों का परिणाम मोदी को भुगतना पड़ रहा है। नेहरू ने दोस्ती के लिए अमेरिका द्वारा बढ़ाया गया हाथ नहीं थामा अन्यथा पाकिस्तान का दर्द नहीं होता, कश्मीर समस्या नहीं होती और भारत पचास के दशक में ही सुरक्षा परिषद का सदस्य बन जाता। अब नेहरू अनुयायी और मोदी विरोधी कूटनीति की असफलता कहते हैं। ऐसा तो कतई नहीं है क्योंकि दुनिया में भारत की स्वीकार्यता पहले इतनी कभी नहीं रही।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ तो विश्वयुद्ध में जापान के खिलाफ़ चीन के योगदान को देखते हुए उसका स्थायी सदस्यता का हक बनता था। उस समय अमेरिका माओत्सेतुंग के कम्युनिस्ट चीन के खिलाफ था और उसकी जगह च्यांग काइ शेक के फारमोसा जो अब ताइवान है, उसे सदस्य बना दिया। कहा जाता है कि अमेरिका कम्युनिस्ट चीन के बजाय 1950 में प्रजातांत्रिक भारत को स्थायी सदस्य बनाना चाहता था। जवाहर लाल नेहरू ने अस्वीकार कर दिया। दोबारा कहते हैं 1955 में प्रस्ताव था अनौपचारिक लेकिन स्वयं नेहरू ने लोकसभा में ऐसे किसी प्रस्ताव के अस्तित्व से इनकार किया था।
स्थायी सदस्यता के लिए भारत को दुनिया की महाशक्ति बनना पड़ेगा। चीन ने अपनी शक्ति बढ़ाई और अपनी सदस्यता के लिए शर्त लगा दी थी कि वह तभी सदस्य बनेगा जब ताइवान को हटाकर उसे जगह मिलेगी। अमेरिका सहित दुनिया के देशों को चीन की शर्त माननी पड़ी, ताइवान हटा और चीन सदस्य बना। जब भारत महाशक्ति बन जाएगा तो दुनिया की तरफ़ ताकना नहीं पड़ेगा। आज अमेरिका के 17 ट्रिलियन डॉलर सकल घरेलू उत्पाद के बाद चीन का 10 ट्रिलियन डॉलर और भारत का दो से भी कम है इसलिए प्रतीक्षा तो करनी होगी।
इस समय सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं अमेरिका, रूस, इंग्लैंड, फ्रांस और चीन जिनके पास वीटो पावर है। वैसे जर्मनी और जापान की हैसियत इंग्लैंड और फ्रांस से कम नहीं है लेकिन वे स्थायी सदस्य नहीं हैं, शायद इसलिए कि ये हिटलर के साथ थे। जर्मनी, भारत और ब्राजील के मिल जाने के बाद इनकी शक्ति बढ़ेगी और दुनिया का शक्ति सन्तुलन बदलेगा लेकिन भारत का कितना लाभ होगा सुरक्षा परिषद का सदस्य बनकर, विवादास्पद है। परमाणु ऊर्जा आयोग के सदस्य एमआर श्रीनिवासन का कहना है कि सदस्यता से भारत को कुछ विशेष लाभ नहीं होगा।
भारत का रास्ता रोकने के लिए चीन ने पाकिस्तान को ढाल बनाया जिसकी हैसियत सब जानते हैं। हमें निराश होने का कोई कारण नहीं क्योंकि चीन ने 26 साल तक प्रयास किया था और भारत ने अब मोदी के नेतृत्व में आरम्भ किया है। देखा जाए तो प्रतिष्ठा के अलावा कोई बड़ा भौतिक लाभ नहीं होने वाला है सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट मिलने से लेकिन प्रतिष्ठा के लिए ही सही, देश को सदस्यता के लिए प्रयास जारी रखना ही चाहिए।