ग़रीबों को आरक्षण का अचानक प्रस्ताव आया और चट से संसद में पेश हुआ और पट से दोनों सदनों में पास हो गया। बेशक संसद में बहस के बाद पास हुआ है, लेकिन बहस के दौरान इस विधेयक के कई नकारात्मक पहलुओं पर भी कहा सुना गया।
इसके विरोध के तर्को में संवैधानिकता और इसकी अहमियत जैसे मुद्दे सामने आए। संवैधानिकता पर आखिरी फैसला तो संविधान की बारीकियां समझने वाली अधिकृत संस्थाएं ही करेंगी। लेकिन यह विधेयक संबंधित तबके के कितना काम का साबित होगा इसकी पूरी पड़ताल होना बाकी है।
आमतौर पर किसी चीज़ की अहमियत का फैसला वक्त ही कर पाता है। फिर भी प्रस्ताव आते ही पत्रकार जगत में इसकी अहमियत का अंदाजा लगना शुरू हुआ और संसद में बहस के दौरान तो इसके संभावित फायदों और संभावित निरर्थकता को लेकर बहस की रस्म अदायगी भी हुई।
अब वह तबका जिसके लिए इस आरक्षण से लाभ की बात कही जा रही है वह तबका भी हिसाब लगाने में लग गया है कि उसे इससे क्या नफानुकसान होगा। यानी इस मुददे पर बहस या सोच विचार की पूरी गुंजाइश अभी भी बाकी रह गई दिखती है।
राज्य सभा में बहस के दौरान एक रोचक टिप्पणी
सांसद डेरिक ओब्रायन ने इस विधेयक की सार्थकता का एक गणितीय विश्लेषण किया। उन्होंने कहा कि स्थिति यह है कि देश में उपलब्ध सरकारी नौकरियों की संख्या लगभग शून्य है। जातिगत सामान्य श्रेणी के लोगों के लिए आरक्षण की जो व्यवस्था की जा रही है, वह दस प्रतिशत है। यानी जब उपलब्ध रोजगारों की संख्या शून्य हो तो उसका दस फीसद शून्य ही होगा। इस तरह उन्होंने इस कवायद को निरर्थक साबित कर दिया।
क्या यही विश्लेषण आरक्षण पाए लोगों के लिए भी हो सकता है?
बिल्कुल होना चाहिए। देश में जिस भयावह स्तर की बेरोज़गारी है उसमें जिन वर्गों को आरक्षण मिला हुआ है उन वर्गों में भी इस समय रोजगार को लेकर भारी असंतोष है। जहां एक नौकरी के लिए दो हजार युवा बेरोजगार लाइन लगाए हों वहां कोई भी आरक्षण कर भी क्या लेगा। नौकरी एक को ही मिलेगी। आरक्षण के बिना भी और आरक्षण के बावजूद भी नौकरी का मौका हजारों में एक को ही मिलेगा। और बचे हुए लगभग सारे के सारे बेरोज़गार ही रहेंगे।
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यहां सारी कवायद हजारों में एक चुनने तक सीमित है। ये अलग बात है कि उम्मीद लगाने का मौका दसियों करोड़ युवकों को मिलता है। इसीलिए आरक्षण का राजनीतिक महत्व है। फिर भी संसाधनों के संकटकाल में अगर एक बूंद का भी समान बंटवारा करना हो तो कोई न कोई तर्कपूर्ण व्यवस्था तो होनी ही चाहिए।
दस फीसद तय कैसे हुआ?
देश में उपलब्ध अवसरों में पहले से आरक्षित 49 दशमलव पांच फीसद सीटों को घटा दिया जाए तो सामान्य वर्ग के लिए साढ़े पचास फीसद अवसर बचे हुए हैं। ये जो नया विधेयक आया है, वह इन्ही सामान्य वर्ग के लोगों में एक निश्चित वर्ग के लिए आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए है।
सामान्य श्रेणी में इस निश्चित वर्ग का नाम दिया गया है आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग। लेकिन इस वर्ग के लिए सिर्फ दस फीसद का आरक्षण का तर्क अभी दिया नहीं गया है। जाहिर है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए अगर आरक्षण की कोई मात्रा तय होना हो तो हमें यह देखना पड़ेगा कि इस वर्ग की आबादी कितनी बैठती है।
और उसी अनुपात से मेल खाती आरक्षण की मात्रा तय होना न्यायपूर्ण माना जाना चाहिए। लेकिन हमें अभी साफ साफ नहीं पता कि आर्थिक रूप से कमजोर इस वर्ग की सही-सही संख्या क्या है? फिर भी अनुमान तो लगाया ही जा सकता है।
गणित और सांख्यिकी के लिहाज से अनुमान
संसद में बहस के दौरान इस आरक्षण की सार्थकता के लिए बहुत ही रोचक आकलन हुए। कहा गया कि जिस कमजोर आर्थिक वर्ग के लिए यह आरक्षण किया जा रहा है उनकी संख्या तो कुल आबादी की 95 फीसद से भी ज्यादा बैठेगी। दर्शनशास्त्रीय तर्क के आधार पर आसानी से हिसाब लगा लिया गया कि देश में आयकर देने वालों की संख्या ही लगभग तीन फीसद है।
सो आरक्षण के लिए सुग्राही इस कथित कमजोर तबके की संख्या तो 97 फीसद बैठेगी। सत्तानवे फीसद के अनुमान का आधार यह है कि आयकर ढाई लाख से ज्यादा आमदनी पर लगने लगता है जबकि आरक्षण योग्य जो नया वर्ग बताया जा रहा है उसके लिए सालाना आय की सीमा आठ लाख रखी जा रही है। यानी आठ लाख सालाना से कम आमदनी वाले परिवारों की संख्या देखें तो वे देश की कुल आबादी का 97 फीसद ही बैठेंगे।
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इनमें से अगर उस आबादी को घटा दें जिन्हें पहले से आरक्षण मिला हुआ है तो भी इनकी संख्या लगभग 45 फीसद बैठेगी। यानी 50 फीसद सामान्य वर्ग में से करीब 90 फीसद युवाओं को सरकार ने इस आरक्षण का पात्र बना देने का इरादा जताया है। अब सोचने के लिए यह बात बनती है कि इतने बड़े सामान्य श्रेणी के गरीबों के वर्ग के लिए सिर्फ दस फीसद आरक्षण का तर्क क्या बना?
जो हमें नहीं पता
पत्रकारनुमा जागरूक तबके को या भुक्तभोगी बेरोजगार तबके को अभी यह साफ-साफ पता नहीं है कि देश में चालू व्यवस्था में रोजगार या दाखिले के लिए कितने अवसर हैं और उन अवसरों में आरक्षित या सामान्य श्रेणियों के उम्मीदवारों को मुहैया अवसरों का अनुपात क्या है।
यह बात तो बिल्कुल भी नहीं पता कि सामान्य श्रेणी के जिस गरीब तबके उम्मीदवारों को यह आरक्षण दिया जा रहा है उस गरीब तबके के उममीदवारों को पहले से चालू व्यवस्था में कितने फीसद मौके मिल रहे हैं। क्योंकि चालू व्यवस्था में आठ लाख से कम आय वाले परिवारों के युवाओं को अभी अपनी योग्यता के आधार पर रोजगार और दाखिले के मौके पहले से हासिल हैं ही। बस यह नहीं पता कि योग्यता की प्रतिस्पर्धा में कितने फीसद युवा यह अवसर पा पा रहे हैं।
एक पक्ष अन्य पिछड़े वर्गों का भी
अभी जो व्यवस्सथा चालू है उसमें ओबीसी को 27 फीसद आरक्षण मिला हुआ है। उनकी आबादी 40 फीसद है। इसीलिए तर्क यह दिया जाता है कि 27 फीसद तो उस वर्ग के लिए आरक्षित है ही बाकी के युवा अपनी योग्यता के आधार पर सामान्य श्रेणी के लिए बची आधी से ज्यादा सीटों में भी मौके पा सकते हैं। यानी एक तरह से 27 फीसद के साथ साथ पिछड़े वर्ग के लिए योग्यता के आधार पर सामान्य श्रेणी में जो मौके उपलब्ध थे वे मौके अब 10 फीसद कम हो जाएंगे।
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अंत में वही बात आएगी कि भले ही सामान्य वर्ग के युवा हों या आरक्षित वर्ग के युवा, आखिर वे हैं तो देश के ही युवा, वे सभी शिक्षा दीक्षा रोज़गार पाने के लिए हासिल कर रहे हैं लिहाज़ा इनमें से किसे ज्यादा अवसर देना है यह बात उतनी बड़ी नहीं है जितनी बड़ी यह बात है कि ज्यादा से ज्यादा ध्यान युवाओं के लिए रोज़गार पैदा करने के काम पर लगाया जाए।
(लेखिका प्रबंधन प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रनोर हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)