केदार सिरोही
देश में किसान आंदोलन की आँच महसूस की जाने लगी है। जो लोग ये समझ रहे हैं कि किसानों का सब्र अब जबाब देने लगा है, उन्हें जानना चाहिए कि किसानों की ये समस्या आज की नहीं, यह बीमारी बहुत पुरानी है। जब आज़ादी के पहले अंग्रेज 6 % तक का उत्पाद कर किसानों पर लगाते थे या उपज का कम दाम देते थे, तो उनके विरोध में देश में किसानों के कई आंदोलन हुए, जिनमें नील की क्रांति, चंपारण का आंदोलन जैसे कई आंदोलन थे, सबकी लड़ाई भी आज की तरह ही थी। उस समय भी किसान आर्थिक आजादी माँग रहे थे और आज भी आर्थिक संबलता की लड़ाई जारी है।
देश के आजाद होने के बाद किसानों ने अपनी तरफ से उत्कृष्ट परिणाम देकर आयात पर आधारित और भूखमरी से पीड़ित देश को खाद्यान में आत्म निर्भर बना दिया है। एक समय था जब भारत सोने की चिड़िया था, आज किसानों के परिश्रम ने इसे अन्न के भंडार का देश बना दिया। फिर भी देश में किसानों और कृषि की हालत बेहद खराब होती रही है। एक समय था जब जीडीपी में कृषि की कृषि की भागीदारी 50 % तक हुआ करती थी और जब 40 करोड़ जनसंख्या थी, जिसमें से 2 करोड़ लोग कृषि पर आधारित थे। आज देश की जीडीपी में 17 % की भागीदारी रही है और 125 करोड़ लोगों में 80 करोड़ लोग आज भी कृषि पर निर्भर हैं। जीडीपी में किसानों की हिस्स्सेदारी घटती गई। लोग बदलते गये और साथ ही साथ कृषि में कुल जीडीपी का 1 से 2 % का हिस्सा खर्च होता रहा, परंतु सरकारों द्वारा इंडस्ट्रीज और सर्विस सेक्टरों को बढ़ावा देती गई, जिसके चलते देश की खेती आज अधिक उत्पादन होने के बाद भी आत्महत्या का गढ़ बन गई है।
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देश में हर दिन किसानों की आत्महया का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है, फिर भी नीति निर्धारकों को कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा। क्योंकि कहने को, जो लोग नीति निर्धारण में लगे हैं, उनकी खेती लाभ का धंधा है। हर अधिकारी और नेता की ज़मीन खेतों से सोना उगल रही है। जबकि उसी खेत में मेहनती किसान की ज़मीन से घाटा हो रहा है। यह समझ से परे है कि जो लोग खेती को पार्ट टाइम करते है, उनकी खेती लाभ का धंधा है और जो लोग सपरिवार फुल टाइम करते हैं उनकी खेती घाटे का सौदा है। दूसरा जब नेता और अधिकारियों की खेती लाभ का धंधा है, तो यह विदेशों में टेक्नोलाॅजी लेने क्यों जाते है? क्यों न खुद के खेत की तकनीक किसानों के सामने सांझा कर रहे हैं।
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आज देश में जिन बातों के लिए लड़ाई चल रही है, उनमें एक लागत मूल्य, कर्जमुक्ति, किसान पेंशन, स्वास्थ्य सुविधाएं और रोज़गार प्रमुख है। इसके लिए सरकार के पास कोई ठोस उपाय नहीं है। कर्जमुक्ति भी सिर्फ़ समस्या की लीपा पोती ही है। क्योंकि देश और सरकार को मालूम है कि किसान भूखा मर जाता है पर कर्ज़ ज़रूर चुकाता है। मात्र कुछ किसान ही विशेष परिस्थितियों में यदा कदा डिफाल्टर होते हैं, बाकी सब तो किसी न किसी तरह ऋण जरूर चुकाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में सरकारों को कर्ज़ माफी की जगह किसानों को प्रति एकड़ कृषि सहायता राशि देना चाहिए, जिससे सभी किसानों का फायदा होगा। अगर कोई सरकार ऐसा करती है तो बाजार में इसका परिणाम भी देखने को मिलेगा। किसानों की खरीदने की शक्ति बाढ़ेगी और कृषि में इनवेस्टमेंट बाढ़ेगा। यह किसानों तक मदद पहुंचाने के लिए उचित न्याय होगा।
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इसी तरह किसान के उत्पाद का लाभकारी मूल्य देते समय भी यह ध्यान देना चाहिए कि यह सिर्फ़ सरकारी खरीदी पर न होकर उसके प्रति एकड़ उत्पादन पर हो। क्योंकि देश में समर्थन मूल्य पर कुल 6 % किसान ही अपनी 3-4 फसलों को बेच पाते हैं। बाकी किसानों को फायदा नहीं मिलता। इसलिए इसमें भी सरकार प्रति एकड़ फार्म इंसेनटीव देकर किसानों को तुरंत लाभ दे सकती है। यदि सरकार किसानों के हित में समय रहते जागरूक नहीं हुई और किसानों की समस्या का समाधान नहीं किया गया, तो निश्चित ही हाल ही में हुए किसान आंदोलनों को देखते हुए यह समझ लेना चाहिए कि आने वाले दिनों में देश में एक बड़ा भूचाल आएगा। कुछ लोग भूख के लिए लड़ेंगे तो कुछ मूल्य के लिए।
(लेखक किसान नेता हैं, ये उनके निजी विचार हैं)
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