प्रभुनाथ शुक्ल
राजनीति की कोई भाषा और परिभाषा नहीं होती। समय, काल, परिस्थितियों के अनुसार जो बात उसके हित में हो, वही उसकी विचारधारा और सिद्धांत बन जाती है। राजनीति नित नए नारे गढ़ती और सीमा विस्तार में अधिक विश्वास करती है।
देश की राजनीति और राजनेताओं के लिए कुछ शब्द बेहद संवेदनशील और सियासी नफे-नुकसान की दृष्टि से लोकप्रिय हैं, जैसे कि दलित, गाय, हिंदू, सेक्युलर, अल्पसंख्यक वगैरह। इन शब्दों को उछालकर खूब सियासत होती है। लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था में सबसे प्रतिष्ठित पद राष्ट्रपति का है।
महामहिम के चुनाव को लेकर इन दिनों खूब राजनीति गरम है। इस बीच ‘दलित’ शब्द बेहद लोकप्रिय हुआ है। राजनीति में दलितवाद को लेकर बेहद उदारता दिखाई जा रही है। दलित शब्द बेहद लोकप्रिय हो चला है। राजनीतिक दल इस पर जरूरत से ज्यादा सहानुभूति उड़ेल रहे हैं।
राजनीति में इस शब्द की महत्ता को देखकर हमें समुद्र मंथन का दृष्टांत सामने दिखता है। दलित शब्द मथानी हो चला है, जबकि कोविंद और मीरा कुमार उस मथानी की डोर बने हैं। कांग्रेस और भाजपा पूरी ताकत से इसे अपनी-अपनी तरफ खींचने में लगे हैं। राष्ट्रपति उम्मीदवार के लिए भाजपा और कांग्रेस की तरफ से घोषित दोनों उम्मीदवारों पर कभी राजनीतिक कदाचार का आरोप नहीं लगा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दोनों व्यक्तित्व महामहिम की पद और गरिमा के बिल्कुल योग्य हैं।
मृदुभाषिणी मीरा की दक्षता, शिष्टता और योग्यता पर उंगली नहीं उठाई जा सकती, फिर भी एक सवाल कचोटता है। असल बात यह कि राष्ट्रपति पद के लिए सर्वसम्मति से घोषित उम्मीदवार होना चाहिए था। ऐसा न होना किसी दुर्भाग्य से कम नहीं है। राजनीतिक अनुभव के लिहाज से देखा जाए, तो मीरा कुमार कोविंद से ज्यादा योग्य मानी जा सकती हैं। वह वर्ष 2009 से 2014 तक वह लोकसभा अध्यक्ष रह चुकी हैं। उन्हें राजनीति और सदन चलाने का अच्छा खासा अनुभव है।
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दूसरी सबसे बड़ी बात कि मीरा कुमार और कोविंद, दोनों दलित जाति से आते हैं। लेकिन मीरा कुमार महिला भी हैं। राजनीति के केंद्र में महिलाओं की उन्नति मूल में रहती है, लेकिन जब परीक्षा का वक्त आता है तो सभी पीछे हट जाते हैं। ऐसी स्थिति में एक महिला और वह भी दलित समुदाय से, मीरा कुमार इस पद के लिए सबसे अच्छी सर्वसम्मत उम्मीदवार हो सकती थीं। अगर ऐसा होता तो मीरा देश की दूसरी महिला और पहली दलित महिला राष्ट्रपति होतीं।
सत्ता और प्रतिपक्ष के पास यह अच्छा मौका था, लेकिन फिलहाल आम सहमति बनाने की पहल नहीं की जा सकी। निश्चित तौर पर दलित, पिछड़ों और समाज के सबसे निचली पायदान के लोगों का सामाजिक उत्थान होना चाहिए। उन्हें समाज में बराबरी का सम्मान मिलना चाहिए। ऐसे लोगों का आर्थिक सामाजिक विकास होना चाहिए। लेकिन राजनीति में जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय की मनिया कब तक जपी जाती रहेगी, सवाल यह है। महामहिम की कुर्सी पर विराजमान होने वाला व्यक्ति भारतीय गणराज्य और संप्रभु राष्ट्र का राष्ट्राध्यक्ष होता है।
संवैधानिक व्यवस्था में उसका उतना ही सम्मान और अधिकार संरक्षित है, जितना इस परंपरा के दूसरे व्यक्तियों का रहा है। दलित शब्द जुड़ने मात्र से उस पद की गरिमा नहीं बढ़ जाएगी। राष्ट्रपति के संवैधानिक अधिकारों में कोई बदलाव नहीं आएगा। राष्ट्रपति को असीमित अधिकार नहीं मिल जाएंगे।
संसद को जो विशेषाधिकार है, वह राष्ट्रपति को नहीं है। महामहिम दलितों के लिए कोई अलग से कानून नहीं बना पाएंगे। भारतीय गणराज्य के संविधान में सभी नागरिकों को समता, समानता का अधिकार है, फिर वह दलित हो या ब्राह्मण, हिंदू, सिख, ईसाई, मुसलमान सभी को यह अधिकार है। हमारा संविधान जाति, धर्म, भाषा के आधार पर कोई भेदभाव की बात नहीं करता है। फिर महामहिम जैसे प्रतिष्ठित पद के लिए दलित शब्द की बात कहां से आई। सिर्फ दलित समुदाय में पैदा होना ही क्या दरिद्रता, विपन्नता की पहचान है?
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भाजपा रामनाथ कोविंद को लेकर और कांग्रेस व समर्थन करने वाले अन्य 16 दल मीरा कुमार को लेकर लामबंद हैं, क्योंकि दोनों उम्मीदवार दलित समुदाय से हैं। पहले भाजपा ने एक दलित को उम्मीदवार बनाया, जवाब में विपक्ष ने भी वैसा ही किया। वास्तव में क्या कोविंद और मीरा कुमार की हैसियत एक दलित की है? क्या दोनों व्यक्ति आम दलित की परिभाषा में आते हैं? देश की संवैधानिक व्यवस्था में दोनों व्यक्तित्वों का जो सम्मान है, क्या उसी तरह का सम्मान एक आम दलित का है?
बार-बार दलित और गरीब की राजनीति क्यों की जाती है? दलितों की चिंता और गरीबी मिटाने पर घड़ियाली आंसू क्यों बहाए जाते हैं। देश में हजारों हजार की संख्या में दलित नेता हुए जो समाज की मुख्यधारा से हटकर अपनी अलग पहचान बनाई।
डॉ. भीमराव अंबेड़कर का पूरा जीवन ही दलितोत्थान के लिए समर्पित रहा। सामाजिक परिवर्तन में कई हस्तियों ने अहम भूमिका निभाई है। मायावती जैसी दलित नेता यूपी की चार बार मुख्यमंत्री रहीं। इन सबके बाद भी आम दलित की हालत में क्या सुधार हुआ? क्या दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर विराम लगा? क्या उना जैसी घटनाएं अब नहीं होंगी? सहारनपुर में क्या फिर दलित और अगड़ा संघर्ष की घटनाएं नहीं होंगी?
इस तरह की घटनाओं से इतिहास अटा पड़ा है। फिर राजनीति दलित पर घड़ियाली आंसू क्यों बहाती है? महामहिम जैसे सम्मानित पद के लिए रामनाथ कोविंद एवं मीरा कुमार का नाम ही स्वयं में पर्याप्त है, उस पर ‘जाति की चाशनी’ चढ़ाना क्यों आवश्यक है? क्या कलावती और अन्य दलितों के यहां किसी राजनेता के भोजन करने से उनके हालात में सुधार आएगा?
राजनीति का मकसद सिर्फ साम्राज्य विस्तार है। वह अपने हित के अनुसार शब्दों का मायाजाल गढ़ती और उसी के अनुसार प्रयोग करती है। उसे वोट बैंक की राजनीति अधिक पसंद है। इसकी वजह है कि राजनीति में जाति, धर्म, भाषा सबसे प्रिय विषय है। समय-समय पर यह मंत्र उसके लिए अमृत का काम करता है।
वह हर सर्जिकल स्ट्राइक को अपने अनुसार भुनाती है। इसके पीछे भी राजनीतिक कारण रहे हैं, क्योंकि 60 वर्षों के राजनीतिक इतिहास में सत्ता की चाबी कांग्रेस के पास रही है। भाजपा के लिए पहली बार अपनी राजनीति साधने का मौका मिला है, भला उस स्थिति में वह अपने सियासी दांव से कैसे पीछे रह सकती है।
दूसरी बात, कांग्रेस पतन की तरफ बढ़ रही है। भाजपा मौका पाकर कांग्रेस मुक्त भारत अभियान को आगे जारी रखना चाहती है। दलित जाति के कोविंद को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाकर जहां भाजपा ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं, वहीं इसी बहाने मोदी और शाह की जोड़ी आडवाणी और जोशी जैसे राजनीतिक दिग्गजों को किनारे लगाने में भी कामयाब रही है। स्पष्ट है कि वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने दलित वोटों को पार्टी के पक्ष में लामबंद करने के लिए यह चाल चली है।
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भाजपा इससे जहां मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और दूसरों के मुंह बंद करने में कामयाब रही है, वहीं हाल के सालों में कुछ राज्यों में होने वाले चुनाव में दलित वोट बैंक उसके निशाने पर हैं। कोविंद मूलत उत्तर प्रदेश के कानपुर के परौख गांव से आते हैं। यूपी दलित मतों के लिहाज से लोकसभा चुनाव में अहम भूमिका निभा सकता है। ऐसी स्थिति में कोविंद को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाना भाजपा की सोची-समझी रणनीति है। अभी तक कयास लगाए जा रहे थे कि सबसे वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को राष्ट्रपति बनाया जा सकता है, लेकिन मोदी एंड शाह की जोड़ी ने सारे कयासों पर पानी फेर दिया।
हालांकि यह सब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की हरी झंडी के बाद ही हुआ है। कोविंद को उम्मीदवार बनाने में संघ की खासी भूमिका दिखती है। लेकिन भाजपा ने जाति का दांव खेलकर सभी राजनीति दलों को चित्त कर दिया। ऐसे में कोविंद के मुकाबले मीरा कुमार को उतारना कांग्रेस और प्रतिपक्ष की मजबूरी बन गई थी। चुनाव के नतीजे जो भी हों, लेकिन कोविंद के मुकाबले मीरा कुमार हर स्थिति में फिट बैठती हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)
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