कानूनी दांव-पेच से अनजान छत्तीसगढ़ की इन महिलाओं को लगातार करना पड़ रहा है परेशानियों का सामना

आजादी के इतने सालों बाद भी भारत का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जहाँ लोगों को पता ही नहीं कि उनके पास क्या कानूनी विकल्प हैं। इनमे दूर-दराज़ के गाँव में रहने वाले या पिछड़ी जाति और आदिवासी मात्र ही नहीं, बल्कि शहरो में रहने वाले पढ़े-लिखे लोग भी शामिल हैं जो पेचीदा कायदे-कानून समझ नहीं पाते।

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कानूनी दांव-पेच से अनजान छत्तीसगढ़ की इन महिलाओं को लगातार करना पड़ रहा है परेशानियों का सामना

स्वाति सुभेदार

इस देश में न्याय नहीं मिलता; यह एक मान्यता बन चुकी है। 'अमीरों का काम बन जाना और बेगुनाह, गरीब सालों तक जेलों में पड़े रहना' जैसे कई उदाहरण भारत की न्याय व्यवस्था पर सवाल खड़े करते हैं।

आजादी के इतने सालों बाद भी भारत का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जहाँ लोगों को पता ही नहीं कि उनके पास क्या कानूनी विकल्प हैं। इनमे दूर-दराज़ के गाँव में रहने वाले या पिछड़ी जाति और आदिवासी मात्र ही नहीं, बल्कि शहरो में रहने वाले पढ़े-लिखे लोग भी शामिल हैं जो पेचीदा कायदे-कानून समझ नहीं पाते।

हाल ही में एक ऐसी घटना घटी जिसने मुझे हताश और निराश कर दिया। करीब दो हफ्ते होने को आये हैं लेकिन छत्तीसगढ़ के दोरनापाल गाँव में मिली उन महिलाओं के बारे में आज भी जब मैं सोचती हूँ तो दुःख होता है कि मैं उनके लिए कुछ भी करने में असमर्थ रही।

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नक्सल प्रभावित है यह गाँव। इन महिलाओं से मेरी मुलाकात दोरनापाल के एक पोटा केबिन स्कूल में हुई थी। करीब 14 महिलाएं, जिनमें से कुछ के पास छोटे बच्चे भी थे, हताश, स्कूल के बहार बैठी थी। ये सिर्फ गोंडी भाषा समझती थी जिस वजह से इनकी बातों को समझना मुश्किल था।


इनके साथ एक युवक भी आया था जो हिंदी समझता था और एक स्कूल में शिक्षक है, उसने बताया कि वे तद्मेतला गाँव से है जो वहां से कुछ 40 किमी दूर है। कुछ पंद्रह दिन पहले इस गाँव को सुबह 4 बजे पुलिस ने घेरा और पचास से अधिक लोगों को यह कह कर उठा ले गयी कि उनके नक्सलियो से सीधे संपर्क हैं। जब महिलाओं ने उन्हें रोकना चाहा तो उन्हें मारा गया। इन आदमियों को, जिनमे से कुछ बुज़ुर्ग भी थे, 40 किमी दूर, बुर्खापल में एक कैंप में ले जाया गया। इनमे से कुछ को तो छोड़ दिया गया लेकिन 13 को अब भी कैंप में रखा गया था।

इनकी महिलाओं को यह तक नहीं पता था की उनपे क्या केस लगाया गया है। क्या वो वाकई बुर्खापल कैंप में है? क्या सारे लोग एक ही कैंप में हैं? कितने दिन उनसे पूछताछ की जाएगी? कितने दिन उन्हें हिरासत में रखा जाएगा? उनपे अगर कोई चार्ज लगाया गया तो वो क्या होगा और उन्हें कौन बताएगा की क्या चार्ज लगा है, उसके बाद उन्हें किसके पास जाना चाहिए, कौन उनकी आर्थिक या न्यायिक रूप से सहायता करेगा?

इनमे से कुछ ने उम्मीद ही छोड दी थी की उनके पति या बेटे वापस आयेंगे। इनमे से एक महिला, दुधि लुक्के का हाल बेहाल था। 2 साल पहले उनके पति को ऐसे ही पुलिस उठा के ले गयी थी जिसके बाद से उनका कोई पता नहीं चला कि वो कहाँ है। इस बार तो इनके इकलौते बेटे को पुलिस ले गयी। इनमे से सारे लोग गरीब किसान हैं और गिरफ्तार हुए सारे युवक अकेले कमाने वाले है। कई हफ्तों पहले कावासी कोसा नामक एक आदिवासी की इस गाँव में माइन-ब्लास्ट में मौत हुई थी जिसके चलते इन गिरफ्तारियों को अंजाम दिया गया।

इस घटना के काफी पहलु हैं। हो सकता है पुलिस द्वारा की गयी गिरफ्तारी जायज़ हो।

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लेकिन क्या किसी को इतने दिन हिरासत में रखना जायज़ है? क्या परिवार वालो को ये भी जानने का हक़ नहीं की उन्हें किस जुर्म में गिरफ्तार किया गया है और कहा रखा गया है? क्या उन्हें उनसे मिलने दिया जायेगा? कितने महीनो या सालो तक खिचेगा यह मामला? अगर महिलाओं पर पुलिस द्वारा वाकई हाथ उठाया गया तो क्या ये उनके मानव अधिकार का हनन नहीं है?

ये सारे पहलु एक तरफ, और इन महिलाओं की लाचारी एक तरफ। आज़ादी के 70 साल बाद भी इन महिलाओं को इनके कानूनी विकल्प नहीं पता या उन्हें बताने वाला कोई नहीं था। वो 40 किमी गाँव से दूर आ तो गयी लेकिन उन्हें यह तक पता नहीं था के उन्हें किससे मिलना है या कहा जाना है। दो हफ्ते बाद जब उस शिक्षक से फ़ोन पे बात हुई तो पता चला के गिरफ्तार युवको को सुकमा जेल में रखा गया है। वो महिलाये अपने पति से मिल भी नहीं पाई हैं या नहीं? एक वकील जो राज़ी हुआ है उनका केस लड़ने वो इनसे 5000 रुपये मांग रहा है और कह रहा है अगर कुछ हुआ तो भी वो राजकीय चुनाव के बाद होगा ।

अगर ये लोग गुनहगार हैं भी तो क्या इन्हें अपना पक्ष रखने का हक़ है? लेकिन अगर ये लोग गुनहगार नहीं है तो? यह एक बड़ा सवाल है।

नवम्बर को हर साल 'कानूनी सेवा दिन' मनाया जाता है। इसी दिन 1995 में नेशनल लीगल सर्विस अथोरिटी कानून लागू हुआ था। इस दिन का मुख्य मकसद पिछड़े वर्गों को उनके कानूनी विकल्प और हक्क के बारे में जानकारी देना है। कई गैर सरकारी संस्थान इस काम में जुटे हैं। उच्चत्तम न्यायालय द्वारा इस दिन को मनाये जाने के पीछे का मकसद तो नेक है लेकिन इन महिलाओ से मिल कर लगा की इन नीतियों को लागू करने में कई दशक बीत जायेंगे।

(स्वाति सुभेदार एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं।)

   

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