We salute Sardar Patel on his Jayanti. His momentous service and monumental contribution to India can never be forgotten. pic.twitter.com/t9TFeii3IP
— Narendra Modi (@narendramodi) October 31, 2017
ट्वीटर शब्दों की सीमा में बांध देता है। आपके पास एक दो पंक्तियों में किसी को याद करने या नमन करने का कोई विकल्प नहीं होता। बहुत से बहुत आप संदेश युक्त तस्वीर ट्वीट कर सकते हैं। सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती पर आए ट्टीव पढ़ते वक्त वही भाव दिखे, जो ट्वीटर के जन्म लेने के दशकों पहले से चले आ रहे हैं। हम किसी महापुरुष को याद करते वक्त एक ही प्रकार के वाक्य और शब्दों का मशीनी इस्तमाल कैसे कर सकते हैं। किसी की भी जन्मतिथि हो, किसी भी पुण्यतिथि हो, शब्दों की एकरूपता बताती है कि दरअसल हम व्यक्ति को याद नहीं कर रहे हैं। उसके कार्यों को याद नहीं कर रहे हैं। हमें अगर कोई चीज़ याद रह गई है तो वे शब्द हैं, उन्हीं को बार बार लिखकर याद कर रहे हैं। क्या इन शब्दों का लिखना एक प्रकार का स्मृति लोप नहीं है। ‘मेमरी लॉस’ नहीं है।
अगर आप पांच छह महापुरुषों की जयंति या पुण्यतिथि पर जारी संदेशों का अध्ययन करेंगे तो सबमें शत-शत नमन ज़रूर मिलेगा। कई बार सिर्फ नमन भी मिलता है। राष्ट्र ऋणी रहेगा, इसके बिना तो कोई श्रद्धांजलि पूरी नहीं होती है। अगर हम नेहरू से लेकर पटेल तक, अंबेडकर से लेकर गांधी तक सबके ऋणी हैं तो फिर याद करने वाले ऋणी राष्ट्र की हालत ऐसी क्यों हैं। क्या वाकई हम उनके आदर्शों को आज की राजनीति में पाते हैं? क्या आज के जो याद करने वाले आने वाले कल के महान नेता हैं, उनके भीतर इन नेताओं के तनिक भी लक्षण हैं? ज़रूरी नहीं कि आज के नेता उनकी हु ब हू कॉपी हों, ऐसा तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए और न यह संभव है। फिर भी याद करने वाले में हम याद किये जाने वाले की छवि और उस दौर के सवालों को क्यों नहीं देख सकते। बिल्कुल देख सकते हैं।
उसी तरह से आप किसी भी महापुरुष के बारे में यह लिखा ज़रूर पायेंगे कि आज राष्ट्र याद कर रहा है या देश याद कर रहा है। कई बार राष्ट्र को कृतज्ञ भी लिखा जाता है। क्या ऋणी कृतज्ञ भी होता है? क्या हम एक ही तरीके से सभी को इसलिए याद करते हैं ताकि किसी महापुरुष को बुरा न लगे कि उनके बारे में कम कहा, दूसरे के बारे में ज़्यादा कहा। एक मंत्री की टाइमलाइन पर साहित्य का ऐसा नाम दिखा जिसे पढ़कर मैं यही सोचता रहा कि वाकई इन्होंने इस महान साहित्यकार को पढ़ा होगा, उनका मंत्री जी पर इतना असर होगा जितना होने का दावा किया गया है। अगर ऐसा है भी तो उनके किस भाषण में उस साहित्यकार की रचनाओं की झलक मिलती है। क्या कहीं ज़िक्र भी मिलता है?
ट्वीटर की टाइमलाइन पर हर दिन मंत्री से लेकर नेता तक किसी न किसी को याद करते रहते हैं। मुझे हैरानी होती है कि रविवार को वे जिस नेता की जयंती पर उनके बताये राह पर चलने की कसम खा रहे थे, सोमवार को वो किसी और महापुरुष के बताये रास्ते पर चलने का प्रण ले रहे होते हैं। जैसे दो नेताओं के बीच कार्यशैली से लेकर विचारधारा में कोई अंतर ही नहीं है। जंयती और पुण्यतिथि मनाने के इन दैनिक प्रात:अभ्यासों का अगर इन नेताओं पर महापुरुषों का वाकई असर पड़ जाए तो देश बदले न बदले, हमारी राजनीति के कई स्तंभ आश्चर्यजनक रूप से बदले हुए नज़र आएंगे।
मैंने पहले भी इस पर एक लेख लिखा था कि अब हम पर किसी को भूलने का आरोप नहीं लग सकता। राष्ट्र साबित कर देगा कि देखिये हमने हर किसी की जयंती या पुण्यतिथि पर ट्वीट किया है। कई बार लगता है कि अब याद करना झंझट होता जा रहा है। जल्दी लिखो और ट्वीट कर भागो। कई बार तो थोड़ी देर बाद कोई नेता फिर ट्वीट करता है। तब तक उसे कोई और याद आ चुका होता है। उसकी जयंती या पुण्यतिथि पर याद करते हुए भी उन्हीं शब्दों और वाक्यों को दोहराता है। कुलमिलाकर त्योहार हो या महापुरुष हमारी शुभकामनाओं और स्मृतियों के शब्द फिक्स हो गए हैं। इसका मतलब है कि इन शब्दों के अलावा हमें पटेल को देखते हुए, गांधी को देखते हुए कुछ और याद नहीं आता है। लगता है कि स्मृति के नाम पर यही दो चार वाक्य सनातन हो चुके हैं। हम बस याद किये जाने वाले का नाम बदल देते हैं।
क्या सरदार पटेल को हम हमेशा एक ही तरह से याद करेंगे ? बग़ैर ऋणी हुए, लौह पुरुष कहे, शत-शत नमन किये हम उन्हें याद नहीं कर सकते? नेशनल बुक ट्रस्ट ने सरकार पटेल पर दो किताबें छापी हैं। गांधी पटेल पत्र और भाषण, सहमति के बीच असहमति: नीरजा सिंह। NEHRU-PATEL Agreement within Differences, edited by Neerja Singh. सरदार पटेल पर और भी अच्छी किताबें हैं। नेहरू पटेल वाली पुस्तक में सरदार और नेहरू के पत्र हैं। आप इन्हें पढ़ते हुए समझ सकते हैं कि कैसे दोनों एक साथ रहते हुए भी अपने अपने स्पेस की रक्षा करते हैं। अगर आज राजनाथ सिंह ऐसा पत्र प्रधानमंत्री को लिख दें तो मीडिया इसे नेतृत्व की चुनौती या साज़िश से आगे जाकर देख भी नहीं पाएगा। कई जगह तो खुशी मनने लगेगी कि चलो फाइनली, बग़ावत शुरू हुई। हम लोकतंत्र और उसकी राजनीतिक शक्तियों को अब इससे ज़्यादा देखने समझने की शक्ति गंवा चुके हैं। नेहरू और पटेल के बीच पत्राचार इस बात का प्रमाण है कि दोनों अपनी असमहतियों को एक दूसरे से व्यक्त करने में झिझकते नहीं थे। इन सबके बीच पटेल इंदिरा गांधी को एक पत्र भी लिखते हैं कि इंदु मैंने तुम्हें सलीम अली की किताब Book on Indian Birds भेजी है। मैं हैरान हूं कि अभी तक तुम्हें ये किताब कैसे नहीं मिली है।
नीरजा सिंह की किताब बताती है कि नेहरू और पटेल एक दूसरे के पूरक थे। प्रतिस्पर्धी नहीं। और प्रतिस्पर्धा क्यों नहीं होनी चाहिए? दोनों के पत्राचार इस बात के प्रमाण हैं कि नेहरू के आभामंडल के बावजूद उनसे उम्र में बड़े और कैबिनेट में नंबर दो सरकार पूरी निर्भिकता और स्वतंत्रता के साथ अपनी बात रखते हैं। इन पत्रों को पढ़ना चाहिए। ये किताब हिन्दी में भी उपलब्ध है। इनसे यही पता चलता है कि नेहरू के रहते पटेल का व्यक्तित्व नेपथ्य में नहीं जाता है और पटेल के सामने नेहरू गौण नहीं हो जाते हैं। सिर्फ पटेल ही नहीं, डाक्टर अंबेडकर भी तमाम असहमतियों के साथ उसी मंत्रिमंडल में रहते हैं और अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को पूरा कर इस्तीफा दे देते हैं। आज़ाद भारत वर्ष के प्रथम मंत्रिमंडल की कई बड़ी हस्तियों का अपने- अपने स्पेस में काम करने का ऐसा शानदार किस्सा आज नहीं मिलेगा। दलितों के ख़िलाफ़ तमाम तरह की क्रूर हिंसा हो जाती है मगर केंद्र या राज्य के ही दलित मंत्री ज़ुबान नहीं खोलते हैं। अंबेडकर को याद करते हैं मगर उनके जैसा साहस का प्रदर्शन नहीं करते हैं। सारे मंत्री एक ही भाषा बोलते हैं। जैसे सरकार की एक ही भाषा होना लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है।
बहरहाल, नेहरू मंत्रिमंडल में सरदार पटेल का होना इस बात का भी तो होना है कि गृह मंत्री प्रधानमंत्री से स्वतंत्र हैसियत रखते हुए राष्ट्र निर्माण की भूमिका अदा कर सकता है। हमें पता नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बीच किन मुद्दों पर असहमति है। अगर है तो किस तरह के संवाद हैं। यही सवाल सरदार की पार्टी होने का दावा करने वाली कांग्रेस से भी पूछा जाए कि वहां नीतियों को लेकर शीर्ष नेतृत्व और सहयोगी नेतृत्व के बीच किस प्रकार असहमतियों का आदान-प्रदान होता है। यहां तो कोई बोला नहीं कि पार्टी और सरकार से बाहर। वो भी छह साल के लिए निलंबित वाला अनुशासनात्मक आइटम उस पर थोप दिया जाता है। हमें ख़ुद से पूछना चाहिए कि हम पटेल को किस लिए याद कर रहे हैं? पटेल जिसके आजीवन सिपाही रहे, उन गांधी जी से भी असमहति ज़ाहिर करने में नहीं चूके। आज कौन है जो पार्टी में बने रहते हुए, असहमतियों के बावजूद मंत्रिमंडल में हो सकता है।
हमें किसी राष्ट्रपुरुष को इकहरे तरीके से याद नहीं करना चाहिए। सार्वजनिक स्मृतियों के सरदार सिर्फ लौह पुरुष और रियासतों को जोड़ने वाले नायक तक ही सिमट कर रह गए हैं। उनके भीतर का किसान नेता किसी को याद नहीं रहता। अन्य मामलों में उनके भीतर का प्रशासक किसी को याद नहीं रहता। असमहतियों को ज़ाहिर करने के अटूट साहस की कोई याद दिलाना नहीं चाहता, वर्ना उनकी पार्टी में कोई सरदार से प्रेरणा पाकर रोज़ नेता को पत्र लिखने लगा और ट्वीट करने लगा कि आज का नादान और चाटुकार मीडिया सीमा को भूल उसी पर कांव कांव करने लगेगा। क्या ये पटेल का राष्ट्र है कि असहमति ज़ाहिर करने पर देशद्रोही करारा दिया जाता है, अपनी मर्ज़ी से फिल्म बनाने पर सेना के लिए पांच करोड़ की वसूली तय की जाती है। सरकार पटेल ने असमहतियों की जो परंपरा कायम की है, उसकी रक्षा कौन कर रहा है? सरदार पटेल, गांधी की उपस्थिति और नेहरू की लोकप्रियता के समक्ष असमहतियों के नायक थे। क्या आज ऐसा कोई नायक है? हो सकता है?
(यह लेखक के अपने विचार हैं, रवीश कुमार के बाकी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
ये लेख मूल रूप से 31 अक्टूबर 2017 को सरदार पटेल की जयंती पर प्रकाशित किया गया था..)