कौल शीतल
यूं तो कहानी की शुरुआत जनवरी 1990 में हो गई थी लेकिन उस कहानी को बार-बार दोहराने का अब कोई मतलब नहीं रह गया है। सब जनाते हैं कि क्या हुआ, किसने किया और उस सबके पीछे क्या प्रेरक था लेकिन फिर भी जानते हुए भी अनजान बने रहने की कला हमारे बुद्धिजीवियों में बहुत अच्छे से पैठ कर चुकी है।
खैर… तो शुरुआत होती है 2014 से… एक तरफ जहां नए भारत के निर्माण के लिए नई सरकारें और नई उम्मीदें, नई तस्वीर उभर रही थी, उसी समय हम अपनी जन्मभूमि से पलायन करने को मजबूर हो रहे थे। एक कश्मीरी पंडित होने के नाते वैसे तो हमारी नियति 1990 में ही कश्मीर छोड़ने की होनी चाहिए थी लेकिन पिताजी की सरकारी नौकरी और उससे जुड़ी अनिवार्यताओं के चलते हमारा परिवार अपने (डाउन टाउन) घर में ही अपने घर से दूर रहा।
कश्मीर में पैतृक घर तो हमारा 1990 में ही छीन लिया गया था लेकिन जैसा बताया कि पिताजी की नौकरी के चलते हमें एक नई कॉलोनी में 24 घंटे सेना की सुरक्षा में एक नया सरकारी आशियाना दिया गया। समय बीता और जैसे-तैसे हमने अपनी पढ़ाई पूरी की। कॉलेज के समय मुझे अपनी इच्छा के विपरीत जाकर हिजाब पहनकर या चेहरा ढककर जाना पड़ता था क्योंकि ऐसा फरमान वहां के जिहादियों का था। 2014 में पिताजी के रिटायरमेंट के बाद हमें वह नाममात्र का कश्मीर भी छोड़ देना पड़ा जिसे हम जैसे-तैसे अपना मानकर रह रहे थे।
पूरे देश की तरह, हम कश्मीरियों को भी नरेंद्र मोदी से तमाम उम्मीदें थीं। खासकर जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को लेकर… लेकिन तीन साल हो रहे हैं। निश्चित रूप से मोदी सरकार ने अंतराष्ट्रीय मसलों या विकास के मसले पर अच्छा काम किया है लेकिन अगर अपनी या अपने समुदाय की बात करूं तो क्या हुआ? वादा था कि अनुच्छेद 370 को हटाया जाएगा लेकिन अब इस पर चर्चा करने की बातें हवा में हैं।
चर्चा तो पिछले 70 वर्षों से हो रही है, क्या हासिल किया है हमने? दिल्ली में बैठे जो लोग हुर्रियत या अन्य अलगाववादी लोगों से बात करने की हिमायत करते हैं कि वे भूल जाते हैं कि यही लोग 1990 में पंडितों के नरसंहार करने वालों में सबसे आगे की लाइन में थे। इनका नारा जिहाद है, जिन्हें कश्मीर सिर्फ इसीलिए नहीं चाहिए क्योंकि वे हिंदू बाहुल इलाके में नहीं रह सकते, जिन्हें इस्लामिक कश्मीर चाहिए जो पाकिस्तान के साथ मिल सके, जहां इस्लामिक स्टेट का राज कायम किया जा सके, एक ऐसा कश्मीर जिसमें पंडितों के लिए कोई जगह नहीं लेकिन अपनी हवस मिटाने के लिए उनकी स्त्रियों चाहिए (‘असय छु बनावुन पाकिस्तान बटव रोसतुई बटनयव सान’), जो हमें या तो धर्म बदलने के लिए कहते हैं या फिर कश्मीर से भाग जाने का फरमान सुनाते हैं (‘रलयिव, चलयिव त गलयिव’)।
भारत सरकार को ऐसे जिहादियों से बात करनी चाहिए? जिन अलगाववादियों को सामूहिक हत्याओं के चलते आजीवन कैद और फांसी दी जानी चाहिए, उनसे आप बात करेंगे? इनका बचे रहना हमारी न्याय व्यवस्था और लोकतंत्र पर अपने आप में एक धब्बा है। पंडितों की पूरी की पूरी पीढ़ियां इस जिहाद की भेंट चढ़ चुकी हैं। हमने न सिर्फ अपनी मातृभूमि और घरों को खोया है बल्कि हम अपनी संस्कृति को भी दशकों पीछे छोड़ आए हैं। कश्मीर से बाहर जन्म लेने और रहने वाली पीढ़ी अपने अतीत के बारे में कुछ नहीं जानती, न उन्हें पंरपराओं का पता है, न शैवमत (संप्रदाय) का, न भाषा का, न लिपि का… बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी ने कश्मीरी भाषा की मूल शारदा लिपि की जगह उर्दू की लिपि नास्तालिक़ को आधिकारिक लिपि बना दिया है।
विडंबना देखिए कि वे स्वयं भी इस लिपि को नहीं पढ़ सकते। कश्मीरी पंडित पहचान के संकट की ओर बढ़ रहे हैं, सरकारों ने अगर ध्यान न दिया तो डॉ. अग्निशेखर के शब्दों में ‘कश्मीरी पंडित जल्द ही डायनासोर की तरह पुरातत्वीय सामग्री बन जाएंगे’। हम जानते हैं कि पूरे जम्मू-कश्मीर में भाजपा कभी भी पूर्ण बहुमत में नहीं आ पाएगी। सच पूछा जाए तो भाजपा का जो प्रदर्शन पिछले विधानसभा चुनावों में हुआ है, उससे अच्छा शायद ही वह कर पाए… ऐसे में न चाहते हुए भी अगर भाजपा ने पीडीपी से हाथ मिलाया है तो कोई बुराई नहीं होनी चाहिए। आख़िर भाजपा के पास विकल्प ही क्या बचता है। लेकिन फिर भी विकल्प अन्य जगहों में खोजे जा सकते हैं।
आपने पीडीपी के साथ सत्ता साझा की, इसमें कोई आपत्ति नहीं लेकिन आपत्ति इसमें है कि पीडीपी कैसे अलगाववादी हुर्रियत से सत्ता साझा कर सकती है? ये हत्यारे हैं। आप इनसे भी सत्ता साझा करेंगे, ये तो नहीं बताया था? आपने पंडितों को फिर से कश्मीर-घाटी में बसाने के वादा किया था? क्या हुआ? आप चेनानी-नासरी सुरंग का उद्घाटन करने आते हैं और एक भी शब्द जम्मू के लोगों के लिए नहीं बोलते? कश्मीर में पत्थरबाजों के लिए, एक समय जो आंतकी रहे हैं, उनके लिए आपके पास फंड की कोई कमी नहीं है लेकिन जम्मू के लोगों के लिए कुछ नहीं।
इन लोगों ने आपको वोट किया था कि हमारे विकास के लिए भी उतना ही खर्च किया जाएगा जिस अनुपात में कश्मीर घाटी में किया जाता है लेकिन हर वादा अभी तक कागजों से नीचे नहीं उतर पाया है। सिर्फ जम्मू ही क्यों आप तो लद्दाख का भी अनसुना कर रहे हैं। क्यों न जम्मू और लद्दाख को संघ शासित कर दिया जाए और फिर कश्मीर से उसी तरह निपटा जाए जो सेना सबसे अच्छे से करती है। नौकरियों का बंटवारा क्यों नहीं हो सकता? इसके अलावा इस कश्मीर का कुछ नहीं हो सकता। बात चाहे श्रीनगर में एनआईटी (राषट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान) की हो या कश्मीर में पंडितों की कॉलोनियों पर होने वाली पत्थरबाजी… भाजपा ने कड़ा रुख़ अख़्तियार करना भी ठीक नहीं समझा।
आप पंडितों का पुर्निवासन नहीं कर सके लेकिन आपकी नाक के नीचे पचासों हज़ार रोहिंग्या मुसलमान आकर राज्य में बस जाते हैं। उनके न सिर्फ आधार कार्ड बन चुके हैं बल्कि वे राज्य के पंजीकृत मतदाता भी बन चुके हैं लेकिन आपकी ‘राष्ट्रवादी’ सरकार को ख़बर नहीं होती? ऐसा लगता है कि आप भी तुष्टिकरण की राजनीति के दलदल में धंस गए हैं। फिर आपमें और कांग्रेस या नेशनल कॉन्फ्रेंस में क्या अंतर रह गया है?
ये सच है कि कश्मीर में पंडितों के निर्वासन के लिए (संप्रग काल में) कुछ कॉलोनियों का निर्माण किया गया है जिसमें लोग उस अनुपात में नहीं रह रहे हैं, जिसमें रहना चाहिए… लेकिन इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि कर्फ्यू के हालात में इन कॉलोनियों में ठीक से पानी भी नहीं पहुंच पाता अन्य जरूरतों के बारे में लिखना ही बेमानी हो जाता है। बुरहान जैसे आतंकी जब मारे जाते हैं तो मुस्लिम भीड़ इन कॉलोनियों पर पत्थरबाजी करती है।
अपनी ही भूमि पर हम द्वितीयक नागरिक बन कर रह गए हैं। फिर भी हमें लौटने के लिए ऐसी कॉलोनियों की जरूरत है, जो न सिर्फ हर तरह की मूलभूत सुविधा से युक्त हों बल्कि अन्य जरूरतें भी पूरी करें। आप भी जानते हैं कि हमारी कुछ मजबूरियां हैं। हम शांति चाहने वाले संप्रदाओं से हैं, लगता है इसी का फायदा सरकारें उठाती हैं। हम लाख बुराई करने के बाद भी आपसे दूर नहीं जा सकते लेकिन इन मजबूरियों का फायदा मत उठाइए… बात निकलती है तो दूर तलक़ जाती है।
(लेखिका पीएचडी शोधार्थी हैं, ये इनके निजी विचार हैं )
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