स्वाति सुभेदार
दर्भा (छत्तीसगढ़)। बस्तर जिले के दर्भा में एक साप्ताहिक बाज़ार लगा था जहाँ दूर दराज़ के गांवों से आदिवासी कुछ सामन बेचने आये थे । इनमे से कई लोग २-३ दिन चल के यहाँ तक पहुंचे थे जिनके लिए यह पैसे कमाने का एक अच्छा मौका था। जो चीज़े छत्तीसगढ़ के यह आदिवासी बेच रहे थे उनमें से सामान्यतः बाजारों में नहीं मिलती और ज्यादातर जंगलों में पाई जाती है।
इनमें से एक महिला किरल बांस की मुलायम शाखायें बेच रही थी जिसका इस्तमाल खाने की कई चीज़े बनाने में होता है। तभी वहां खुद को वन अधिकारी बताते हुए कुछ लोग आते हैं और उस महिला का सामान यह कह कर फेंक देते हैं कि जंगल में मिलने वाली इन चीजों को बाज़ार में बेच कर पैसे कमाना गैर कानूनी है। डरी हुई वो महिला चुप चाप वहां से चली गयी।
जब हमने उनसे बात की और बताया के वन अधिकार अधिनियम (एफ़आरए) के अनुसार जंगलों पर आदिवासियों का हक़ है और प्रोविज़ंस ऑफ़ पंचायत एक्ट, 1996 के तहत जंगलों पर सिर्फ और सिर्फ ग्राम पंचायत का हक रहेगा, तो पहले तो वो बहस करते रहे फिर अंततः उन्होंने अपनी गलती मानी और कहा कि सरकार ने इन नियमों के बारे में कभी विस्तार से उन्हें बताया ही नहीं।
अब अगर वन अधिकारियो के ये हाल हैं तो उन आदिवासियों की सोचिये जिन्हें अपने हक के बारे में ना पता है ना ही कोई इनको बताने वाला है।
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छत्तीसगढ़ में हाल ही में चुनाव हुए। बड़ी पार्टियों ने बड़े वादे किये। जहाँ कांग्रेस ने वादा किया के उनके सत्ता में आने के दस दिनों के अन्दर ही किसानों का कर्जा माफ़ कर उन्हें बोनस दिया जायेगा और भूमि अधिग्रहण बिल को लागू किया जायेगा। वहीं बीजेपी ने नक्सल-मुक्त छत्तीसगढ़, नए पानी के पंप लगाने की और किसानो और खेत में काम करने वाले बेरोजगार मजदूरों को पेंशन देने की बात की। लेकिन वन अधिकार अधिनियम को लेकर सब चुप थे।
छत्तीसगढ़ देश का तीसरा खनिज-समृद्ध राज्य है। सारी बड़ी माइनिंग और पावर कंपनियों की नज़र इस राज्य पर है। इस वजह से जंगलों में रहने वाले उन आदिवासियों पर भी काफ़ी दबाव है जिनका जीवन ‘जल, जंगल, ज़मीन’ पर निर्भर है। विकास के नाम पर बड़ी-बड़ी कंपनियां इन जंगलो में घुस कर ‘जल, जंगल, ज़मीन’ के साथ साथ जनता और जानवरों को भी तबाह करने में लगी हुई हैं।
लेकिन इस बात का दूसरा पहलू यह भी है कि छत्तीसगढ़ वन अधिकार अधिनियम लागू करने में उन दस राज्यों में सबसे आगे है जो संविधान के अनुसार पांचवी अनुसूची के क्षेत्र है। सरकारी आकड़ों के अनुसार मई 2018 तक राज्य ने 398,181 व्यक्तिगत अधिकारों को सम्मानित किया है। जनजातीय कार्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार यह राज्य सामाजिक वन अधिकार देने में भी सबसे आगे है। जहाँ व्यक्तिगत वन अधिकार रहने और कृषि के लिए दिए जाते हैं, सामाजिक वन अधिकार आदिवासियों को जंगलो, रह- सहन और प्रथाओं को बचाने का हक देता है। लेकिन ये अधिकार अपनी सहूलियत से दिए जाते है।
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जैसे सरगुजा जिले के 32 गावों को सामाजिक वन अधिकार तो दे दिए गए हैं लेकिन उन्हें व्यक्तिगत अधिकार नहीं दिए जिसकी वजह से यहाँ के जंगलो पर अब भी गाँव वालों का नहीं बल्कि वन विभाग का अधिकार है ।
वहीं सरगुजा के ही घटबर्रा गाँव में सरकार ने वन अधिकार यह कह के रद्द कर दिए की आदिवासी दिए हुए अधिकारों का फायदा उठा के वहां लगने वाली कोयला खानों का विरोध कर रहे हैं। यहाँ जंगलो का कुछ हिस्सा देश की दो बड़ी और नामी कंपनियों के नाम है। वही कांकेर जिले में भी आदिवासी नाराज़ हैं क्योकि सरकार ने जमीन का एक बड़ा हिस्सा एक कंपनी के नाम कर दिया वो भी बिना उनकी इज़ाज़त के।
यही वजह है कि कांकेर में माओवादी काफी सक्रिय हैं और आदिवासियों को अपनी और करने में जुटे हैं।
सरकार-आदिवासी-नक्सल और बड़ी कंपनियों की ज़मीन हड़पने की होड़; इन सब समस्याओ की कड़ियाँ एक दुसरे से जुड़ी हैं। लेकिन इसमें सबसे बड़ा नुकसान हो रहा है जंगलो का और उन पर पूरी तरीके से निर्भर आदिवासियों का। अगर सरकार वन अधिकार के मुद्दे को गंभीरता से नहीं लेगी तो जल्द ही ये मामला हाथ से बाहर निकल जायेगा। आदिवासियों को जागृत और शिक्षित करना अत्याधिक ज़रूरी है और ये किस तरीके से किया जाये इसकी योजना और समझ जल्द बनानी पड़ेगी।
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(स्वाति सुभेदार एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं।)