अटल बिहारी वाजपेयी: कवि की आत्मा और पत्रकार की जिज्ञासा वाला सौम्य राष्ट्रवादी

#अटल बिहारी वाजपेयी

मयंक छाया

अटल बिहारी वाजेपयी आजीवन भारतीय सभ्यता और उसकी प्रबुद्ध बहुलवादी परंपरा के वाहक रहे हैं। वाजपेयी स्वतंत्रता से पूर्व और उसके बाद लंबे समय तक देश के राजनीतिक क्षितिज पर चमकते रहे पर अपने अंतिम दिनों में वह अपने पूर्व के व्यक्तित्व की छाया भर रह गए थे। वह नेताओं की उस पीढ़ी के आखिरी नेता थे जिनका वैश्विक दृष्टिकोण पूरी तरह भारतीय था और इसीलिए सार्वभौमिक भी।

वाजपेयी जब 10वीं कक्षा के छात्र थे उस समय उन्होंने अपने बारे में एक कविता लिखी थी, “हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय”। इसे पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि अपनी पहचान को लेकर वाजपेयी कभी दुविधा में थे। संयम और शिष्टता ये उनके ऐसा गुण थे जो उन्हें अपने ही दल, भारतीय जनता पार्टी में औरों से अलग करते थे। वाजपेयी अपने इन गुणों का श्रेय अपनी हिंदू पृष्ठभूमि को देते रहे।

1984 के संसदीय चुनावों में ग्वालियर सीट पर माधव राव सिंधिया से हारने के बाद वाजपेयी ने इसी कविता का जिक्र करते हुए कहा था, “लोग कहते हैं वह वाजपेयी जिसने वह कविता लिखी थी और वह जो राजनीति करता है दोनों अलग-अलग व्यक्ति हैं। लेकिन यह सच नहीं है। मैं हिंदू हूं। मैं यह कैसे भूल सकता हूं? किसी और को भी यह नहीं भूलना चाहिए। हालांकि मेरा हिंदुत्व संकीर्ण नहीं है।”

वाजपेयी बड़ी मजबूती से यह बात कहते रहे कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है लेकिन एक सेक्युलर राज्य है। वह राष्ट्र और राज्य के बीच में विनायक दामोदर सावरकर की तर्ज पर भेद करते हैं। पुणे में सावरकर को याद करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने एक भाषण में कहा था, “बुनियादी तौर पर भारत एक हिंदू राष्ट्र है इससे कोई इनकार नहीं कर सकता और अस्वीकार भी नहीं कर सकता।” इस भाषण के करीब तीन दशक बाद जब वह सार्वजनिक जीवन से लगभग सन्यास ले चुके थे, उनके विचारों में कोई खास बदलाव नहीं आया।

वाजपेयी की आत्मा कवि की थी और जिज्ञासा एक पत्रकार की इसके बावजूद उनके सार्वजनिक और निजी जीवन में एक संतुलन दिखाई देता है। 1980 और 90 के दशक में मेरा उनसे वार्तालाप होता रहा उस आधार पर मैं कह सकता हूं कि वाजपेयी ने जवाहरलाल नेहरू के किसी भी अनुयायी से कहीं अधिक नेहरू के मानवतावाद के सार को आत्मसात किया था। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपनी अलग राजनीतिक विचारधारा को भी बनाए रखा।

वाजपेयी के बारे में अक्सर कहा जाता था कि वह गलत राजनीतिक पार्टी में फंसे एक अच्छे इंसान हैं। लेकिन लगभग मुहावरा बन चुके इस बयान से बाहर निकलकर देखें तो पाएंगे कि वह उन सभी मूल्यों के प्रतीक थे जिन्हें दिमाग में रखकर वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने भारतीय जनता पार्टी का गठन किया था।


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वाजपेयी ने 1990 में मुझसे कहा था, “विरोधी दलों में मेरे मित्रों को मेरे बारे में लगता है कि आदमी तो अच्छा है लेकिन गलत दल में है। उनको मैं कहूंगा कि आदमी भी सही है और दल भी सही है।” प्रचलित धारणा के विपरीत वाजपेयी को हमेशा यह अहसास रहा कि वे भारतीय मूल्यों के प्रतिनिधि हैं। वहीं, उन्हें अपनी पार्टी में मौजूद उन अतिवादी प्रवृत्तियों की भी जानकारी थी जो उनके हिसाब से अक्सर अपनी सीमाएं लाघ जाती थीं।

विडंबना यह है कि उनके लंबे और शानदार सार्वजनिक जीवन का जो सबसे निम्नतम बिंदु था वही शायद उनके व्यक्तिगत जीवन का सबसे उच्चतम बिंदु साबित हुआ। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी विध्वंस के बाद वे बहुत व्यथित थे, इस घटना के तीन दिनों के भीतर ही उन्हें पूरा भरोसा हो गया था कि बाबरी विध्वंस बीजेपी की सबसे भयानक भूल थी, जिसका ऐलान उन्होंने सार्वजनिक तौर पर किया था।

भीतर कहीं बहुत गहरे तक व्यथित और दुखी वाजपेयी ने अपने मन की बात कहने के लिए केवल दो पत्रकारों को: इन पंक्तियों के लेखक और न्यूज एजेंसी आईएएनएस के चीफ एडिटर तरुण बसु को चुना। उनका कहना था कि बाबरी विध्वंस की दौड़ में उनकी पार्टी ने उन्हें एक किनारे कर दिया था। रायसीना हिल्स स्थित उनके तत्कालीन आवास पर पर दो घंटों के वार्तालाप के दौरान वाजपेयी ने उसी स्पष्टवादी लहजे में पूरी बात कही जिसके लिए वह मशहूर थे। वह दौर वाजपेयी और उनकी पार्टी दोनों के लिए बहुत खराब था, इसके बावजूद वह इस बात पर अड़े रहे कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक की निगाह में जो कुछ हुआ वह हिंदू मूल्यों के विरुद्ध था।

देश की आजादी के बाद एकमात्र वाजपेयी ही ऐसे अनोखे राजनीतिक व्यक्तित्व रहे जिन्होंने हर उस बात का समर्थन किया जिस पर कट्टर हिंदूवादी राजनीतिक विचारधारा आधारित थी। इसके बावजूद, उन्होंने अपने विचारों का निर्माण और उनकी अभिव्यक्ति इस तरह की कि उनका दृष्टिकोण अनिवार्यतया मध्यमार्गी और तार्किक रहा। वह कठोर विचारों के सौम्य काव्यात्मक उद्घोष के सबसे अच्छे उदाहरण थे। वह अक्सर इस बात पर हंसते थे कि बीजेपी के बाहर उनकी छवि एक कोमल राष्ट्रवादी की है। एक बार उन्होंने इस बारे में कहा था, “ऐसा लगता है कि जैसे मुझे पसंद करने से वे खुद मैं पैदा हो रहे दोष को कम कर रहे हैं क्योंकि उनको मेरी पार्टी पसंद नहीं है।”

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वह ऐसे नेता थे जिन्होंने उस समय दक्षिणपंथी विचारधारा का बड़े जोशोखरोश के साथ पालन किया जब देश में वामपंथी झुकाव वाली समाजवादी विचारधारा छाई हुई थी। उनका आर्थिक दर्शन एक व्यावहारिक उदारवादी का था जिसे भारत की उद्यमिता पर पूरा भरोसा था। नेहरू के समय से ही उनकी विदेश नीति राष्ट्रीय सर्वसम्मति पर आधारित थी।

वाजेपयी अक्सर राष्ट्रीय बहस के मुद्दों पर खुलकर बात करते थे। मसलन, आज से लगभग 30 बरस पहले पुणे में दिए एक भाषण में उन्होंने इस बात पर चर्चा की कि कैसे धर्मांतरण या धर्म बदलने से राष्ट्रांतरण हो जाता है या कहें कि राष्ट्र के प्रति निष्ठा बदल जाती है। इस संदर्भ में उन्होंने इंडोनेशिया जैसे देशों का उदाहरण दिया जहां इस्लाम धर्म अपनाने के बाद भी जनता अपने सांस्कृतिक मूल्यों को पकड़े रही। वाजपेयी कहते थे कि उन लोगों ने भले ही पूजा-पाठ का तरीका बदल बदल दिया हो लेकिन अपनी संस्कृति नहीं बदली। पर वाजपेयी के ऐसे तमाम बयानों के बावजूद उनके कट्टर विरोधी भी उनके सांस्कृतिक संयम, राजनीतिक तर्कसंगतता और उच्च संसदीय व्यवहार के लिए उनकी तारीफ करते रहे।

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वाजेपीय का जन्म 1924 में ग्वालियर में हुआ था, वह ऐसे समय में बड़े हुए जब देश में आजादी के लिए संघर्ष चल रहा था। ऐसे में, वाजपेयी पर राष्ट्रवादी विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा।

देश के प्रधानमंत्री के अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने एक निष्पक्ष राज्य के दर्शन का पालन किया। गठबंधन राजनीति की मजबूरियों के बीच उन्होंने राजधर्म की अवधारणा विकसित की। उन्हें इस बात के लिए याद किया जाता है कि कैसे उन्होंने प्रधानमंत्री बनते ही 1998 में एटमी परीक्षण का आदेश देकर भारत को एक पूर्ण परमाणु शक्ति का दर्जा दिलाया। लेकिन उनका सबसे बड़ा योगदान है सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए सार्वजनिक जीवन विशेषकर राजनीतिक जीवन में उच्च आदर्शों का अनुपालन। 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और शिकागो में रहते हैं।

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