विदेशी कालाधन निकालने के पहले स्वदेशी कालाधन निकालने का मोदी का प्रयास वांछित परिणाम ला सका या नहीं इसकी समीक्षा करना अभी जल्दी है। ऐसा लगता है काला और सफेद की परिभाषा में स्पष्टता नहीं है और काफी काला धन प्रक्रिया की खामी या रणनीति के कारण बिना टैक्स दिए सफेद हो गया।
नोटों की अदला-बदली के कारण गरीबों को बेहद असुविधा तो हुई क्योंकि जमा करने वालों, पैसा निकालने वालों और नोट बदलने वालों की एक ही कतार थी। बदलने के बजाय खाते में जमा करने की छूट होती और जिनका पहले से जमा पैसा है वह निकालने में असुविधा न होती तो इतनी फजीहत भी नहीं होती। जब लोगों ने अदला-बदली का लाभ उठा लिया तो इसे बन्द किया गया और लाइनें अचानक छोटी हो गईं। यह काम आरम्भ से ही होना था।
जुमला यह था कि विदेशी धन देश में आने से लोगों में खातों में कई-कई लाख रुपया जमा हो जाएगा। विरोधियों को ताना सुनाने का सुनहरा मौका मिल गया था। मोदी सरकार ने विदेशी काले धन के साथ ही स्वदेशी कालेधन पर भी प्रहार करने का निर्णय लिया। स्वदेशी हो अथवा विदेशी, रुपए पैसों का रंग तो एक ही होता है परन्तु वह धन काला कैसे हो जाता है इस पर बहस चल रही है। लोगों का कहना है जब घरों में पड़ा पैसा बैंक में आ गया तो काला कहां रहा यानी मोदी सरकार ने कोई काला धन हासिल नहीं किया।
वह धन जिस पर सरकार को टैक्स न दिया गया हो कालाधन कहलाता है। विदेशी काला धन वहां की बैंकों में जमा कर दिया गया है लेकिन स्वदेशी कालाधन अलग-अलग रूपों में अलग-अलग जगहों पर दुबक कर बैठा है। पुराने जमाने में सोना चांदी के रूप में जमीन के अन्दर बिठा दिया जाता था क्योंकि कहते थे ‘वित्ते नृपालात् भयम’ यानी धन है तो राजा का डर है। अब जमीन के अन्दर गड़े धन को राजा का डर तो नहीं है लेकिन डकैतों और चोरों का डर है। मोदी सरकार ने करेंसी के रूप में विद्यमान काले धन को पहले पकड़ने का प्रयास किया है और यह अन्तिम चरण नहीं है।
हजारों मन्दिरों, मस्जिदों और गिरिजाघरों में अकूत सम्पदा मौजूद है वह भी कालेधन की श्रेणी में आएगी। कहते हैं अंग्रेजों के डर से वहां के राजाओं ने अरबों खरबों रुपया पद्मनाभ मन्दिर में जमा कर दिया था जो आज भी विद्यमान है। यह भगवान का पैसा नहीं है बल्कि जनता का पैसा भगवान के संरक्षण में है। क्या इसका उपयोग जनकल्याण के लिए नहीं किया जाना चाहिए? यही बात दूसरे धर्मस्थानों की सम्पदा पर लागू होगा। सर्वाधिक काला धन जमीन जायदाद के रूप में रहता है। कई बार बेनामी सम्पत्ति के रूप में। यही कारण है कि पिछले 40 साल में गाँवों की जमीन के दाम 400 गुना बढ़ गए हैं जबकि सोने के दाम केवल 150 गुना और गेहूं के दाम करीब 25 गुलर ही बढ़े हैं। जहां कालेधन का प्रवेश नहीं है वहां महंगाई भी नहीं है जैसे मजदूरी इसी अवधि में करीब 70 गुना ही बढ़ा है। स्पष्ट है जहां कालेधन की पैठ थी वहां महंगाई अधिक बढ़ी। मजदूरी बढ़ने का कारण है कि रियल एस्टेट में महंगाई बढ़ी और वहां मजदूरों की जरूरत होती है जिससे मजदूरी भी बढ़ी।
गाँवों में कालाधन नहीं है क्योंकि खेती की आमदनी पर टैक्स नहीं बनता और अधिकतर किसान आयकर सीमा से अधिक कमाते भी नहीं। परन्तु राजनेता और अधिकारी रिश्वत के रूप में जो धन लेते हैं उस पर टैक्स नहीं देते इसलिए वह काला है। कभी-कभी इनकम टैक्स विभाग द्वारा कालेधन वालों से पूछा जाता है कि ज्ञात श्रोतों से अधिक धन आया कहां से परन्तु यह प्रभावी नहीं है। जब पहली बार खुलासा होता है तो मीडिया में खूब धूम-धड़ाका होता है परन्तु जब प्रकरण का निस्तारण होता है तो मीडिया को शायद पता नहीं चलता कैसे हुआ। अभी तक टैक्स चोरी पर आर्थिक दंड भरने से काम चल जाता था, अपवाद स्वयं कुछ को सजाएं भी हुई हैं। नरेन्द्र मोदी से आम जनता खिन्न नहीं है और उसी प्रकार तकलीफ़ झेल रही है जैसे गांधी जी की आवाज पर लाठी डंडे झेल रहे थे। वह मानती है कि मोदी ने प्रयास किया है वादा निभाने का यानी ‘ना खाएंगे और ना खाने देंगे।’
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