लोकसभा में वित्तमंत्री अरुण जेटली का भाषण सुनने वालों को लगा होगा कि किसानों की सारी समस्याओं का इलाज हो गया। लेकिन बजट सन्तुलित होते हुए भी किसानों को चैतन्य नहीं कर पाएगा। सोचने का विषय है किसान आत्महत्या करता ही क्यों है, वह आलू, प्याज, टमाटर को सड़कों पर क्यों फेंकता है, क्या पेरिशेबल वस्तुओं का समर्थन मूल्य देंगी सरकार और यदि देंगी भी तो कितना।
सरकार का नेक इरादा है कि 2022 तक किसान की आय दोगुनी हो जाय लेकिन किस फसल और किस वर्ष की आय की दो गुनी? वैसे यह सोच उचित और प्राप्य है लेकिन इसका तरीका क्या होगा। पिछले पचास साल में समर्थन मूल्य के बावजूद गेहूं के दाम केवल 30 गुना हए है जब कि मजदूर की मजदूरी बढ़ी है करीब 100 गुना। लेकिन एमएसपी बढ़ाकर आमदनी दूनी नहीं होगी। इसके लिए कुछ और करना होगा, किसान का श्रम बरबाद होने से बचाना होगा।
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किसान को खेतों में काम तब रहता है जब बुवाई, सिंचाई, कटाई मड़ाई का काम रहता है बाकी समय में कमाई का कोई साधन नहीं। इन्हें लीन मंथ कहते हैं। यदि कुटीर उद्योग लगाकर किसान की ही फसली उत्पाद प्रयोग करके उसे काम दिया जाय तो आय दोगुनी आसानी से हो सकती है। पूना में प्याज, फर्रुखाबाद का आलू और पहाड़ों का टमाटर, शिमला मिर्च सड़ेगा नहीं और स्थानीय किसानों को रोजी मिलेगी, लेकिन किसान के पास ना तो पूंजी है, न स्किल और न बाजार तक पहुंच जो कुटीर व्यवसाय लगा सके। बजट में न तो सरकारी उद्योग खोलने का प्रस्ताव रक्खा है और न कोई प्रोत्साहन का प्रस्ताव है।
किसान के पास पैसा इसलिए नहीं रहता कि उसे अपने श्रम का मूल्य नहीं मिलता और उसका माल सही दामों पर बिकता ही नहीं। दलिया, पापड़, बड़ी, बेसन, मुंगौड़ी, तथा दालें गाँवों में ही साफ करके उनकी पैकेजिंग क्यों नहीं की जा सकती। अनेक आयुर्वेदिक दवाइयां विदेशों को भेजी जाती हैं उनकी पैकेजिंग स्थानीय स्तर पर भी तो हो सकती है और किसान परिवारों की आय बढ़ाई जा सकती है। अवसर असीमित हैं।
श्रम, पूंजी और कच्चा माल में से गाँव के लोगों के पास पूंजी नहीं है और उसके श्रम का उपयोगी इस्तेमान नहीं हो पाता। उनका बहुत सा कच्चा माल पेरिशेबल है इसलिए उसे या तो स्थानीय स्तर पर डिब्बा बन्द करके या पैकेजिंग करके सुरक्षित करना होगा अथवा उसके उत्पाद वहीं बनाने होंगे। बजट में ऐसा कोई प्रावधान नजर नहीं आता। इतना ही कहा जा सकता है कि अच्छा सन्तुलित बजट है लेकिन किसानों पर फोकस नहीं है।