बुधवार को हुई केंद्रीय कैबिनेट की एक बैठक में प्याज़ की कीमतों को काबू करने के लिए 1.2 लाख टन प्याज़ विदेशों से आयात करने का निर्णय लिया गया। पिछले दो महीनों से प्याज़, टमाटर व अन्य सब्ज़ियों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि से आम आदमी से लेकर सरकार तक सभी परेशान हैं।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा हाल में जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार इस वर्ष अक्टूबर में खुदरा महंगाई दर 4.62 प्रतिशत पर पहुंच गई जो पिछले 16 महीनों का सबसे उच्चतम स्तर है। इसका मूल कारण खाद्य पदार्थों विशेषकर सब्ज़ियों की महंगाई दर बढ़ना बताया गया है। उपभोक्ता स्तर पर प्याज़ की कीमत कुछ शहरों में लगभग 80 रुपये प्रति किलोग्राम तो टमाटर की कीमत 60 रुपये प्रति किलोग्राम के आसपास चल रही है। इसी साल कुछ माह पहले इन सब्जियों को किसान कम कीमत मिलने के कारण सड़कों पर फेंकने की लिए मजबूर हुए थे। तो अब ऐसा क्या हुआ कि कीमतें आसमान छू रही हैं।
सरकार ने कीमतों को नियंत्रित करने के लिए सबसे पहले तो जून में प्याज़ निर्यातकों को दी जा रही 10 प्रतिशत सब्सिडी को समाप्त किया। सितंबर में जब प्याज़ की खुदरा कीमत 40 रुपये प्रति किलोग्राम के पार चली गई तो सरकार ने प्याज़ के निर्यात पर 850 डॉलर प्रति टन (लगभग 60 रुपये प्रति किलोग्राम) का न्यूनतम निर्यात मूल्य लगा दिया था। इससे कम मूल्य पर प्याज़ का निर्यात प्रतिबंधित कर दिया गया था। इस कदम से प्याज़ के निर्यात में तत्काल कमी आती है और घरेलू बाजार में प्याज़ की उपलब्धता बढ़ती है, जिससे कीमत नीचे आती है।
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इसके बाद भी जब कीमत काबू में नहीं आई तो प्याज़ के थोक व्यापारियों पर 500 क्विंटल और खुदरा विक्रेताओं पर 100 क्विंटल की भंडारण सीमा (स्टॉक लिमिट) लगा दी गई ताकि व्यापारी इस स्टॉक से ज्यादा प्याज़ होने पर उसे बाज़ार में बेचने के लिए मजबूर हो जाएं जिससे प्याज़ की आपूर्ति बढ़े और कीमत घटे। इसके साथ ही प्याज़ के निर्यात को भी पूर्णतया प्रतिबंधित कर दिया गया। इन कदमों से कीमतों में कुछ कमी तो आई परन्तु असमय हुई अत्यधिक बारिश के कारण महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और कर्नाटक में प्याज़ और अन्य सब्ज़ियों की खरीफ़ की फसल को काफी नुकसान हुआ, जिसके चलते अक्टूबर-नवंबर में खरीफ़ की प्याज़, टमाटर व अन्य सब्ज़ियों की आवक बाज़ार की आशा के अनुरूप नहीं हुई। इस कारण प्याज़, टमाटर व अन्य सब्ज़ियों की कीमतें फिर आसमान छूने लगीं।
प्याज़ उत्पादक राज्यों में पहले तो विलंब से आये मानसून, फिर बाद में अत्यधिक बारिश होने के कारण देश में खरीफ़ की प्याज़ का रकबा भी पिछले साल के लगभग तीन लाख हेक्टेयर के मुकाबले इस साल लगभग 2.60 लाख हेक्टेयर रह गया। खरीफ़ की प्याज़ का उत्पादन भी पिछले साल के 70 लाख टन के मुकाबले 52 लाख टन रहने का सरकारी अनुमान है। इस स्थिति से निपटने के लिए ही सरकार ने सवा लाख टन प्याज़ के आयात का निर्णय लिया है। परन्तु इस प्याज़ को मंडियों में पहुंचने में अभी कुछ सप्ताह का समय लगेगा। तब तक तो बाज़ार में खरीफ़ की प्याज़ की आपूर्ति भी बढ़ जाएगी।
इस कारण अब प्याज़ की कीमतें मध्य दिसंबर के बाद ही कम हो पाएंगी। एक और कदम उठाते हुए सरकार के आयकर विभाग ने प्याज़ की जमाखोरी की आशंका के कारण एशिया की प्याज़ की सबसे बड़ी मंडी महाराष्ट्र के नाशिक जिले की लसलगांव मंडी समेत अन्य मंडियों में प्याज़ के थोक व्यापारियों के कई ठिकानों पर छापेमारी भी की।
तमाम कोशिशों के बावजूद आखिर सरकार प्याज़, टमाटर, आलू व अन्य सब्ज़ियों की कीमतों को नियंत्रित रखने, उपभोक्ताओं और किसानों के हितों की रक्षा करने में बार-बार नाकाम क्यों होती है? 2018-19 में देश में 18.6 करोड़ टन सब्जी उत्पादन हुआ है। 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के मोदी सरकार के लक्ष्य में बागवानी फसलों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इन फसलों को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने अपने बजट में भी कई योजनाएं शुरू की हैं।
सब्जियों में मात्रा के लिहाज से आधा उत्पादन आलू, प्याज़ और टमाटर का ही होता है और ये सबसे ज़्यादा उपयोग की जाने वाली सब्ज़ियां हैं। सब्ज़ियों में आलू सबसे बड़ी फसल है जिसका 2018-19 में 530 लाख टन उत्पादन हुआ। इसी तरह प्याज़ का उत्पादन इस वर्ष 235 लाख टन और टमाटर का उत्पादन 194 लाख टन रहा। इन तीनों फसलों का ही देश की घरेलू मांग से ज्यादा उत्पादन हो रहा है और हम इन फसलों के निर्यात की स्थिति में हैं।
गत वर्ष प्याज़ का 22 लाख टन निर्यात कर हम विश्व के सबसे बड़े प्याज़ निर्यातक थे। तो ऐसा क्या हुआ कि अब उसी प्याज़ को देश मंहगे दामों पर आयात करने के लिए मजबूर है। आलू, प्याज़ और टमाटर की कीमतों के स्थिरकरण के लिए सरकार ने पिछले साल 500 करोड़ रुपये की ‘ऑपरेशन ग्रीन्स टॉप’ (टोमैटो, अनियन, पोटैटो) योजना भी शुरू की थी। इसका मूल उद्देश्य एक तरफ उपभोक्ताओं को इन सब्जियों की उचित मूल्य पर साल भर आपूर्ति सुनिश्चित करना और दूसरी तरफ किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाना था।
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ज़ाहिर है कि सरकार को इसके लिए और कदम भी उठाने होंगे। सबसे पहले तो हमें इन फसलों के उचित मात्रा में खरीद, भंडारण एवं वितरण हेतु शीतगृहों तथा अन्य आधारभूत संरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर) का इंतज़ाम करना होगा। हमारे देश में लगभग 8000 शीतगृह हैं परन्तु इनमें से 90 प्रतिशत में आलू का ही भंडारण किया जाता है। यही कारण है कि आलू की कीमतों में कभी भी अप्रत्याशित उछाल नहीं आता। टमाटर का लंबे समय तक भंडारण संभव नहीं है परन्तु अच्छी मात्रा में प्रसंस्करण अवश्य हो सकता है।
प्याज़ के भंडारण को भी बड़े पैमाने पर बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि किसानों और उपभोक्ताओं दोनों के हितों को संरक्षित किया जा सके। जब फसल आती है उस वक्त सरकार इन सब्जियों को खरीद कर एक बफर स्टॉक भी तैयार कर सकती है ताकि बाज़ार में इनकी आपूर्ति पूरे साल उचित मूल्यों पर बनाई रखी जा सके और किसान स्तर पर कीमतें अचानक ना गिरें।
दूसरा, इन तीनों सब्ज़ियों का बड़े पैमाने पर प्रसंस्करण करने के लिए उद्योग स्थापित करने होंगे। अभी आलू की फसल का केवल 7 प्रतिशत, प्याज़ का 3 प्रतिशत और टमाटर का मात्र 1 प्रतिशत प्रसंस्करण हो पा रहा है। उपभोक्ताओं और किसानों दोनों के लिए इनके मूल्यों को स्थिर रखने, ऑफ-सीजन में उपलब्धता सुनिश्चित करने और निर्यात बढ़ाने के लिए इन फसलों का कम से कम 20 प्रतिशत प्रसंस्करण करने का लक्ष्य होना चाहिए। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को प्रोत्साहित करने के लिए इनके उत्पादों पर जीएसटी का शुल्क भी कम लगना चाहिए।
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तीसरा, घरेलू मांग से ज्यादा उत्पादन की सूरत में हमें एक भरोसेमंद निर्यातक देश के रूप में भी अपने आप को स्थापित करना होगा। अभी इन फसलों का लगभग 5500 करोड़ रुपये मूल्य का ही निर्यात हो पा रहा है, जिसे तीन-चार गुना बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके लिए उपरोक्त भंडारण और प्रसंस्करण संबंधी दोनों कदम काफी कारगर होंगे। बार-बार न्यूनतम निर्यात मूल्य या स्टॉक लिमिट लगाने से भी व्यापारी भंडारण, प्रसंस्करण और निर्यात की व्यवस्था में निवेश करने से पीछे हट जाते हैं। अतः इन विषयों में स्थिर सरकारी नीतियों तथा आवश्यक वस्तु अधिनियम जैसे कानूनों में सुधार करने की आवश्यकता है।
नाबार्ड के एक अध्ययन के अनुसार आलू, प्याज़, टमाटर की फसलों में उपभोक्ता द्वारा चुकाए गए मूल्य का 25-30 प्रतिशत ही किसानों तक पहुंच पाता है। अतः हमें इन फसलों में ‘अमूल मॉडल’ को लागू करना होगा जहाँ दूध के उपभोक्ता-मूल्य का 75-80 प्रतिशत किसानों को मिलता है। बिचौलिए भी इन फसलों में खूब चांदी काटते हैं। कृषि उत्पाद बाज़ार समिति अधिनियम में सुधार कर बिचौलियों की भूमिका को भी सीमित करना होगा।
ऐसी संस्थाएं स्थापित करनी होंगी जो किसानों से सीधे खरीदकर उपभोक्ताओं तक इन सब्जियों को बिचौलियों के हस्तक्षेप के बिना पहुंचाने का काम करें। इन फसलों की खेती में लगे करोड़ों किसानों की मांग है कि इन तीनों फसलों को एमएसपी व्यवस्था के अंतर्गत लाकर इनकी उचित खरीद, भंडारण और प्रसंस्करण की व्यवस्था सरकार करे जिससे एक तरफ इन फसलों को फेंकने की नौबत ना आये तो दूसरी तरफ आम आदमी की जेब भी ना कटे। यदि उपरोक्त इन कुछ कदमों को उठाया जाए तो किसान और उपभोक्ता दोनों के हितों की रक्षा हो सकेगी।
(यह लेखक के अपने विचार है। लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)