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पृथ्वी दिवस : धरती के लिए कुछ पेड़-पौधे सौतेले भी

हिन्दी समाचार

मै उस वक्त अपनी पीएच.डी. कर रहा था, मेरा काम पौधों के औषधीय गुणों को लेकर था। छिंदवाड़ा (मध्य प्रदेश) के चंदन गाँव में गुप्ता परिवार अपने फार्म पर औषधीय पौधों की फसल लगाए हुए थे। बुजुर्ग गुप्ता जी से मुलाकात के सिलसिले में मैं एक बार उनके फार्म पर गया। पोस्टऑफिस में उच्च पद पर सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद गुप्ता जी का खेती बाड़ी से लगाव देखते ही बनता था।

उनके दो जवान बेटे भी खेती किसानी की तरफ अपना रुख किए हुए थे। उस दिन घर में कोई ना होने की वजह से बुजुर्ग गुप्ता जी स्वयं रसोई में जाकर मेरे लिए गरमागर्म चाय लेकर आए। मुझे ये सब अच्छा नहीं लगा, कम से कम किसी बुजुर्ग को ऐसा करते देखना मेरे लिए अजीब था। अपने हाथों से चाय का प्याला मेरे तरफ बढ़ाते हुए उन्होंने दिल को छू लेने वाली सिर्फ एक बात कही- “आप अतिथि हैं, आप भगवान की तरह और आपका आदर-सम्मान करना मेरा कर्तव्य है और अतिथि कभी भी अपेक्षाएं लेकर नहीं आते।”

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फिर उन्होंने मुझे अतिथि का शब्दार्थ अपने अंदाज़ में बताया। गुप्ता जी बोले,“जब कोई आपके घर पूर्व सूचना या खबर देकर आए तो वो मेहमान या आगंतुक कहलाता है लेकिन बगैर किसी पूर्व सूचना के कोई आपसे मिलने आए तो वो अतिथि है और ऐसा अतिथि भगवान की तरह होता है, इनका आदर सम्मान करना हमारी परंपरा का हिस्सा है” आगे इसी बात को बढ़ाते हुए उन्होंने जंगलों और खेत-खलिहान का उदाहरण दिया।

बड़े-बड़े वृक्षों की आच्छादित शाखाओं के नीचे कोई नया पौधा उगता है तो वह संघर्ष ही करता रह जाता है लेकिन इन्हीं पेड़ के कोटरों (शाखाओं में पड़ी दरारों) में कोई बीज उड़कर चला आए या किसी पक्षी की मदद से बीज यहां तक पहुंच जाए और बीज अंकुरित हो कर नया पौधा बनने लगे तो यह पेड़ इस बीज को अतिथि की तरह आदर सम्मान देकर पनाह देता है और इसे फलने फूलने का पूरा मौका भी क्योंकि इस बीज को स्वयं नहीं पता था कि ये कहां जाएगा और इसकी अपेक्षाएं इस पेड़ से शून्य थीं। वहीं दूसरी तरफ पेड़ की जड़ों और आच्छादित शाखाओं के नीचे वाले जमीनी हिस्से पर उगने वाले पौधों को शायद इस तरह का सहयोग पेड़ से नहीं मिलता है क्योंकि ये पूर्व से ही इसी धारणा के हिस्से थे कि इन्हें यहीं उगना है, इसी एवज में पेड़ काफी हद तक उनसे सौतेला व्यवहार रखता है।

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एक बुजुर्ग से इस बात को सुनना मेरे लिए नए अनुभव और सीख जैसा था। मैंने इससे पहले आदिवासियों की एक मान्यता के बारे में सुना था। उस मान्यता के अनुसार धरती मां पौधों को दो संतानों की तरह व्यवहार में लाती है..एक खुद अपनी और दूसरी सौतेली..। अपने घर में मैंने गमले में एक बरगद का पौधा लगाया था, खूब खाद दिया, पानी दिया, सेवा किया, पौधा संघर्ष ही करता रह गया और वहीं दूसरी तरफ मेरे ही घर के सेनेट्री पाईप के जोड़ पर एक बरगद लग आया था, काट-काट कर परेशान हो गया था लेकिन वो बरगद था कि बढ़ते हुए थमने का नाम नहीं लेता था, बढ़ता ही चला जाता। हां आखिर था तो धरती मां की अपनी औलाद। वो पौधे जो अपने आप वनों में, खेत खलिहानों में पनप जाते हैं, वे सारे धरती मां की अपनी संतानें हैं और पौधे जिन्हें हम यानी मनुष्य रोपित करते हैं, धरती इन्हें सौतेला समझती है।

बीते दिनों गुजरात में दाहोद गया था, वापसी के दौरान गोधरा और डाकोर के बीच एक बड़े वृक्ष की गोद में एक बेहद ऊंचे ताड़ के वृक्ष को लगे देखा। बस इसे देखकर गुप्ता जी की बात याद आ गई। प्रकृति अपने आप में एक बहुत बड़ी यूनिवर्सिटी है और ऐसे यूनिवर्सिटी के असली वॉइस चांसलर गुप्ता जी जैसे लोग हैं जो अपनी अहम जीवनचर्या में प्रकृति प्रदत्त सीख को अपना हिस्सा बनाए हुए हैं।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)

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