इस चुनावी दल-बदल में नारेबाज़ों की मुश्किल

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इस चुनावी दल-बदल में नारेबाज़ों की मुश्किलयूपी विधानसभा चुनाव 2017

उत्तर प्रदेश में बस पांचवे चरण की वोटिंग होनी है। चुनाव में ज़ुबानी जमा-खर्च और लफ्फाजियों के साथ नारों का होना जरूरी होता है। सिर्फ ज़रूरी नहीं, बहुत ज़रूरी।

इस बार चुनाव में घूमते वक्त कई नारे कान में पड़े। अश्वमेध का घोड़ा है, मोदीजी ने छोड़ा है। जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है। भ्रष्टाचार मिटाना है, राहुल ने यह ठाना है। जीत गया भई जीत गया, शेर हमारा जीत गया। कांशीराम का मिशन अधूरा, मायावती करेंगी पूरा।

इस बार उत्तर प्रदेश के चुनावी बुखार में मौसम ने साथ दिया। वरना, गर्मियों में होते तो हालत पतली होती। उम्मीदवारों की भी, वोटरों की भी और हम जैसे चुनाव कवर करने वाले पत्रकारों की भी। लेकिन, इसी मुद्दे पर एक पान वाले की राय अलग थी, न सर्दी, न गर्मी, चुनाव में हर मौसम गुलाबी लगता है। लेकिन इस बार नारों में कुछ गड़बड़ हो गई। गड़बड़ की वजह वह लोग बहुत मुश्किल में थे जिनके नेता ने हाल ही में दल बदल लिया था। वह नारे लगाने में वह बार-बार अटक रहे थे। बीच-बीच में पुराने दल का नारा जुबां पर आता और अगले ही पल उसे सुधारते।

सियासी दल कोई भी हो, हवा चाहे किसी की बहे, बुंदेलखंड में एक दर्जन नेता ऐसे हैं, जहां वे खड़े होते हैं राजनीति वहीं से शुरू होती है। बुंदेलखंड की राजनीति में गहरी पैठ बनाने वाले तमाम नेताओं ने यह साबित कर दिया है कि वह खुद में एक दल हैं। दल बदलकर दंगल लड़कर सियासी सूरमा आज बुंदेलखंड की राजनीति में दस्तक दे रहे हैं। सक्रिय राजनीति में आने के बाद इन नेताओं ने पीछे मुड़कर नहीं देखा है।

सियासी पार्टियां कभी इनकी राह में रोड़ा बनीं, तो उनसे भी किनारा करने में गुरेज नहीं किया। हालांकि इस काम में हर किसी को कामयाबी नहीं मिली, फिर भी आगे के चुनाव में पार्टियां इनसे किनारा नहीं कर सकीं। ऐसे कई सियासी दिग्गज हैं जो दो से ज्यादा पार्टियां बदल चुके हैं। अरिमर्दन सिंह, सिद्धगोपाल साहू, आरके सिंह पटेल, अशोक सिंह चंदेल, विवेक कुमार सिंह कई बार पार्टियां बदलने के बाद भी राजनीति में मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं।

2017 के विधानसभा चुनाव में कई दिग्गजों की साख दांव पर है। कांग्रेस छोड़कर सपा में आए सिद्धगोपाल साहू 2012 में चुनाव हार गए। अबकी सपा ने उन्हें फिर से प्रत्याशी बनाया। जनता दल से राजनीति की शुरुआत करने वाले अरिदमन सिंह सपा में रह चुके हैं। 2007 में वह बसपा में भी रह चुके हैं। 2012 में वह कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े थे। इस बार बसपा से महोबा सदर के प्रत्याशी हैं।

राकेश गोस्वामी बसपा से विधायक थे। 2012 में उनको टिकट नहीं मिला, इस बार भाजपा के प्रत्याशी हैं। झांसी के मऊरानीपुर से परागीलाल पहले भाजपा से विधायक थे। वहां टिकट कटा तो बसपा से टिकट ले लिया। बिहारी लाल पहले कांग्रेस के विधायक थे और इस बार भाजपा के टिकट पर लड़ रहे हैं।

हमीरपुर सीट पर अशोक कुमार चंदेल जनता दल से विधायक रह चुके हैं। बाद में बसपा जॉइन की। एक बार निर्दलीय विधायक भी रह चुके हैं। इस बार भाजपा ने हमीरपुर सदर से प्रत्याशी बनाया है। राठ के विधायक गयादीन अनुरागी भाजपा और बसपा से गुजरते हुए पिछले विधानसभा में कांग्रेस में गए और जीते। इस बार फिर से कांग्रेस के टिकट पर किस्मत आजमा रहे हैं। बांदा में विवेक सिंह 1996 में लोकतांत्रिक कांग्रेस से विधायक थे।

2002 में बीजेपी के टिकट पर लड़े और हार गए। 2007 और 2012 में कांग्रेस के टिकट पर लड़कर जीते। इस बार भी कांग्रेस प्रत्याशी हैं। बबेरू के विधायक पहले बसपा में थे। फिर सपा में आए तो पिछला चुनाव जीता, इस बार भी मैदान में हैं। मानिकपुर विधानसभा के चुनाव मैदान में उतरे आर के सिंह पटेल कई पार्टियां आजमा चुके हैं। वह बसपा से विधायक और सपा से सांसद रह चुके हैं। एक बार फिर 2014 में बसपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा था। चुनावी व्यंजन में नारों का तड़का लगाना बहुत ज़रूरी होता है, लेकिन इस दल-बदल ने नारेबाज़ों का काम मुश्किल कर

दिया है। फिलहाल तो दलबदलू नेताओं के लिए एक मशहूर कवि की यह पंक्तियां-पहले हवा का रुख़ देखना है फिर यह तय करना है किस आले पर दिया रखना है।

(यह लेख, लेखक के गुस्ताख़ ब्लॉग से लिया गया है।)

    

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