हर साल गर्मी और उसके साथ उससे जुड़ी हुई बीमारियां आती हैं। शहरों के लोग यदि बिजली आती रहे तो बिजली के पंखे, कूलर और एसी का सहारा लेते हैं लेकिन गाँव के लोगों के पास खटिया उठाकर पेड़ के नीचे लेटने-बैठने के अलावा विकल्प नहीं।
बरसात में कच्चे घर धराशायी हो जाते हैं बहुतों का वर्षाकाल पेड़ों पर कटता है। जाड़े के दिन भी गाँवों में कम संकट नहीं लाते हैं जब कम कपड़ों में खुली हवा में खेतों में काम करना पड़ता है। हर साल की तरह इस साल भी शीत लहर का प्रकोप है।
इसे दुर्भाग्य कहें या अव्यवस्था कि ठंड से मौतें हो रही हैं और हमारे समाज के पास इससे बचने के समुचित उपाय नहीं है। पश्चिमी देशों को केवल ठंड से लड़ना होता है इसलिए उन्होंने इससे निपटने के विविध समाधान सोच रखे हैं और सफलतापूर्वक निपट रहे हैं। हमारे देश में अंग्रेजों का शासन था जिन्हें जाड़े से कोई शिकायत नहीं थी, उन्होंने ठंड से बचने के कोई उपाय नहीं खोजे। स्थानीय स्तर पर लोगों ने जो उपाय सोचे थे वे नाकाफी साबित हो रहे है। जंगल कट चुके हैं इसलिए तापने की लकड़ी नहीं है और पैरा खेतों में जला दिया जाता है इसलिए उसका बिछावन भी नहीं बन सकता।
हमारा शासन-प्रशासन पलायनवादी तरीके ढूंढता है। जाड़े में ठंड के कारण और बरसात में अतिवृष्टि की वजह से स्कूल कॉलेज बन्द कर दिए जाते हैं, गर्मियों में तो अंग्रेजों की दी गई परम्परा को निभाते हुए ग्रीष्मावकाश रहता है। इसका सबसे अधिक प्रभाव गरीब बच्चों की पढ़ाई पर पड़ता है। यूरोप और अमेरिका के लोग ठंड से स्कूल बन्द करें तो साल में अधिकांश समय स्कूल कॉलेज बन्द ही रहेंगे। ठंड से काम न रुके और बच्चों की पढ़ाई बन्द न हो इसका उपाय है कि गर्मियों की छुट्टियां समाप्त करके गर्मियों भर सवेरे के स्कूल चलाए जाएं। जाड़े में शीतावकाश किया जाए।
गाँवों में मिट्टी के मकान और छप्पर जाड़ा और गर्मी से निपटने के लिए सहायक होते हैं। छप्पर के नीचे आग तापना बहुत सरल है। परन्तु ऐसे मकानों पर रखरखाव का खर्च अधिक होता है इसलिए अब गाँवों के लोग उनसे छुटकारा पाने की कोशिश कर रहे हैं। यदि भारतीय वैज्ञानिकों और शिल्पकारों द्वारा कुछ ऐसे उपाय ढूंढ़े गए होते जिससे कच्चे मकानों का जीवनकाल बढ़ जाता और रखरखाव कम हो जाता तो ईंटें पकाने में पर्यावरण को होने वाली हानि से भी बचा जा सकता था और मौसम की मार से भी। गाँवों के लिए मकानों की नई डिजाइन बनाने में कम लाभ के कारण बिल्डरों और आर्किटेक्टों की रुचि का अभाव तो समझ में आता है परन्तु शोधसंस्थानों और जनहितकारी सरकारों ने भी विशेष रुचि नहीं दिखाई है।
शीतलहर में शरीर को ढकने के लिए गाँवों में स्वेटर की जगह बंडी यानी दो परत वाली रुई भरी बास्केट बनाते थे और ओढ़ने के लिए खूब मोटी रजाई। पहनने में कुर्ता और उसपर चादर या शाल, कानों को ढकता गमछा शरीर को ठंड से सुरक्षा प्रदान करते थे। अब समय बदला है जैकेट, विंडचीटर स्वेटर, कार्डिगन, कोट, पैंट, कैप और मोजे गाँवों तक पहुंचे हैं लेकिन गरीब आदमी के लिए यह सब खरीदना कठिन होता है और उसके बच्चे अब रुई वाली बंडी पहनने को तैयार नहीं होते। गाँवों में आग या अलाव और शहरों में भी चौराहों पर जलते थे, अब लकड़ी के अभाव में गरीबों का वह सहारा भी चला गया।
भोजन का रूप भी जाड़े के दिनों में गाँवों में बदल जाता था। मक्का, ज्वार, बाजरा की रोटियां, ताजा गरम गुड़ इसके साथ ही बथुआ, सरसों का साग और विविध मौसमी सब्जियां शरीर को ऊर्जा प्रदान करते थे। गुड़ बनाने का यही समय होता था और गुड़ की भट्टी के पास बैठकर आग तापने का आनन्द ही कुछ और था। अब ग्रामीण नौजवानों को भी इन सब में कोई रुचि नहीं, उन्हें भी फास्टफूड चाहिए, जो जाड़े से लड़ने के लिए ऊर्जा नहीं दे सकता। गाँववालों के पास शीतलहर से बचने के जो उपाय थे वे अब फैशन की भेंट चढ़ गए या फिर लालची मनुष्य ने समाप्त कर दिया। समस्याओं पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है।
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