70 के आजाद भारत में कृषि उत्पादन दशक दर दशक बढ़ता ही रहा। इस समय हमारा खाद्य उत्पादन 28 करोड़ टन तक पहुंच गया है। आज हम आत्मनिर्भर हैं। हालांकि यहां तक हम कई उतार चढ़ाव झेलकर पहुंचे हैं। आज भले ही हम खाद्य सुरक्षा के मामले में आत्म निर्भर दिख रहे हैं लेकिन क्या हमें वाकई निश्चिन्त हो जाना चाहिए? इस समय खाद्य उत्पादन की मात्रा की बजाय उसकी गुणवत्ता का संकट है। वैसे यह भी गौरतलब है कि हमारी आबादी हर साल दो करोड़ की रफतार से बढ़ती है। निकट भविष्य में सबके लिए पर्याप्त भोजन की उपलब्धता को लेकर चिंता है ही। लिहाजा खाद्य उत्पादन की मात्रा और गुणवत्ता के रूप में एक दोहरा संकट हमारे सामने है। इसीलिए आज हमें अपनी खाद्य सुरक्षा का आगा पीछा देख लेना चाहिए।
तीन चरणों में देख सकते हैं भारतीय खाद्य व्यवस्था के विकास को
भारतीय खाद्य व्यवस्था के विकास को समझाने के लिए कुछ विशेषज्ञ इसे तीन अवस्थाओं या चरणों में बांट कर समझाते हैं। इन चरणों को बांटने का आधार आज़ादी के बाद से अब तक की कृषि या अनाज उत्पादन की चुनौतियों को बनाया गया है। इसीलिए नई चुनौतियों के मद्देनज़र आजादी के बाद से आज तक भारतीय खाद्य प्रणाली के विकास को पलटकर देखना आगे के लिए काम आ सकता है।
पहला चरण
भारतीय खाद्य व्यवस्था का पहला चरण वह था जब आजाद होते ही भारत के सामने पहली समस्या खाद्य उत्पादन में आत्म निर्भर बनने की थी। तब देश में पूरी आबादी के लिए पर्याप्त अनाज उपलब्ध ही नहीं था। इसीलिए इस चरण का लक्ष्य हर व्यक्ति को पर्याप्त अनाज मुहैया करना था। उस समय हमारे उत्पादन और आवश्यकता के फर्क की भरपाई अनाज का आयात करके और दूसरे देशों से खाद्य मदद के रूप में मिली मदद से होती थी। विशेषज्ञ इस चरण को ‘Physical access to food’ कहते हैं। यानी अनाज भौतिक रूप से उपलब्ध ही नहीं था। देश करीब तीन दशकों तक इसी चरण में रहा। हरित क्रांति की परिकल्पना ने देश की इस समस्या का अंत किया। हरित क्रांति के दौरान किए गए प्रयासों से भारत खाद्य आत्मनिर्भरता का लक्ष्य पा सका। 80 के दशक के अंत तक भारत खाद्य उत्पादन में पूरी तरह से आत्म निर्भर बन चुका था।
दूसरा चरण
पहले चरण की सफलता के बाद पर्याप्त खाद्य उत्पादन की समस्या को लेकर जैसे ही स्थिति काबू में आई वैसे ही नीति निर्माताओं के सामने एक नई चुनौती खड़ी हो गई। यह भारतीय खाद्य व्यवस्था का दूसरा चरण था। पहले चरण में जहां पर्याप्त खाद्य सामग्री की उपलब्धता की चुनौती थी वहीँ दूसरे चरण की मुश्किल अनाज तक आर्थिक पहुंच की थी। आम आदमी में अनाज खरीदने की सामर्थ्य ही नहीं थी। हरित क्रांति के दौरान उत्पादन बढाने के लिए उन्नत बीज के इस्तेमाल के साथ-साथ रासायनिक खाद, कीटनाशक, ज्यादा पानी और बिजली जैसे खर्चे भी लागत में जुड़ गए। इससे अनाज महंगा हो गया। अब देश में अनाज उपलब्ध तो था, लेकिन उस समय के आम जन की पहुंच में नहीं था। इस चरण को ‘Economic access to food’ कहा गया।
यह भी देखें: आखिर क्यों होने चाहिए भारत के विकास के केंद्र में खेती और किसान
हालात और बिगड़ गए और इस सदी के पहले दशक में एक विरोधाभासी स्थिति बन गई जब केंद्र के पास अनाज का तीन गुना बफर स्टॉक रखा था और कई राज्यों में भुखमरी से लोग मर रहे थे। इस स्थिति से बफर स्टॉक बना कर रखने, हरित क्रांति के प्रयास या हमारी मानव कल्याण के लक्ष्य वाली व्यवस्था के मायने ही खत्म हो गए। तब सुप्रीम कोर्ट को इस मसले में दख्ल देना पड़ा था। पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने इस मामले में एक जनहित याचिका दाखिल की थी। उसी की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद राष्ट्रीय स्तर पर ‘फूड फॉर वर्क’ कार्यक्रम बनाया गया। कोर्ट ने सख्ती से सरकार को निर्देश दिए कि अनाज की कीमतें काबू में लाने के लिए हर संभव कदम उठाए जाएं। इसीलिए उस समय गेहूं को बड़े स्तर पर निर्यात किया गया।
2002 में हम विश्व में गेंहू के सातवें सबसे बड़े निर्यातक बन कर उभरे। हालांकि निर्यात होने वाला गेंहू काफी कुछ अनाज का वह हिस्सा ही था जो आर्थिक पहुंच न होने की वजह से आमजन को नहीं मिल पाया। अनाज के महंगे दामों को काबू में लाने के लिए किसानों को सब्सिडी दी जाने लगीं और कृषि क्षेत्र में सब्सिडी का आकार बढ़ता ही चला गया। इतिहास में जाकर देखते हैं तो यही लगता है कि उस स्थिति से निपटने के लिए समयबद्ध और लक्ष्य आधारित एक व्यापक आर्थिक नीति बननी चाहिए थी जिसका लक्ष्य आमजन की आमदनी बढ़ाना हो। जिससे उनकी खरीदने की क्षमता धीरे-धीरे बढ़ाई जा सके ताकि वह अनाज खरीद सकें और किसान को भी अपने उत्पाद का सही मूल्य मिलने लगे। यह स्थिति जैसी तब थी वैसी ही आज भी है।
यह भी देखें: जल प्रबंधन में कुशल केरल क्यों डूबा बाढ़ में, यह त्रासदी सबक है पूरे देश के लिए
आमदनी बढ़ाने की जगह अनाज की कीमतें कम करने की गलत नीति
पीछे पलट कर देखने से एक और बात पता चलती है। वह ये कि आम जन की आमदनी बढ़ाने की बजाए छोटे लक्ष्य बना कर सिर्फ अनाज की कीमतें कम करने को लक्ष्य बनाया गया। और सब्सिडियां बढती चली गयीं। इससे कृषि के विकास पर जो पैसा खर्च होना चाहिए था वह पैसा सब्सिडी और क़र्ज़ माफी जैसे उपायों में खर्च होता रहा। इसी वजह से गुज़रते वक्त के साथ कृषि क्षेत्र में गोदाम, बाजार, सडकें आदि जैसी आधारभूत जरूरतें पूरी नहीं हो पाईं। नागरिकों की आय बढाने पर जोर न देने की वजह से खाद्य सब्सिडी के बावजूद भी देश के कई पिछड़े इलाकों में ग़रीबों के सामने भुखमरी जैसी समस्या बनी रही। हम आज भी दूसरे चरण की समस्या को पूरी तरह खत्म नहीं कर पाए हैं। यह अलग बात है कि अनाज को हर व्यक्ति की आर्थिक पहुंच में लाने के लिए कई मोर्चों पर काम करने में कोई कसर भी नहीं छोड़ी गई। बहरहाल बात आज तक बन नहीं पा रही है।
तीसरा चरण
हरित क्रांति की नींव एक कठिन समय में रखी गई थी। देश सूखे और अकाल की मार झेल रहा था। चीन और पाकिस्तान से युद्ध के कारण भी स्थिति गंभीर थी। यह अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है कि उस समय फौरन राहत पहुंचाने के लिए खाद्य उत्पादन बढाने का हर तरह का उपाय मान्य रहा होगा। इसीलिए उन्नत बीजों के इस्तेमाल का पूरा फायदा उठाने के लिए हर सम्भव तकनीक अपनाई गई। जिसमें रासायनिक खाद, कीटनाशक, खरपतवार नाशक, ज्यादा पानी की जरूरत आदि शामिल थे। उस समय के हालात देखें तो इससे बेहतर कोई विकल्प शायद था भी नहीं।
लेकिन 80 के दशक के अंत में जब हरित क्रांति से खाद्य उत्पादन में वांछित सफलता मिल गई तब कुछ बुनियादी सवाल जरूर उठने चाहिए थे। संकट के समय खेती की जिस पद्धति का प्रयोग किया गया था वह हमेशा ही वैसी ही रहे इस बात पर नीति निर्माताओं और विशेषज्ञों को जरूर सवाल उठाने चाहिए थे। हमने पर्याप्त खाद्य उत्पादन का लक्ष्य पा लिया। उसके बाद उस उत्पाद को आमजन की आर्थिक पहुंच में लाने का लक्ष्य भी काफी हद तक पा लिया गया। लेकिन इस प्रक्रिया में खेती की गुणवत्ता को अपूरणीय क्षति पहुंचा दी गई। यही भारतीय खाद्य व्यवस्था का तीसरा चरण है। जिसे विशेषज्ञों ने ‘Ecological access to food’ कहा। यानि बाजार में अनाज और सब्जियां तो उपलब्ध हैं और व्यक्ति की उन्हें खरीदने की क्षमता भी है लेकिन वह खाने की वस्तुएं अब प्राकृतिक और स्वास्थ्य के लिए लाभकारी बची ही नहीं हैं। चाहे वे नए बीज हों, रासायनिक उर्वरक, या दूसरे रासायनिक पदार्थ जो एक लम्बे समय से भारतीय खेती का हिस्सा रहे हैं, इन सब के उपयोग से ज्यादातर खाद्य उत्पादों में रासायनिक पदार्थों की मात्रा खतरे के स्तर से ऊपर जा चुकी है। खेतों की मिट्टी गंभीर रूप से दूषित हो चुकी है। पूरी दुनिया पिछले दो दशक से अब जैविक खेती की और लौट रही है।
यह भी देखें: मुद्दा : किसान के उत्पाद के दाम को लेकर यह कैसा विरोधाभास
रासायनिक संकट पर फौरन सोचने की जरूरत
खाद्य असुरक्षा के उस दौर में हर व्यक्ति तक भोजन पहुंचाने का लक्ष्य बेशक एक फौरी जरूरत थी, लेकिन अब हम बहुत आगे निकल आए हैं। लिहाज़ा नीति निर्माताओं को कृषि के इस रासायनिक संकट को प्राथमिकता पर रख कर सोचना पड़ेगा। हर रोज 130 करोड़ की आबादी अपनी सेहत के साथ समझौता कर रही है। शायद यह समय एक और हरित क्रांति की मांग करता है। जिसका लक्ष्य भौतिक और आर्थिक रूप से खाद्य उत्पादों को पहुंच में लाने के साथ साथ स्वास्थ्य-संगत भोजन आमजन की पहुंच में लाना हो।
(सुविज्ञा जैन प्रबंधन प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रनोर हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)