प्रधानमंत्री द्वारा 8 नवम्बर 2016 को की गई विमुद्रीकरण की घोषणा के बाद अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव पर राजनीतिक गलियारों से लेकर वैश्विक थिंक टैंक के बीच, एक लम्बी बहस हुई थी। इसी विषय को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री एवं अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह ने कहा था कि आने वाले कुछ महीनों में विमुद्रीकरण एक विशाल त्रासदी में परिणत हो सकता है।
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कमोबेश डा. मनमोहन सिंह का समर्थन करने के अंदाज में फोर्ब्स पत्रिका के स्टीव फोर्ब्स ने भी कहा था कि भारत इस समय नकदी के खिलाफ सरकारों के दिमाग में चढ़ी सनक का सबसे चरम उदाहरण है। बहुत-से देश बड़ी रकम के नोटों को बंद करने की दिशा में बढ़ रहे हैं, और वही तर्क दे रहे हैं, जो भारत सरकार ने दिए हैं, लेकिन इसे समझने में कोई चूक नहीं होनी चाहिए कि इसका असली मकसद क्या है- आपकी निजता पर हमला करना और आपकी जिंदगी पर सरकार का ज़्यादा से ज़्यादा नियंत्रण थोपना। परन्तु उसी समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था- ‘हम जनवरी में एक भिन्न और बेहतर दुनिया में प्रवेश करेंगे।’
अब जब कुछ समय पहले केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आंकड़े भारतीय अर्थव्यवस्था की ग्रोथ को ज्यादा प्रभावित करते नहीं दिख रहे हैं और उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की प्रचंड विजय ने यह भी साबित कर दिया है कि कम से कम देश की जनता ने न सही पर उत्तर प्रदेश की जनता ने प्रधानमंत्री के निर्णय में स्वर्ण युग देखने जैसी सहमति तो दे ही दी है। इसलिए अब यह पुनः प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में विमुद्रीकरण ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर पर कोई प्रभाव नहीं डाला? कांग्रेस केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन द्वारा दिए गए आंकड़ों बाद अवसादग्रस्त नजर आ रही है जबकि सरकार प्रमादी।
यहां दो सवाल और भी हैं। प्रथम यह कि क्या वास्तव में इस देश के लोग अर्थव्यवस्था के मौलिक पक्षों से वाकिफ हैं या उनमें दिलचस्पी रखते हैं? दूसरा यह कि क्या वास्तव में अर्थशास्त्र को सिर्फ ‘डाटा इकोनामिक्स’ तक ही सीमित करके देखना चाहिए? तीसरा एक और सवाल है कि हम पीपीपी से इतर अपनी निबल जीडीपी कितनी बढ़ा पाए हैं क्योंकि पीपीपी में तो डालर और रुपए की कीमतों का मैट्रिक्स भी शामिल होता है।
28 फरवरी 2017 को केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) की ओर वित्त वर्ष 2016-17 की तीसरी तिमाही के आंकड़े जारी किए गए जिनमें भारत की आर्थिक विकास दर को 7.1 प्रतिशत के स्तर पर रखा गया है। सीएसओ द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि विमुद्रीकरण का अर्थव्यवस्था पर कोई असर नहीं हुआ। इनके अनुसार वर्ष 2016-17 में स्थिर मूल्यों (आधार वर्ष 2011-12) पर वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के बढ़कर 121.65 लाख करोड़ रुपए रहने का अनुमान लगाया गया है, जबकि 31 जनवरी 2017 को वर्ष 2015-16 के लिए प्रथम संशोधित अनुमान में जीडीपी को 113.58 लाख करोड़ रुपए आंका गया था।
प्रतिशत के लिहाज से वर्ष 2016-17 में जीडीपी वृद्धि दर 7.1 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है, जबकि वर्ष 2015-16 में जीडीपी वृद्धि दर 7.9 प्रतिशत आंकी गई थी। यानि जीडीपी वृद्धि दर में केवल 0.8 प्रतिशत की कमी ही दर्ज की गई जो स्वीकार्य होनी चाहिए। सीएसओ ने आर्थिक विकास के लिए द्वितीय अग्रिम अनुमान भी जारी किया है साथ तीसरी तिमाही के लिए जीडीपी और जीवीए (ग्रास वैल्यू एडेड अथवा सकल मूल्य वर्द्धन) संबंधी आंकड़े जारी किए है जो बताते हैं कि जीडीपी वृद्धि दर दूसरी तिमाही 7.3 प्रतिशत से गिरकर 7 प्रतिशत रही। इसे देखते हुए केयर रेटिंग के प्रमुख अर्थशास्त्री मदन सबनवीस का कहना है कि ‘जीडीपी आंकड़े निश्चित तौर आश्चर्यजनक हैं लेकिन सुखद आश्चर्य वाले।’
अब सवाल यह उठता है कि जीडीपी की इस बेहतरी की असल वजह क्या है? दरअसल जीडीपी, जीवीए में निबल अप्रत्यक्ष करों (नेट इनडायरेक्ट टैक्सेज) को जोड़ने और उत्पादों पर दी गई सब्सिडीज को घटाने के पश्चात प्राप्त होता है। चूंकि विमुद्रीकरण के पश्चात सरकार को प्राप्त होने वाले करों में काफी वृद्धि हुई और दूसरी तरफ सरकार ने सामाजिक सुरक्षा व कल्याण हेतु दी जाने वाली सब्सिडीज को घटाया तथा पब्लिक वेलफेयर स्कीमों पर व्यय हेतु निर्धारित धन के रिसाव (लीकेज) को रोका (जैम द्वारा), इसलिए जीडीपी अपेक्षाकृत बढ़े हुए आंकड़ों को दिखाने में सफल हो गया। इसे ही देखते हुए वित्त सचिव शक्तिकांत दास ने कहा कि जीडीपी आंकड़ों ने ‘विमुद्रीकरण पर नकारात्मक अकटलों’ को गलत साबित कर दिया।’
सब्सिडीज का रिवाइज्ड एस्टीमेट अब उपलब्ध है और ये बजट अनुमानों के विपरीत कहीं अधिक सख्त संकुचन को व्यक्त करता है। विमुद्रीकरण के बाद सब्सिडी नकारात्मक वृद्धि को जबकि अप्रत्यक्ष कर संग्रह सकारात्मक विकास को प्रकट करता है, स्वाभाविक है कि जीडीपी अपनी पूर्व स्थिति को बनाए रखने में सफल हो गयी।
एक बात यहां पर और ध्यान रखने योग्य है, वह यह कि जीडीपी के लिए नए फार्मूले को अपनाए जाने के पश्चात जीडीपी अर्थव्यवस्था की स्थिति को उतना स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं करता जितना कि बुनियादी स्थिर मूल्यों पर सकल मूल्य वर्द्धन (जीवीए)। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2016-17 में बुनियादी स्थिर मूल्यों (2011-12) पर वास्तविक जीवीए के 111.68 लाख करोड़ रुपए होने का अनुमान व्यक्त किया गया है, जो वर्ष 2015-16 में 104.70 लाख करोड़ रुपए था। ध्यान रहे कि वर्ष 2016-17 में बुनियादी मूल्यों पर वास्तविक जीवीए की अनुमानित वृद्धि दर 6.7 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है, जो वर्ष 2015-16 में 7.8 प्रतिशत थी। यानि बुनियादी स्थिर मूल्यों पर सकल मूल्य वर्द्धन में 1.1 प्रतिशत की कमी आ गयी।
यही कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक तथा भारतीय रिज़र्व बैंक जैसी संस्थाओं की भविष्यवाणियां गलत साबित हुईं या वे सही होने की हद तक सही हुईं विशेषकर तब जब 2016-17 का आर्थिक सर्वे यह मानता है कि देश की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर ज्यादा प्रभाव पड़ा जो कुल अर्थव्यवस्था में 40 से 45 प्रतिशत का हिस्सा रखती है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि सीएसओ अपने आकलन में अनौपचारिक क्षेत्र (इनफार्मल सेक्टर) को शामिल नहीं करता। चलते-चलते इस सवाल को भी हम सरकार के सामने रख ही सकते हैं कि प्रधानमंत्री जी ने अमेरिकी कांग्रेस में भारत की जीडीपी को 8 ट्रिलियन डालर तक पहुंचाने की बात की थी लेकिन यह अभी 2.27 ट्रिलियन डालर से 2.50 ट्रिलियन डालर पर पहुंच पाया है। यानि हम यदि किसी त्रासदी से नहीं गुजर रहे हैं तो स्वर्ण युग की अनुभूति भी नहीं कर पा रहे हैं।
(लेखक अंतराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं यह उनके निजी विचार हैं।)
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