क्यों नहीं मजबूत हो पाए गाँव?

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क्यों नहीं मजबूत हो पाए गाँव?ग्रामीण भारत अभी भी उस प्रतिस्पर्धा से बहुत दूर खड़ा है जिसमें यूरोप और अमेरिका के गाँव बहुत आगे निकल चुके हैं।

लेखक- डॉ. रहीस सिंह

ग्रामीण विकास से जुड़ी एक रिपोर्ट (भारत ग्रामीण विकास रिपोर्ट 2012-13) कहती है कि ग्रामीण भारत बहुत व्यापक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। इस परिवर्तन के विवरण ‘ग्रामीण पुनरुत्थान’ की उत्साहजनक कहानियों और ग्रामीण उपयोग के तेजी से बढ़ते विस्तार से लेकर कृषि सम्बंधी अत्यधिक संकटों और बड़ी संख्या में किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं तक विस्तृत हैं। समकालीन ग्रामीण भारत वास्तव में बहुत जटिल है, जिसमें परिवर्तन की कई नई शक्तियां कार्य कर रही हैं और यह किसी भी एक श्रेणी के अंतर्गत पूरी तरह से नहीं आती इसलिए गाँवों को समझना, उनके समक्ष उपजी चुनौतियों और संभावनाओं की गहराई से खोज करना जरूरी है।

यदि ग्रामीण वित्तीय संरचना सम्बंधी अध्ययनों पर ध्यान दें तो मुख्य रूप से पांच मुख्य घटक नजर आते हैं- बचतकर्ता, उधारग्राही, बिचौलिया, वित्तीय प्रपत्र, विधिक फ्रेमवर्क। प्रथम श्रेणी के अंतर्गत मध्यम और उच्च श्रेणी के किसान आते हैं जो अधिशेष उत्पादन करते हैं। ये अधिशेष उत्पादन कर बचतों का निर्माण करते हैं जिनकी बचतें या तो घरों में सुरक्षित होती हैं अथवा स्थानीय स्तर पर संचालित होने वाली औपचारिक अथवा अनौपचारिक एजेंसियों में लेकिन यदि अधिशेषों का आकार बड़ा होता है तो उनसे होने वाली बचतें बैंकों में ही जमा होती हैं विशेषकर कोऑपरेटिव, वाणिज्यक अथवा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों में।

किसान इसे ‘फाइनेंसिंग इनपुट’ के रूप में प्राप्त करता हैं क्योंकि वह इसका खेती में टिकाऊ सम्पतियों (ड्यूरेबल असेट्स) में निवेश करता है। कभी-कभी इस प्रकार की उधारी कृषि भिन्न उत्पादन उद्देश्यों के लिए भी ली जाती है। यहां पर एक बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि ग्रामीण क्षेत्र में उत्पादन और निवेश ऋण औपचारिक एजेंसियों में उपलब्ध होता है लेकिन उपभोग ऋण के लिए मुख्य स्रोत अनौपचारिक एजेंसियां ही रहती हैं। कारण यह है कि औपचारिक एजेंसियां समर्थक ऋणधार (कोलैटरल सिक्योरिटी) मांगती है जबकि अनौपचारिक एजेंसियां मौखिक या लिखित गारंटी पर ही ऋणराशि प्रदान कर देती हैं। ग्राम अर्थव्यवस्था में मानसून की अनिश्चिता अथवा बाढ़ व सूखा की स्थिति जोखिम बढ़ाती रहती है इसलिए सरकारी एजेंसियां अधिक दिलचस्पी नहीं लेती।

सरकारों ने इन अनौपचारिक या परम्परागत एजेंसियों अथवा बिचौलियों को तोड़ने के लिए औपचारिक संस्थाओं, कोऑपरेटिव सोसाइटीज, पीएसीएस यानि पुअरेस्ट एरियाज सिविल सोसाइटी, डीसीसीबीएस, कमोडिटी कोऑपरिटव्स....., क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक एवं वाणिज्यक बैंकों की स्थापना की है लेकिन क्या छोटे किसान इनकी जद तक आसानी से पहुंच पाए? यदि नहीं तो आखिर इसकी वजह क्या रही ? इसका कारण इन संस्थाओं द्वारा दिए जाने वाले ऋणों पर आने वाली लागत का नहीं है बल्कि सरकारी संस्था होने का रौब, ऋण से जुड़ी शर्तें तथा तमाम प्रकार की जटिलताएं हैं जो सरकारी तंत्र का नतीजा हैं। इसके अतिरिक्त सरकारी एजेंसियों की भी अपनी कुछ समस्याएं और भी हैं जो ग्रामीण वित्तीय संरचना में उनकी सक्रियता को कम कर रहती हैं, जैसे-ऋण व्यवस्था से जुड़ सख्त नियम, सुलभता , नियत समय आधारित परिचालन, लचीलेपन में कमी और प्रक्रियागत जटिलता।

उपर्युक्त कारणों का समाप्त न हो पाना आज भी भारत में ग्रामीण वित्त व्यवस्था में गैर-संस्थागत वित्त को निर्णायक बनाए हुए है। कुछ अध्ययन रिपोर्टों के अनुसार भारत में कुल वित्त का लगभग 40 प्रतिशत वित्त गैर-संस्थागत वित्त है। हमारी देश की सरकारों और नेताओं ने इस स्थिति का राजनीति प्रयोग तो भरपूर किया लेकिन वे ग्रामीण वित्त के निर्णायक उपायों को स्थापना नहीं कर पाए। सार्वजनिक वित्तीय तंत्र जब अपना पूर्ण प्रतिफल नहीं दे पाया तो सरकार ने माइक्रोफाइनेंस और एनजीओ के जरिए विकास के समावेशी तंत्र को आगे बढ़ाने की कोशिश की। पिछले दो दशकों से सरकार, गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) तथा बैंकिंग संस्थान समानांतर प्रयासों के जरिए इस क्षेत्र के विकास में अपनी-अपनी स्पष्ट भूमिका निभाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन क्या माइक्रोफाइनेंस व्यवस्था को सफलता के किसी पैमाने पर जाकर देखा जा सकता है?

लघु स्तरीय वित्तीय सेवाओं के लिए माइक्रोफानेंस व्यवस्था की स्थापना बेहतर माना जा सकता है क्योंकि ये अंतर्गत ऋण और बचत दोनों ही प्रकार की सेवाएं आती हैं। इस प्रकार से माइक्रोफाइनेंस आर्थिक सेवाओं में जोखिम कम करने, बचत एवं आत्म सशक्तिकरण को बढ़ाने का कार्य करता है। राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) भारत में माइक्रोफाइनेंस को प्रोत्साहित करने में अग्रणी है।

इसके स्व-सहायता समूह मॉडल ने वाणिज्यिक बैंकों को गरीबों के लिए ऋण निर्माण के लिए प्रेरित किया है लेकिन वहीं दूसरी तरफ ऐसी बहुत सी खबरे हैं कि माइक्रोफाइनेंस सस्थाओं ने सैद्धांतिक तौर पर 15 से 40 प्रतिशत के बीच लेकिन व्यवहारिक तौर पर 25 से 75 प्रतिशत तक ब्याज वसूल किया। यह ग्रामीण गरीबों और स्वरोजगारों के लिए साहूकार की ब्याज व्यवस्था से कम मारक सिद्ध नहीं हुआ। इसके साथ ही गैर-सरकारी संगठन यानि एनजीओ को भी वृहत्तर अवसर भारत में दिए गये। गैर-सरकारी संगठनों ने इस दिशा में कितनी दिलचस्पी दिखायी, इसका अंदाजा इनकी संख्या से लगाया जा सकता है। इस समय भारत में लगभग सक्रिय सूचीबद्ध एनजीओ की संख्या एक रिपोर्ट के मुताबिक 33लाख के आसपास है। महाराष्ट्र एनजीओ के मामले में सबसे आगे है जहां लगभग 4.8 लाख एनजीओ सक्रिय हैं। दूसरे स्थान पर पर आंध्रप्रदेश है, जहां 4.6 लाख एनजीओ हैं। उत्तर प्रदेश में 4.3 लाख, केरल में 3.3 लाख, कर्नाटक में 1.9 लाख, गुजरात व पश्चिम बंगाल में 1.7-1.7 लाख, तमिलनाडु में 1.4 लाख, उड़ीसा में 1.3 लाख तथा राजस्थान में एक लाख एनजीओ सक्रिय हैं।

आर्थिक दृष्टि से देखें तो भारत में प्रतिवर्ष सभी एनजीओ मिल कर 40 हजार से लेकर 80 हजार करोड़ रुपये तक जुटा लेते हैं, जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा सरकार का होता है। विदेशी फंडिंग या दानदाताओं संस्थाओं से भी ये बड़े-बड़े फंड झटक देते हैं जिससे इनका वित्तीय आधार बहुत विस्तृत हो जाता है लेकिन क्या वास्तव में ये ग्रामोत्थान, ग्रामविकास या ग्राम-अवसंरचना में परिवर्तन ला पाए? वैसे तो ग्रामीण क्षेत्र में एनजीओ की भूमिका बहुआयमी रूप में देखी गयी है। जैसे-कृषि, डेयरी उत्पादन, सामाजिक उत्थान, महिला सशक्तीकरण, डिजिटल सम्बद्धता प्रोत्साहन, अधिसंरचनात्मक विकास, ग्रामीण कौशल प्रशिक्षण, स्वरोजगार प्रशिक्षण....आदि, लेकिन अध्ययन रिपोर्टें इनके पक्ष में भी जाती हुई नहीं दिखतीं।

कुल मिलाकर ग्रामीण भारत अभी भी उस प्रतिस्पर्धा से बहुत दूर खड़ा जिसमें यूरोप और अमेरिका के गाँव बहुत आगे निकल चुके हैं। इसकी वजह है क्या है? स्पष्टतः पहली यह कि हम कर्तव्यपरायणता से उस सीमा तक बंधे नहीं हैं जिस सीमा तक निजी लाभों से सम्बद्ध व उनके प्रति प्रतिबद्ध हैं। दूसरी यह कि हमारी मानसिकता बेईमानी और लोभ की लालसा से लबालब है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को सोना बनाने की बात कर रहे हैं, इसके लिए उन्हें साधुवाद देना चाहिए। लेकिन शायद या तो उन्होंने देश मानवशास्त्रीय अध्ययन नहीं किया है या फिर वे देश के सामने श्रेष्ठ अभिनेता की तरह अभिनय कर रहे हैं।

(लेखक आर्थिक व राजनैतिक विषयों के जानकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

   

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