– सन्तोष पूनिया, डिम्पल शर्मा और धनराज जाट
आज पूरा विश्व कारोना वायरस महामारी के बुरे दौर से गुजर रहा है। विश्व की एक बढ़ी आबादी बीमारी की मार को झेल रही है और लाखों लोग बीमारी के चलते मारे जा चुके हैं। वहीं दूसरी ओर अचानक से घोषित लॉकडाउन के चलते जिंदगी के पहिये चार दीवारी में थम कर रह गए हैं।
इस वायरस ने दुनिया के सबसे विकसित एवं ताकतवर देशों की भी कमर तोड़ कर के रख दी है और इन देशों की जीड़ीपी दिन-ब-दिन गिरती जा रही है। इसके प्रभाव से भारत भी अछूता नहीं रहा है। भारत में लॉकडाउन की अचानक घोषणा और अनियोजित तैयारी से सबसे ज्यादा प्रभावित असंगठित क्षेत्र का प्रवासी दिहाड़ी मजदूर वर्ग रहा है। अचानक से काम बंद होने और शहर का परायों जैसे बर्ताव के परिणामस्वरुप करोड़ों की संख्या में प्रवासी श्रमिक रोजगार खोकर, भूख एवं सरकारी अव्यवस्थाओं के चलते पैदल ही घर की ओर चलते नजर आये।
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले श्रमिकों की कुल संख्या 45.36 करोड़ थी, जो कि वर्तमान में बढ़कर के 50 करोड़ से भी ज्यादा होने का अनुमान है। इनमें से अधिकतर प्रवासी श्रमिक होते है जो कि एक राज्य से दूसरे राज्यों में आजीविका की तलाश में प्रवास करते हैं।
वहीं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज द्वारा वर्ष 2019 में किये गये अध्ययन के अनुसार भारत के बड़े शहरों की लगभग 29 प्रतिशत आबादी दिहाड़ी मजदूरों की बताई गई है। फिर सरकार से इस तरह की चूक कैसे हो गई? क्यों राज्यों और देश की सरकार अचानक हुए लॉकडाउन का प्रवासी श्रमिकों पर प्रभाव का आंकलन नहीं कर पाई?
आज जब लॉकडाउन के 50 दिन के बाद भी जब प्रवासी श्रमिक सरकारी अव्यवस्थाओं के कारण सड़कों पर चलते नज़र आये तो शहरों और सरकार दोनों का ध्यान इस ओर गया। भारत में 2019-20 के दौरान सरकार के द्वारा पीड़ीएस सिस्टम में बदलाव करते हुए इन्हीं श्रमिकों के हित में वन नेशन वन राशन कार्ड से राज्यों को जोड़ने की घोशणा की गई थी। परन्तु इसका समयबद्ध लागू नहीं हो पाने का खामियाजा उठाते ये प्रवासी श्रमिक भूख से बदहाल लाखों की संख्या में सड़कों, रेल की पटरियों और हाईवे पर चलते नज़र आये।
8 मई के समाचार पत्र और टीवी चैनलों पर एक बहुत ही दुःखद घटना की खबर आई। इसमें औरंगाबाद के नजदीक रेल पटरी पर सोते हुए 15 श्रमिक मालगाड़ी के नीचे आकर असमय मौत के मुंह में समा गए। यह सरकार पर भरोसा खो चुके उन श्रमिकों के सपनों पर अंतिम प्रहार था।
क्या सिर्फ गरीब, दिहाड़ी मजदूर ही समस्याग्रस्त है? क्या और किसी कामगार वर्ग पर लॉकडाउन का प्रभाव नहीं पड़ा है? ऐसा नहीं है भारत में हुए इॅकानोमिक सर्वे 2018-19 के तहत 93% लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। इनमें से कुछ लोगों के पास सामाजिक सुरक्षा और औपचारिक अनुबंध भी है और नियोक्ता जॉब सिक्योरिटी के नाम पर पीएफ, ईएसआईसी व अन्य सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराता है।
हजारों रुपया महीना की पगार भी इनके बैंक खाते में जाता है। परन्तु लॉकडाउन के चलते मझौले पूंजीपतियों/उद्योगपतियों/ नियोक्ता वर्ग को भी अपने मुनाफे में सेंध लगने की सम्भावना सताने लगी। उनके द्वारा भी सरकार के आदेशों की अवहेलना करते हुए लॉकडाउन का पैसा काटने, जबरन इस्तीफा मांगने व गैर कानूनी तरीके से नौकरी से निकालने जैसे हथकंडे अपनाते हुए देखे गए।
राजस्थान सरकार एवं आजीविका ब्यूरो द्वारा संचालित लेबरलाइन पर लॉकडउन की अवधि में 1200 से अधिक शिकायतें दर्ज हुई हैं। इनमें से 65 प्रतिशत शिकायतें लॉकडाउन का पैसा काटने, जबरन इस्तीफा मांगने व गैर कानूनी तरीके से नौकरी से निकालने की हैं। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय और राजस्थान सरकार के उद्योग, सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम विभाग द्वारा जारी की गई एडवाइजरी की भी खुलेआम धज्जियां उडाई जा रही हैं।
इस एडवाइजरी में यह कहा गया है कि लॉकडाउन अवधि में किसी भी कर्मचारी या कामगार का वेतन न काटा जाए, किसी को नौकरी से न निकाला लाए और जबरन इस्तीफे न लिए जाए। नियोक्ताओं ने मई माह तक आते-आते तो और भी हद कर दी। कहीं कामगार शिकायत ना कर दें, इससे बचने के लिये कामगार की पगार में से 20 से 40 प्रतिशत तक की कटौती जब तक फाइनेंशियल लॉस कवर ना हो तब तक करने का आदेश जारी कर दिया गया। जिससे या तो कामगार काम छोड़ेगा या फिर नौकरियों की कमी की मार झेलते हुए काम करता रहेगा।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी ने भारत देश में बेराजगारी पर एक सर्वे रिर्पोट जारी की है। जिसके अनुसार फरवरी में बेरोजगारी दर 7.78 फीसदी थी। जो कि लॉकडाउन के चलते बढकर के 27 फीसदी से भी अधिक हो गई है। इस का प्रभाव शुरुआती तौर पर असंगठित क्षेत्र पर देखने को मिला, परन्तु अब धीरे-धीरे संगठित व सुरक्षित क्षेत्र में नौकरी करने वाले कर्मचारियों पर भी देखने को मिल रहा है।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अध्ययन में यह भी अनुमान लगाया है कि लगभग 12 करोड़ से भी अधिक श्रमिक को इस कोरोना लॉक डाउन के चलते रोजगार से हाथ धोना पडेगा।
हालांकि सरकार द्वारा हल्की मंशा से एक ओर तो नियोजकों और उद्योगपतियों द्वारा वेतन कटौती नहीं करने और नौकरियों से कामगारों को नहीं निकालने की एडवाईजरी जारी की गई थी, वहीं दुसरी ओर कोरोना से प्रभावित औद्योगिक इकाईयों की आर्थिक स्थिति को पटरी पर लाने के नाम पर कई राज्य सरकारों ने उद्योगपतियों को श्रम कानूनों के पालन नहीं करने की भी खुली छूट भी दे दी।
गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश की सरकार के द्वारा इन्हें श्रम कानूनों में छूट इसका सीधा उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। राजस्थान सरकार द्वारा 15 अप्रैल को जारी आदेश के अनुसार आगामी तीन माह तक 12 घण्टे काम करवाने की छूट दी है एवं मध्यप्रदेश व अन्य राज्य भी इसी राह की ओर बढ रहे हैं।
मजदूर व नियोक्ताओं की आपसी निर्भरता इस रुप में भी इस समय में देखने को मिली कि सरकार द्वारा काम कराने की कुछ छूट के बाद भी मजदूर व कामगार वर्ग का डर आम तौर पर दिख रहा है, वो काम पर नहीं लौटना चाहते हैं। जिसका सीधा असर उधोगों पर पड़ा है।
इसका सीधा उदाहरण बिल्डरों की कर्नाटक मुख्यमंत्री से अपील करने पर कर्नाटक सरकार द्वारा 6 मई को प्रवासी मजदूरों को अपने घरों को लौटने वाली ट्रेन को रद्द करवा दिया था। सरकार एवं उद्योगपतियों के द्वारा लॉक डाउन के दौरान प्रवासी श्रमिकों के प्रति रही उदासीनता का खामियाजा़ मजदूर वर्ग पर तो पड़ा ही है, पर उद्योगों को भी पटरी पर आने के लिए आज नहीं तो कल क्या इनकी आवश्यकता नहीं होगी?
खैर श्रम कानून पहले ही पंगु थे। नियोक्ताओं में इनका ड़र ही नहीं था, वो अपनी मनमर्जी से इनको तोड़ और मरोड़ते थे। साथ ही श्रम न्यायालयों में विवादों की कार्यवाही अपने आप में इतनी धीमी व लचर है कि आम व्यक्ति इसमें जाना ही नहीं चाहता। ऐसे में अब देश का 93 प्रतिशत से ज्यादा कामगार व मजदूर वर्ग मालिक व ठेकेदारों के हाथ की कठपुतली बनकर रह जायेगा।
डिस्क्लेमर- सन्तोष पूनिया, डिम्पल शर्मा और धनराज जाट आजीविका ब्यूरो, कानूनी शिक्षण एवं पैरवी इकाई में कार्यरत हैं, जो प्रवासी श्रमिकों के लिए काम करने वाली एक गैर लाभकारी संस्था है। ये उनके निजी विचार हैं।
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